मृणाल पाण्डे
दीपिका पादुकोण और निन्यानबे अन्य (पहले इस तरह का प्रचार हमने दारा सिंह की फिल्मों के संदर्भ में ही सुना था) सशक्तीकृत मानी गई महिलाओं ने एक हालिया बहुचर्चित वीडियो ‘माई चॉयस’ में नारी मुक्ति की समवेत व्यावसायिक व्याख्या पेश की। व्यावसायिक इसलिए कि यह वीडियो प्रसिद्ध अमेरिकी फैशन पत्रिका ‘वोग’ के भारतीय संस्करण ‘वोग इंडिया’ ने अपने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के तहत (जाहिर है बड़ी रकम खर्च करके) दो जाने-माने विज्ञापन विशेषज्ञों से बनवाया और बतौर जनचेतना विज्ञापन जारी किया। इस वीडियो में दीपिका और अन्य महिलाएं बारी-बारी से नाच-गा, खुशी मना कर कहती हैं कि वे पूरी तरह अपनी मर्जी से जीने को आजाद हैं। अब वे अपने शरीर का कितना और कैसा प्रदर्शन करें, किस तरह की पोशाक पहनें या न भी पहनें, किसके साथ दोस्ती करें, रहें या शारीरिक रिश्ते बनाएं, यह वे खुद अपनी इच्छा से चुन सकती हैं।
ऊपरी तौर पर नारीवाद से सहानुभूति रखने वालों को इस नजरिए से आपत्ति नहीं होगी, जो किसी भी औरत के लिए अपनी तरह की जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने को नारीवाद का निचोड़ मानते हैं। पर सवाल है कि ये महिलाएं भारत की कितनी फीसद महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं? और हमारे सचमुच के राज-समाज में जैसे कि वे हैं, क्या सभी महिलाओं को ‘वोग’ पत्रिका में वर्णित इन प्राथमिकताओं पर जीना सचमुच पुरुषों के समतुल्य दर्जा दिलवा सकेगा?
यह शंका इसलिए उठी कि इस विज्ञापन को भारत में उतारने वाली ‘वोग’ पत्रिका शुरू से अमेरिका, यूरोप में महिलाओं की सुंदरता और शारीरिक बनावट को फोटोग्राफरों, महिला प्रसाधन और फैशन गारमेंट निर्माता कंपनियों (जिनके लगभग सारे नियंता पुरुष उद्योगपति हैं) की मदद से गढ़ने, दिखाने और परखने के लिए जानी जाती रही है। अस्सी के दशक में उसने सेक्स को महिला शरीर के सीत्कारी उत्पीड़न से जोड़ कर, ‘हिडन डिलाइट्स’ (छिपी मस्ती) शीर्षक से एक बड़ी लोकप्रिय फैशन शृंखला छापी थी। शृंखला के चर्चित चित्रों में नामचीन मॉडलों को अर्धनग्न से नग्न हालत में तमाम तरह के रेशमी या चमड़े के बंधनों से जकड़-बांध कर और कुछ को अंतर्वस्त्रों से घसीट कर ले जाए जाते दिखाया गया था। संदेश साफ था: पुरुष के लिए नारी देह के कुछ गुप्त तकाजे हैं। और उनके तहत सुंदर स्त्री को उसके द्वारा पाशवी शारीरिक बदसलूकी का शिकार बनाना वर्जित क्यों हो? वह तो आजादखयाल स्त्री की सुंदर देह के प्रदर्शन और आकर्षण का इश्तहार है।
समाज के किस तरह के लोगों को ये तस्वीरें नेत्र सुख और महिला उत्पीड़न को कैसे नए-नए विस्तार देंगी, यह किसी का सिरदर्द क्यों हो? बच्चियां तक गुप्त कामेच्छा जगा कर ब्रांड बिक्री के उत्कट आग्रहों से नहीं बचीं। और इसके तहत ‘वोग’ में एक नामचीन कॉस्मेटिक्स ब्रांड के विज्ञापन में एक बच्ची को लोलिता बना कर कामोत्तेजक मेकप में उस ब्रांड को बेचने के लिए भी उतारा गया था। यही नहीं, अस्सी का दशक प्लास्टिक सर्जरी का शुरुआती वक्त था। महिलाओं से शरीर की अतिरिक्त चर्बी घटाने और स्तनों का आकार बड़ा करवाने के लिए इस जोखिमभरी गैरकुदरती सर्जरी की हिमायत में भी यह पत्रिका आगे रही है।
