कुलदीप कुमार
जम्मू-कश्मीर में क्या खेल खेला जा रहा है? सुपर राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की शिरकत से चल रही मुफ्ती मुहम्मद सईद की सरकार के सत्ता में आते ही कश्मीर घाटी में भारत-विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक तत्त्व इतना सक्रिय क्यों हो गए हैं, और राज्य सरकार उन पर अंकुश लगाने के बजाय उन्हें शह क्यों दिए जा रही है? क्या भारतीय जनता पार्टी द्वारा व्यक्त किया जा रहा आक्रोश सिर्फ जबानी जमाखर्च नहीं है? अगर वह केंद्र और राज्य में सत्ता में न होती, तब भी क्या उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होती? पिछले कुछ समय की घटनाओं को देख कर किसी के भी मन में ये सवाल पैदा होना स्वाभाविक है, और मैं भी इन दिनों इनसे जूझ रहा हूं।
इनकी पृष्ठभूमि में भाजपा को जम्मू में मिली अभूतपूर्व चुनावी सफलता है, जिसके कारण राज्य का राजनीतिक मानचित्र मुसलिम कश्मीर और हिंदू जम्मू में बंट गया है। क्या इस विभाजन को औपचारिक शक्ल देने की कोशिश तो नहीं की जा रही? क्या यह सिर्फ संयोग है कि जिन मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद पाकिस्तान और पाकिस्तान-समर्थक हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न होने देने के लिए धन्यवाद दिया था और जिनके सत्ता में आते ही पाकिस्तान-समर्थक आतंकवादी मसर्रत आलम को रिहा किया गया और उसने रिहा होते ही सैयद अली शाह गिलानी की रैली में पाकिस्तान के झंडे लहराए और उसके समर्थन में नारे लगाए!
ये वही मुफ्ती मुहम्मद सईद हैं, जिनके दिसंबर, 1989 में भारत का गृहमंत्री बनते ही आतंकवादियों ने उनकी बेटी रूबिया को अगवा कर लिया था और उसकी रिहाई के बदले पांच आतंकवादियों को जेल से रिहा किया गया था। इन्हीं मुफ्ती मुहम्मद सईद के केंद्रीय गृहमंत्री रहते हुए कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों को खदेड़ा गया था, आतंकवादी गतिविधियां एकाएक बढ़ गई थीं और 1990 का पूरा दशक इनकी भेंट चढ़ गया था। कश्मीर को इस्लामी गणतंत्र घोषित करने वाले पोस्टरों से घाटी को पाट दिया गया था। क्या इतिहास अपने आप को दुहराने जा रहा है?
1947 से अब तक का इतिहास गवाह है कि जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक दल जब विपक्ष में होते हैं तो कुछ और बोलते हैं, और जब सत्ता में आ जाते हैं तो कुछ और बोलने लगते हैं। शेख अब्दुल्ला से लेकर मुफ्ती मुहम्मद सईद तक की यही कहानी है। भाजपा की कहानी भी इससे कुछ अलग नहीं है। जब सत्ता में नहीं होती, तब वह सत्ता में आने के लिए कुछ भी कहने और करने को तैयार रहती है। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसका रवैया कुछ और होता है। अब तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने एक जुमले से इसे सूत्रबद्ध भी कर दिया है। उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव के दौरान जनसभाओं में नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए वादे तो बस ‘जुमले’ थे।
जिन दिनों उमर अब्दुल्ला अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थे और उनके पिता फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे, तब राज्य सरकार ने एक स्वायत्तता समिति का गठन किया था। उसकी रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि 1953 से पहले की स्थिति को बहाल किया जाए, यानी केंद्र सरकार के पास सिर्फ रक्षा, संचार और विदेश मंत्रालय ही रहें और शेष सभी क्षेत्रों में राज्य सरकार को अंतिम अधिकार हो। अब नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता दविंदर सिंह राणा चाहते हैं कि राज्य से तीनों अंचलों- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख- को स्वायत्तता दी जाए। नेशनल कॉन्फ्रेंस का हमेशा से यह तर्क रहा है कि अलगाववादियों का प्रभाव कम करने का कारगर तरीका राज्य को स्वायत्तता देना होगा। उसकी राय में 1953 से पहले की स्थिति की बहाली सबसे अच्छा विकल्प है।
