दिल्ली, अमदाबाद, मुंबई, बंगलुरू, हैदराबाद, लखनऊ, कोलकाता, गुवाहाटी आदि दो दर्जन शहरों में नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन हैं। खबरें टपकती हैं : कुल सात राज्यों में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन है। नहीं, ये अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन हैं। असम में दो मरे। यूपी के दो दर्जन शहरों में विरोध प्रदर्शन! पुलिस चौकी भस्म! छह मरे! फिर जामिया में विरोध। फिर जंतर मंतर और सीलमपुर में विरोध! पचासी गिरफ्तार। ओवैसी उवाच : हमें सड़कों पर निकलना होगा…

जामिया में बसों का दहन। ‘आप’ बरक्स ‘भाजपा’ बरक्स ‘कांग्रेस’ के एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप। दो-तीन वीडियो प्रसारित कि किसने कब कहां हिंसा की? कब आग लगाई? कब कैसे लाइब्रेरी में पुलिस घुसी? कैसे मारा-पीटा? एक युवक की जांघ में गोली लगी। एक को सीने में लगी। प्रदर्शन के नए हीरो, नई हीराइनें। एक अंग्रेजी चैनल पर एक पैनलिस्ट इसे ‘नाजी इंडिया’ बताता है और ‘कंसंट्रेशन कैंप’ बनने की आशंका जताता है। एक बेहद तुनकमिजाज पैनलिस्ट दूसरे की टिप्पणी से नाराज होकर बहस से उठ कर चली जाती है। एक अन्य अंग्रेजी चैनल पर एक पैनलिस्ट जामिया और जेएनयू को बंद करने की सलाह देता है।

शनिवार की सुबह एक युवक बिना कमीज के नंगे बदन जामिया के एक गेट पर बैठ जाता है, जिसकी खबर सबसे पहले एक हिंदी चैनल को मिली दिखती है। उसी की एक रिपोर्टर उसकी मम्मी बन कर हर तीसरे वाक्य में अपना वात्सल्य टपकाती, उसे मनाती रहती है कि इतनी ठंड है और आपने कुछ नहीं पहना है, आपको ठंड लग जाएगी। आप कपड़े पहन लीजिए। वह दो घंटे तक मम्मी बन उसकी मान-मनौवल करती रहती है। कैमरा देख सीन बनाने के लिए लोग जुट जाते हैं। कुछ युवा की पीठ सहलाने लगते हैं। रिपोर्टर कहती रहती है कि मैं आपकी ही बात लोगों तक पहुंचाऊंगी, आप कपड़े पहन लीजिए…

यह कौन-सी पत्राकारिता है? ऐसे में प्रदर्शनकारियों का दिमाग न खराब न हो तो क्या हो? इस ‘हाइप’ को देख और कई युवा नंगे बदन आकर बैठ जाते हैं। जामिया में फिर जमावड़ा होने लगता है। एक चैनल पर एक दल के नेता इसे ‘सिविल वार की-सी स्थिति’ कहते हैं। निहत्थे छात्रों पर लाठी चलाते हैं। इलाहाबाद, हैदराबाद, वाराणसी, नदवा, लखनऊ से विरोध प्रदर्शनों की लाइव खबरें आने लगती हैं। सभी जामिया में छात्रों पर हुए पुलिस अत्याचार के विरोध में निकल पड़ते हैं। वाराणसी से लेकर मद्रास आइआइटी के छात्र जामिया में पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ निकल पड़ते हैं। बंगलुरू में रामचंद्र गुहा गिरफ्तार किए जाते हैं और शाम तक चैनलों पर ‘आपबीती’ सुनाने आ बैठते हैं।