तब फिर भारत में अचानक इस भेड़िए का मेमना रूप धारण करना कैसा? शायद यह नारीवादी भाषा के मेरी मर्जी (डूइंग माय ओन थिंग) सरीखे जुमलों को बाजार हित में हाइजैक करके, आजादखयाल और आत्मनिर्भर बनती गई उच्च मध्यवर्गीय महिलाओं की जेबों और मनों को फिर से अपनी देह सजाने-संवारने और मुक्त सेक्स का उत्सव मनाने के लिए ढीला करवाने की चतुर चेष्टा है। याद रखें, अब अपने शरीर पर अपने हक और सांवले रंग की हिमायत कर रही इन्हीं दीपिका द्वारा विगत में केलॉग कंपनी के वजन कम करने वाले खास कॉर्नफ्लेक्स और रंग गोरा और चमड़ी कोमल बनाने वाली प्रसाधन सामग्री के उत्पादों के लोकप्रिय विज्ञापन भी उतारे गए हैं। तब फिर सच किसे मानें? शायद दोनों ही बाजार के आदेश पर रचे गए हैं।
गौरतलब है कि ‘माय चॉयस’ वीडियो की पटकथा रचना और शूटिंग महिलाओं ने नहीं, विज्ञापन जगत के दो नामचीन पुरुषों: करसी खंभाटा और होमी अडजानिया ने की है।
सच तो यह है कि आज हमारे देश में तमाम कानूनी सुधारों के बाद भी बलात्कार से लेकर दहेज या स्वैच्छिक गर्भपात तक सबके कानूनों का जमीनी निस्तार उस राजनीतिक-सामाजिक जमीन पर होता है, जिस पर पुरुष ही बहुतायत से काबिज हैं। इससे कानून निर्माण या उनमें सुधार महिलाओं के अनुभूत सत्य के बजाय महिलाओं के बारे में पुरुषों के मन में बद्धमूल विचारों के आधार पर किए जाते हैं और बाद को थानों-अदालतों में लागू होते हैं।
तभी बलात्कार निरोधी कानूनों में सुधार के लिए न्यायमूर्ति वर्मा समिति की दो महत्त्वपूर्ण पेशकशें संसद ने ठुकरा दीं: कि वैवाहिक जीवन में सेक्स संबंधों में जबर्दस्ती और उत्पीड़न को भी बलात्कार कानून के दायरे में लाकर उत्पीड़िता को गुहार लगाने का हक दिया जाए और यह कि अपराध करने वाले नाबालिगों को सुधारगृह भेजने के बजाय बालिग अपराधियों के समतुल्य माना जाए। इसी वजह से बलात्कार के कई मामलों में मुजरिम के वकील द्वारा सेक्स संबंध में खुद पीड़िता की सहमति या पुरानी रंजिश का हिसाब चुकता करने की इच्छा होने का तर्क देकर अपराधी का अपराध हल्का करवा देना संभव है। दूर क्या जाना, खुद दीपिकाजी ने एकाधिक ऐसी फिल्मों में काम किया है, जहां बलात्कारी महिला को दंडित करने या उसकी मार्फत उसके पति या प्रेमी से बदला चुकाने की बात करता है।
हम मानते हैं कि दीपिका पादुकोण को अपनी और अपनी जैसी महिलाओं के लोकतांत्रिक हकों और उनके प्रचार में कोई दुविधा नहीं महसूस होती होगी। पर यह तो वे भी नहीं नकार सकतीं कि रूढ़िवादी सामाजिक सोच और व्यावसायिक हितों की विशाल चक्की ने उनको अपने निजी और कामकाजी जीवन में कई अन्य फैशन मॉडलों और तारिकाओं की तरह पीसा और तनावग्रस्त किया है। जुमा जुमा कुछ ही दिन पहले टीवी के एक साक्षात्कार में उन्होंने चौंकाने वाली सच्चाई का जिक्र किया था कि काम और निजी जीवन की कुछेक अप्रिय उलझनों के चलते वे इतने गहरे अवसाद से घिर गई थीं कि उनको चिकित्सकों की मदद लेनी पड़ी।
