अपूर्वानंद
उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू को खत लिख कर गुड फ्राइडे के दिन न्यायाधीशों का सम्मेलन करने पर एतराज जताया। उन्होंने लिखा कि इस पवित्र दिन को वे अपने परिजनों के साथ केरल में रहेंगे, ‘‘मैं गहरी पीड़ा के साथ इस बात की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं कि ऐसा महत्त्वपूर्ण सम्मेलन उस समय नहीं किया जाना चाहिए, जब हममें से कुछ लोग इन पवित्र दिनों में धार्मिक अनुष्ठान में व्यस्त होते हैं और जो पारिवारिक मिलन का अवसर भी होता है।’’ उन्होंने कहा कि ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम दिवाली, दशहरा या ईद में नहीं किए जाते।
न्यायमूर्ति कुरियन ने कहा कि गुड फ्राइडे जैसे धार्मिक और राष्ट्रीय अवकाश के दिनों में इस तरह के कार्यक्रम करके न्यायपालिका दूसरी संवैधानिक और सार्वजनिक संस्थाओं को एक प्रकार का गलत संदेश दे रही है, जिससे वे सभी धार्मिक या पवित्र दिनों को समान महत्त्व और प्रतिष्ठा न देने को बाध्य महसूस करें। उन्हें आशंका है कि वे ईसाई हैं और इसी कारण उनके एतराज को सांप्रदायिक माना जाएगा, ‘‘कृपया यह न सोचें कि मैं कोई सांप्रदायिक संकेत दे रहा हूं। चूंकि मैं देख रहा हूं कि हम जैसे संस्थान, जिन पर संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्ष माहौल की हिफाजत और धर्मनिरपेक्ष छवि को प्रमुखता देने की जिम्मेदारी है, धीरे-धीरे संवैधानिक जिम्मेदारियों से विमुख हो रहे हैं, मैंने इस चिंता को लिखित रूप में व्यक्त करने का सोचा।’’
अपने बिरादर न्यायमूर्ति के इस पत्र का मुख्य न्यायाधीश दत्तू ने बहुत सख्त उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि वे धार्मिक और पवित्र दिनों और अनुष्ठानों के प्रति न्यायमूर्ति कुरियन की प्रतिबद्धता का सम्मान करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर सम्मेलन के विचारणीय विषय अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- ‘‘अप्रैल के पहले हफ्ते में यह सम्मेलन उन्होंने इसलिए रखा कि इन दिनों में अपने दो वरिष्ठतम सहकर्मियों समेत वे और राज्यों के मुख्य न्यायाधीश नियमित अदालती काम से मुक्त होंगे।’’
मुख्य न्यायाधीश ने आगे लिखा कि वे न्यायमूर्ति कुरियन से तो यह नहीं पूछ सकते, लेकिन खुद से पूछते हैं कि सांस्थानिक हितों और व्यक्तिगत हितों में से किसे वरीयता दी जानी चाहिए। ‘‘जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं पहले को चुनता न कि बाद वाले को।’’ उन्होंने आगे लिखा कि ‘‘यह मानते हुए कि धार्मिक अनुष्ठान और पारिवारिक मिलन सांस्थानिक हित से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, आप अपने परिवार को दिल्ली ही बुला लेते। ऐसा करके आप पारिवारिक प्रतिबद्धताओं और सांस्थानिक हितों में संतुलन बिठा पाते।’’ आखिर अनेक न्यायाधीश दूर-दूर से अपने ‘परिवार’ छोड़ कर आ रहे हैं।
मुख्य न्यायाधीश यहीं नहीं रुके। उन्होंने पत्र का अंत यह कहते हुए किया कि अगर वे या अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरियन की जगह होते तो ‘‘उन्होंने सांस्थानिक हित को पारिवारिक प्रतिबद्धता के ऊपर रखा होता।’’
दो न्यायाधीशों के बीच के इस पत्राचार का विश्लेषण सिर्फ आज के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण नहीं है, वह राज्य और व्यक्ति या सार्वजनिक और निजी के रिश्तों और एक धर्मनिरपेक्ष राजकीय या सामाजिक आचार-व्यवहार के लिहाज से भी जरूरी है। लेकिन उसके पहले ऐसी ही एक घटना का जिक्र गैर-मुनासिब न होगा। पिछले साल दिल्ली में बढ़ रहे सांप्रदायिक तनाव को देखते हुए अपनी भूमिका पर बात करने के लिए कुछ लोग, जिन्हें तिरस्कारपूर्वक धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है, मिलने की सोच रहे थे। एक ने पचीस दिसंबर का दिन सुझाया, जिस पर उस छोटे-से समूह के बाकी लोगों ने रजामंदी जाहिर की।
बैठक बिल्कुल अनौपचारिक थी, किसी सार्वजनिक स्थल पर नहीं होनी थी और उसके लिए कोई आम नोटिस भी नहीं था। लेकिन एक सदस्य ने एतराज किया कि हम कैसे भूल गए कि आखिर यह बड़ा दिन है, ईसाइयों के लिए सबसे पवित्र तारीख! लोग कुछ हतप्रभ हुए, पहली प्रतिक्रिया यह हो सकती थी कि हममें से कोई ईसाई नहीं, लेकिन आपत्ति करने वाली तो खुद भी ईसाई नहीं थीं। सबने एतराज को काबिले-गौर पाया, यह कहते हुए कि यह भी एक तरह का मिलन है, बेतकल्लुफ और साथ मिल कर केक ही खाना है! बृहत्तर धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य का हवाला एक बार आया, लेकिन आपत्ति को छोटा नहीं किया गया।
