एक पारखी लेखक ने टिप्पणी की थी कि सरकार और केंद्रीय बैंक तीन पैरों की दौड़ वाली टीम हैं; वे या तो साथ दौड़ें या गिर जाएं। विकास और कीमतों में स्थिरता- अर्थव्यवस्था के इन दो निरपवाद लक्ष्यों में भी कभी टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है : जब महंगाई ज्यादा हो या बढ़ रही हो और विकास दर निम्न हो या इसमें गिरावट आ रही हो; या जब विकास दर इतनी जबर्दस्त हो कि इससे महंगाई बढ़ने का खतरा उत्पन्न हो जाए। वित्तमंत्री (सरकार) और गवर्नर (केंद्रीय बैंक) दोनों अपनी भूमिका में होंगे; वे मिलेंगे; दोनों ही अपनी चिंताएं एक-दूसरे से साझा करेंगे; और फिर चीजें सहज हो जाएंगी। आज जब देश का बहुत कुछ दांव पर है, सरकार और केंद्रीय बैंक एक-दूसरे पर लगातार तलवारें ताने हुए हैं।
हालांकि, आज जो हम देख रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। पहले कभी नहीं हुआ कि गवर्नर के प्रोत्साहन से डिप्टी गवर्नर केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के विचार को खंगालने लग जाएं और सार्वजनिक भाषण में सरकार को चेतावनी दें कि उसे बाजार के गुस्से का सामना करना पड़ेगा। यह भी पहले कभी नहीं हुआ कि एक सार्वजनिक भाषण में वित्तमंत्री यह कहते हुए प्रतिकार करें कि जब बैंक बिना सोचे विचारे कर्जे बांट रहे थे, तो आरबीआइ ने नजर फेर ली थी। पहले कभी नहीं हुआ कि बाजार में एक अस्थायी उछाल पर वित्तीय मामलों के सचिव डिप्टी गवर्नर की चेतावनी का उपहास उड़ाएं।
आरक्षित निधियों पर नजर
इसकी जड़ में सरकार की अप्रत्याशित रूप से धारा सात में प्रदत्त शक्तियों के उपयोग की मंशा थी, जो रिजर्व बैंक को लगभग यह आदेशित करती है कि वह ‘सार्वजनिक हित’ में सरकार के साथ ‘विचार विमर्श’ करे। इस सूची में सरकार के मुद्दे बस बहाना हैं। दबाव में चल रही गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को ज्यादा तरलता मुहैया कराना, सार्वजनिक क्षेत्र के ग्यारह बैंकों को तत्काल सुधारात्मक कार्रवाइयों के प्रावधान में थोड़ी-सी ढील, लघु और मझोले उपक्रमों को कर्ज मुहैया कराने के लिए एक विशेष खिड़की जैसे मुद्दे इतने जटिल नहीं थे कि वित्तमंत्री और गवर्नर बातचीत की टेबल पर इसका हल नहीं निकाल पाएं। असली मुद्दा पर्दे के पीछे है- आरबीआइ की आरक्षित निधियां।
31 मार्च, 2018 को रिजर्व बैंक की आरक्षित निधियां निम्नवत थीं :
1- करंसी और पुनर्मूल्यांकित स्वर्ण कोष 6,91,641 करोड़
2- आकस्मिक निधि 2,31,211 करोड़
3- संपत्ति विकास फंड 22, 811 करोड़
4- निवेश पुनर्मूल्यांकन खाते में 13,285 करोड़
5- विदेशी मुद्रा वायदा ठेका मूल्यांकन खाते में 3,262 करोड़
6- आरक्षित पूंजी 6,500 करोड़
कुल : 9,68,710 करोड़
इनमें एक, चार और पांच नंबर के क्रमों में बदलाव आता रहता है, जो विनिमय दर और ब्याज दर पर निर्भर है। बाकी तीन आरक्षित निधियां हैं, जो साल-दर-साल रिजर्व बैंक के सालाना अधिशेष को इसमें डालने के कारण बनी हैं। रिजर्व बैंक का वार्षिक अधिशेष सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच तनाव का कारण रहा है। डॉ. वाईवी रेड्डी इस पूरे वार्षिक अधिशेष को सरकार को हस्तांतरित करने के सख्त खिलाफ थे। डॉ. रघुराम राजन ने इस मुद्दे का समाधान किया और 2013-14 से बैंक का पूरा वार्षिक अधिशेष सरकार को हस्तांतरित होने लगा। यानी अभी भविष्य में वार्षिक अधिशेषों के जरिए इन आरक्षित निधियों में कोई बढ़ोतरी नहीं होनी है (यद्यपि वार्षिक अधिषेषों की गणना के तरीके विवाद का विषय हो सकते हैं)।
प्रश्न, उत्तर नहीं
ऐसा लगता है कि सरकार की राय में ये आरक्षित निधियां बहुत ज्यादा हैं। आरबीआइ की कुल संपत्तियों में आरक्षित निधियों का हिस्सा 26.8 प्रतिशत है, जबकि कई केंद्रीय बैंकों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि यह अनुपात चौदह प्रतिशत है। सरकार की नजर कम से कम एक तिहाई आरक्षित निधियों पर है- जो लगभग तीन लाख बीस हजार करोड़ है। संयोग वश यह लगभग उतनी ही रकम है जितनी की सरकार विमुद्रीकरण के बाद फायदे की उम्मीद लगाए बैठी थी!