जब उन जैसी नामचीन, इज्जतदार और आत्मनिर्भर युवती का यह हाल है तो दिन-रात शारीरिक बदसलूकी और मानसिक प्रताड़ना झेल रही सामान्य औरतों पर समाज और कानूनी संस्थाओं के उन दोहरे मानदंडों की मार का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, जिनके रहते भारतीय स्त्रियों के लिए पुरुषों के बराबर का दर्जा या चयन की स्वतंत्रता एक मजाक बन कर रह जाते हैं। पुरुषों की तुलना में न उनको जनमने की आजादी है, न ही बेहतर पोषण और पढ़ाई-लिखाई या आने-जाने की क्षमता पर उनकी कोई पकड़। पसंदीदा वैवाहिक सहचर का चुनाव या उसके जुल्मों के खिलाफ फरियाद कर पाना तो बहुत बड़ी बात है।
दरअसल, कथित तौर से नारीशक्ति का बिगुल बजा रही भारतीय सेलेब्रिटी महिलाओं की ये व्यावसायिक छवियां मुक्ति के नाम पर कमोबेश पुरुषों का हिया हुलसाने वाली यौन भावना के उन्मुक्त प्रदर्शन से अपने उत्पादों की बिकवाली के लिए नए ग्राहक खींच रही हैं। महिलाओं की बढ़ती आर्थिक क्षमता का उनके लिए यही महत्त्व है कि वे अब अपनी कमाई से मनपसंद हीरा या सैनीटरी नैपकिन खरीद सकने की क्षमता पाकर अपनी गाढ़ी कमाई सौंदर्य उत्पादों में खर्च कर सकती हैं। ऐसे तमाम प्रयास कंपनियों को भारी मुनाफे तो देते होंगे, पर वे दिन-रात पिटती, कमजोर, कुपोषित और संसाधनहीन भारतीय महिलाओं की जमीनी दशा के मद्देनजर एक दुखद मजाक भर प्रतीत होते हैं।
खतरा यही नहीं। जब तक राज-समाज द्वारा बहुत जतन और भरोसे से स्त्री-पुरुष के बीच घर और बाहर सचमुच की समता संस्थागत और निजी दोनों धरातलों पर नहीं बनाई जाती, औसत युवती द्वारा दीपिका जैसा देह का बिंदास प्रदर्शन उनके ही नहीं, मासूम बच्चियों के लिए भी पुरुषों के बीच विकृत मानसिकता को उकसा कर पाशवी शारीरिक हिंसा का खतरा पैदा कर रहा है। भारतीय समाज में स्वीकृत सहवास के भीतर छिपी विषमताएं पहचान कर उनको घटाए बिना, सिर्फ उन्मुक्त सेक्स की वकालत कम उम्र महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है और आज यह उनको बड़ी तादाद में यौन उत्पीड़न और मानसिक असंतुलन का शिकार बना रहा है।
खुद इस यंत्रणा से गुजरी दीपिका को दरअसल, जो सवाल उठाने चाहिए वे ये हैं: अगर कार्यगत क्षेत्र में सफलता और संपन्नता महिलाओं में हीन भावना कम करती और आजादी को टिकाऊ बनाती है, तो फिर उनके अपने अवसाद की वजह? अगर शहरी महिलाएं सचमुच इतनी आजाद, इतनी सफल और खुश हैं जैसी इस वीडियो में दिखती हैं, तो राज्यवार हर आय और आयुवर्ग की महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, आर्थिक शोषण, अवसाद और आत्महत्या के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? और बेटी जनना/ होना अगर सचमुच इतना ही प्रसन्नता का विषय हो उठा है, तो लाखों युवतियां (जिनमें अधिकतर संपन्न और पढ़ी-लिखी हैं) बेटी को गर्भ में ही मार डालने को सहमत-उत्सुक क्यों हैं?
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