पिछले साल दिसंबर में तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दुहराया था कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कुछ शर्तों पर आधारित था और 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद संविधान की धारा 370 के प्रावधानों में आए क्षरण को दूर करना उनकी पार्टी का लक्ष्य है। यहां यह याद दिला दें कि 1952 में जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट किया था कि जिस तरह शादी की कोई डिग्री नहीं होती- या तो शादी होती है या नहीं होती- उसी तरह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की कोई डिग्री नहीं है। राज्य के लिए विशेष संवैधानिक प्रावधानों का यह अर्थ नहीं कि उसका विलय सशर्त है। 1964 में तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने भी लोकसभा में यही कहा था कि अन्य राज्यों की तरह ही जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय भी पूर्णरूपेण और अंतिम तौर पर हुआ है। लेकिन उमर अब्दुल्ला आज भी इसे सशर्त बताते हैं।
मुफ्ती मुहम्मद सईद की मजबूरी यह है कि उन्हें हर हालत में अपने आपको नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुकाबले भारत सरकार के अधिक विरोध में दिखाना है, ताकि पाकिस्तानपरस्त उग्रवादी और आतंकवादी तत्त्व खुश रहें। पाकिस्तान और हुर्रियत कॉन्फें्रस को धन्यवाद देना, मसर्रत आलम को रिहा करना और गिलानी को रैली आयोजित करने देना और पाकिस्तानी झंडे फहराने के बाद भी गिरफ्तार करने से हिचकना, ये सभी इसी ओर संकेत करते हैं। मुफ्ती का पिछला इतिहास भी आश्वस्त करने वाला नहीं है।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी और जम्मू-कश्मीर में उसके पूर्वज संगठनों का इतिहास भी बहुत आश्वस्त नहीं करता। शायद आज बहुत लोगों को यह याद न हो कि जब महाराजा हरी सिंह राज्य को भारत में मिलाने के लिए तैयार नहीं थे, तब राज्य के हिंदू नेता भी उनका समर्थन कर रहे थे, क्योंकि उन्हें यह मंजूर नहीं था कि एक हिंदू रियासत धर्मनिरपेक्ष भारत का हिस्सा बने। मई 1947 में अखिल जम्मू-कश्मीर राज्य हिंदू महासभा की कार्यकारिणी ने प्रस्ताव पारित करके कहा था कि विलय के सवाल पर वे जो भी फैसला करेंगे, वह उसे मान्य होगा।
जब 1953 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा भेजे गए मध्यस्थ सर ओवेन डिक्सन ने जम्मू-कश्मीर को एक सुगठित आर्थिक-भौगोलिक-राजनीतिक इकाई न मानते हुए यह सुझाव दिया कि उसके अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग जनमत संग्रह कराया जाए और कश्मीर घाटी के बारे में अलग से फैसला किया जाए, तो भारतीय जनसंघ को यह मंजूर था और उसके उस वक्त के नेता बलराज मधोक ने इस सुझाव का स्वागत किया था।
इतना समय बीत जाने के बाद भी आज तक ये सभी विचार और सुझाव अपनी जगह बने हुए हैं। जम्मू-कश्मीर में सक्रिय कोई भी राजनीतिक शक्ति किसी सवाल को बंद नहीं करना चाहती। विलय हो या राज्य की स्वायत्तता, भारत के साथ संबंध हो या पाकिस्तान के साथ, कश्मीरी पंडितों का पलायन हो या उनकी घाटी में वापसी- हर सवाल खुला है और हर सवाल पर हरेक के सामने विकल्प खुले हैं। जब जैसा समय और परिस्थिति होगी, वैसा ही विकल्प चुन लिया जाएगा। अवसरवाद और किसे कहते हैं?
इस समय राजनीतिक रूप से जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच का संबंध टूट चुका है। पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों ने जम्मू में भाजपा का और कश्मीर घाटी में मुफ्ती मुहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी का वर्चस्व स्थापित कर दिया है। ऐसे में राज्य के तीनों अंचलों- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख- को स्वायत्तता दिए जाने की मांग फिर से जोर पकड़ सकती है। यह तर्क भी फिर से दिया जा सकता है कि पाकिस्तान के प्रभाव को निरस्त करने के लिए ऐसा करना जरूरी है। एक संभावना यह भी है कि मुफ्ती के नरम रुख के चलते आतंकवादियों और अलगाववादियों का मनोबल बढ़ेगा और पाकिस्तान को अधिक हस्तक्षेप करने का मौका मिलेगा।
पाकिस्तान में जब भी नवाज शरीफ सत्ता में आते हैं, कश्मीर में पाकिस्तानी भूमिका भी बढ़ जाती है। भारत के साथ संबंध सुधारने के उनके चुनावी वादे भी चुनावी जुमले सिद्ध हो रहे हैं। देश के अंदरूनी हालात की गंभीरता से जनता का ध्यान हटाने के लिए नवाज शरीफ कश्मीर पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
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