इससे ठीक उलट न्यायमूर्ति कुरियन के पत्र का उत्तर जिस तरह और जिस भाषा में दिया गया है, उससे वे अपने पारिवारिक और धार्मिक दायरे में कैद एक तंगनजर इंसान जान पड़ते हैं, जो अपनी सीमा से बाहर निकल पाने में असमर्थ हैं। मान लिया गया है कि पत्रलेखक धर्म या परिवार को संस्था से ज्यादा महत्त्व देता है। चूंकि और किसी न्यायाधीश ने इन तारीखों पर आपत्ति नहीं जाहिर की है, वे न्यायमूर्ति कुरियन के मुकाबले अधिक कर्तव्य-सजग भी घोषित कर दिए गए हैं। मुख्य न्यायाधीश ने निजी, पारिवारिक और सांस्थानिक में एक सोपानक्रम भी बना दिया है, जिसमें पारिवारिक या सामुदायिक के मुकाबले राजकीय सांस्थानिकता उच्चतर मानी गई है। दोनों में चुनाव की चुनौती भी है।
जवाब में कहा गया कि अधिकतर न्यायाधीश इन दिनों में मुक्त हैं। तात्पर्य यह कि संख्या किसी अवसर के महत्त्व को तय करेगी। पत्र के उत्तर की समस्या यह है कि वह पत्र की चिंता को ही नहीं समझ पाया और सुरक्षात्मक रवैये से लिखा गया है।
निजी और सार्वजनिक, सामुदायिक और राजकीय के बीच सामंजस्य न कि तनाव और द्वंद्व, इसे लेकर भारतीय संविधान हर जगह सावधान रहा है। राष्ट्रीय अवकाश संख्या के आधार पर नहीं तय किए गए हैं। संदेश यह है कि नागरिकों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने पवित्र या धार्मिक के साथ दूसरे पवित्र या धार्मिक का भी अनुभव कर सकें। ईद का राजकीय अवकाश सिर्फ मुसलमानों के लिए या दशहरे का सिर्फ हिंदुओं के लिए नहीं है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को किसी धार्मिक अभिव्यक्ति से परेशानी नहीं और वह संख्या के लिहाज से अत्यल्प को भी अपनी संवेदना के दायरे में जगह देती है, यह दूसरा संदेश है। राज्य खुद को या एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ सार्वजनिक को श्रेष्ठ घोषित नहीं कर रहा।
तीसरा, कर्तव्य या काम की तानाशाही व्यक्ति या समाज के जीवन पर नहीं है। यह ठीक है कि काम मनुष्य को बनाता है, लेकिन अवकाश मनुष्यता के लिए अनिवार्य है। राज्य इसके वैध अवसर पैदा करता है। राज्य अपने और परिवार में किसी को ऊपर नहीं ठहरा रहा, इसलिए उन मौकों की पहचान करता है, जिनमें एक अधिक आत्मीय स्थान और अवकाश अबाधित रूप से बन सके, जिसमें राज्य की दखलंदाजी ही नहीं, उपस्थिति भी न हो।
मुख्य न्यायाधीश का उत्तर वर्तमान संदर्भ को नजरअंदाज कर देता है, जिसकी ओर न्यायमूर्ति कुरियन ने इशारा किया था। जब भारतीय राज्य ने पचीस दिसंबर को सुशासन दिवस के रूप में मनाने का एलान किया तो चारों ओर से भर्त्सना हुई थी। एक अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक अवसर को राज्य द्वारा हड़प लेना ओछी हरकत माना गया था।
क्या गुड फ्राइडे पर न्यायाधीशों के इस सम्मेलन को इसी सिलसिले में देखना अस्वाभाविक है? उचित यह था कि मुख्य न्यायाधीश इस चिंता को संबोधित करते और उस पर बात करते। जब उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश द्वारा कहा जा रहा हो कि देश के राजकीय संस्थान धर्मनिरपेक्ष जिम्मेदारियों से विरत हो रहे हैं, तो यह बहुत गंभीर और चिंताजनक टिप्पणी है। लेकिन न्यायमूर्ति दत्तू ने इसे बात करने लायक ही नहीं माना। उनकी प्रतिक्रिया में एक बहुसंख्यकवादी संवेदनहीन अहंकार छिपा हुआ है।
यह वही असंवेदनशीलता है, जो अर्थशास्त्री भगवती और मणिपाल शिक्षा समूह के मालिक मोहनदास पई में है, जिन्होंने कहा कि अभी भारत के ईसाइयों की असुरक्षा काल्पनिक है और उसका कोई वास्तविक आधार नहीं है। बल्कि कहा गया कि आज की सरकार को बदनाम करने की यह साजिश है, जिसका मतलब है कि ईसाई व्यर्थ ही यह नाटक कर रहे हैं।
मुख्य न्यायाधीश का यह पत्र इसलिए चिंतनीय है कि न्यायपालिका को अंतिम आसरा वे सारे लोग मानते रहे हैं, जो बहुमत के अहंकार और राज्य के शिकार होते हैं। न्यायालयों में प्राथमिक स्तर पर प्राय: इस संवेदनशीलता का अभाव पाया गया है, लेकिन अब तक माना जाता रहा है कि उच्चतर स्तर पर संतुलन है। अब यह दीख रहा है कि उसका भरोसा नहीं। उम्मीद थी कि भारत की न्याय-व्यवस्था में कुछ तो स्वर होंगे, जो अपने बिरादर कुरियन की चिंता की साझेदारी करेंगे। एक ही गैर-ईसाई ने ऐसा किया। तो उनकी चिंता अंतत: एक संकीर्ण ईसाई चिंता ही मानी गई। क्या यह न्यायसम्मत है? और क्या फिर भी हम कहेंगे कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता को लेकर चिंता करना अतिरेक है?
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