एक चैनल खबर देता है कि जामिया की हिंसा के पीछे बाहरी तत्व रहे। फिर लाइन आती है कि राजनीतिक दल रहे! कोलकाता में ममता एनआरसी-सीएए विरोधी रैली का नेतृत्व करती हैं। विपक्षी नेता कहते हैं कि हम दमन को कंडेम करते हैं, यह कानून संविधान विरोधी है। प्रियंका गांधी इंडिया गेट पर धरने पर बैठ जाती हैं, फिर जल्दी ही उठ जाती हैं। एक चैनल पर एक पैनलिस्ट कई बार कहता है कि सीएए-एनआरसी को लेकर उठती आशंकाओं को दूर करना चाहिए, क्योंकि कई मुद्दों पर कन्फ्यूजन है। लेकिन प्रवक्ता कहते रहते हैं कि यह सब न्यस्त स्वार्थों की कारस्तानी है। गृहमंत्री दो चैनलों पर बातचीत करते बार-बार साफ करते हैं कि किसी भी भारतीय नागरिक को इससे कोई खतरा नहीं है। यह तीन पड़ोसी इस्लामिक देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं है।…

लेकिन इतने भर से लोगों को भरोसा नहीं होता। पूछने पर कई प्रदर्शनकारी कहते हैं, कहने से क्या? वे लिख कर दें, छाप कर दें।… सीलमपुर का एक लड़का कहता है : एक बेटे को यतीम कर दिया और एक को गोद ले लिया, ये कौन-सा इंसाफ है? बहुत से भ्रम, डर, शक, आशंकाएं और वहम एक साथ जग गए हंै और कोई नहीं है, जो उनको प्यार से समझाए। इनको उनसे डर है, तो उनको इनसे डर है। चैनल बहुतों से बात करते हैं और वे सभी समान रूप से कहते हैं कि वे मुसलमान हैं। पिछले बरसों से वे निशाने पर हैं। वे कहां जाएं? ऐसे प्रदर्शनकारियों की आशंकाएं बढ़ती हैं और कैमरों के जरिए अपनी व्यथा सुनाने लगते हैं। वृहस्पतिवार को बाईस शहरों में विरोध प्रदर्शन नजर आते हैं।

ममता कहती हैं, मेरे जीते-जी सीएए लागू नहीं हो सकता। संसद में इसका सर्मथन करने के बावजूद नवीन पटनायक भी कह उठते हैं कि यह स्वीकार्य नहीं। झारखंड की एक सभा में पीएम कहते हैं कि भारत के नागरिक चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सिख या ईसाई, किसी पर यह कानून लागू नहीं होगा।… एक चैनल पर बड़े वकील हरीश साल्वे समझाते हैं कि यह कानून किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है और राज्य सरकारें लागू करने से मना नहीं कर सकतीं।…

एक अंग्रेजी चैनल लाइन लगाता है : यह ‘धरना’ नहीं ‘दंगा’ है। दूसरा लाइन लगाता है : यह ‘प्रोटेस्ट’ नहीं ‘दंगा’ है। क्या ‘सूडोज’ चाहते हैं कि दिल्ली जले? ऐसे चैनल आंदोलित लोगों को ‘सूडोज’ कह कर सिर्फ चिढ़ाते हैं और जाने-अनजाने तीखी प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। ध्यान रहे, आम जनता आपकी खबरों से अपना नजरिया बनाती है और प्रतिक्रिया भी करती है। एक विश्लेषक अवश्य कहता है कि यह बहुत से कारणों से बना संचित गुस्सा है, जो बिखर कर निकल रहा है।

वृहस्पतिवार की रात को ही शुक्रवार के प्रदर्शनों के संकेत मिलने लगते हैं। कैमरे सुबह से ही दिल्ली जामा मस्जिद पर जम जाते हैं। नमाज के बाद अचानक जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर भीमसेना के चंद्रशेखर आजाद नजर आते हैं और फिर पुलिस की पकड़ से गायब हो जाते हैं। शाम को जामा मस्जिद से निकल कर लोग दिल्ली गेट पर नारे लगाने लगते हैं। दिल्ली गेट पर पुलिस का भारी बंदोबस्त है। पौने छह बजे आंदोलन खत्म होता है। सात दिन बाद गृहमंत्रालय की मार्फत एक आश्वासन दिखता है कि अभी सीएए के नियम नहीं बने। लोग चाहें तो अपने सुझाव दे सकते हैं!