सरकार का पक्ष कमजोर है और वह इन सवालों का जवाब देने की अनिच्छुक है :
1 : 2013-14 से ही सारा का सारा वार्षिक अधिशेष सरकार को हस्तांतरित कर दिया जाता है। फिर सरकार एक ऐसे मुद्दे को दोबारा क्यों खोलना चाहती है जिसका समाधान हो चुका है?
2: निधियों के अधिकतम आकार (संपत्ति के समानुपात में) को लेकर कोई सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय मानक नहीं हैं। सरकार ऐसा क्यों सोचती है कि 26 प्रतिशत बहुत ज्यादा है?
3: अध्ययन में जिन देशों को शामिल किया गया क्या भारत में भी तुलनात्मक स्थिति (विनिमय दरों में अस्थिरता, मुद्रास्फीति, पूंजी प्रवाह जैसी चीजों में) एकदम वैसी ही है?
4: क्या सरकार ने आरबीआइ अधिनियम के अनुच्छेद 47 का अध्ययन किया है, जो कहता है- ‘लाभ शेष (बैलेंस आॅफ प्राफिट) का भुगतान केंद्र सरकार को किया जाएगा’?
5: चूंकि सरकार दावा कर रही है कि 2018-19 के लिए उसका राजकोषीय गुणा भाग बिलकुल सही है और वह राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर बढ़ रही है, तो सरकार को इस साल पैसे की आवश्यकता क्यों पड़ गई?
6: सरकार पिछले साढ़े चार से क्या कर रही थी और अब अचानक अपने कार्यकाल के अंत में उसे ‘रिजर्व बैंक की आर्थिक पूंजीगत संरचना’ को दुरुस्त करने की इतनी हड़बड़ी क्यों है?
जो टूटा ही नहीं उसे जोड़ना
सरकार और आरबीआइ के लिए समझदारी भरा रास्ता यह होगा कि वे आरक्षित निधियों के मुद्दे को दरकिनार करें और तात्कालिक चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करें। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए तरलता, त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) के मानकों में संशोधन, अनुत्पादक कर्जों से जूझ रहे कुछ खास क्षेत्रों (जैसे बिजली) के मामले में धीरज, लघु तथा मझोले उद्योगों को उदारता से कर्ज जैसे कुछ अन्य मुद्दे इतने कठिन नहीं है जिसका दोनों पक्ष सहमति से रास्ता न निकाल लें। इनमें से हरेक में बस एक संख्या और इसके सर्वोत्कृष्ट समाधान का मुद्दा है।
तथापि, सरकार अगर आरबीआइ के पूंजीगत ढांचे को ‘दुरूस्त’ करने के फेर में है तो इसका मतलब है कि उसकी नीयत में खोट है। इसका अनिवार्य निष्कर्ष होगा कि सरकार का इरादा उर्जित पटेल को इस्तीफा देने के लिए बाध्य करना, उनकी जगह किसी आज्ञाकारी गवर्नर की नियुक्ति करना और रिजर्व बैंक को एक परंपरागत किस्म की निदेशक मंडल संचालित कंपनी में बदल देने का है। इसीलिए मैंने कहा है कि 19 नवंबर का दिन केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और भारतीय अर्थव्यस्था के लिए एक बेहद अहम दिन होगा।