सभी जानते हैं, साहित्य के लेखक और पाठक दोनों भी, कि काल निर्मम होता है। कालांतर में कौन लेखक या कृति प्रासंगिक और पठनीय बची रहेगी इसका अनुमान लगाना कठिन होता है। ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ तक कहने वाला कवि कालजयी हो जाए यह जरूरी नहीं, हालांकि शमशेर बहादुर सिंह, जिनकी कि यह उक्ति है, आज भी अपनी अप्रतिम कविताओं में जीवित हैं। वे हमारे, आधुनिक हिंदी के दौर के, कालजयियों में से निश्चय ही एक हैं।

क्या यही सत्तर-अस्सी के दशक में बेहद उत्तेजक और उग्र रहे कवि श्रीकांत वर्मा के बारे में कहा जा सकता है? अगर पिछले रविवार को रायपुर में रज़ा फाउंडेशन और छत्तीसगढ़ मित्र के संयुक्त तत्त्वावधान में ‘श्रीकांत वर्मा का मायादर्पण’ में आप होते तो चकित होते यह जान-सुन कर, जैसे कि मैं हुआ, कि श्रीकांत वर्मा को, आज भी, उनकी मृत्यु के लगभग तीस वर्षों बाद कई पीढ़ियों के लोग ध्यान और उत्साह से पढ़-समझ रहे हैं। लगभग चार घंटे चली गोष्ठी में डेढ़ेक सौ लोग उपस्थित रहे। दिल्ली होती तो बहुत सारे लगातार अपनी घड़ी देख रहे होते, बजाय कुछ रोचक और विचारोत्तेजक सुनने के!

उड़िया कवि हरप्रसाद दास, आलोचक जयप्रकाश और लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने तीन सुचिंतित निबंध पढ़े, कवि-आलोचक प्रभात त्रिपाठी ने वक्तव्य दिया और इस आयोजन की पहल करने वाले वरिष्ठ आलोचक राजेंद्र मिश्र ने भूमिका बांधी। दास ने श्रीकांतजी की पहली कविता से लेकर उनकी अंतिम कविता को एक निरंतर वितान की तरह देखा और उसमें भारतीय अस्तित्व, विडंबना और सभ्यता के मूलभूत संकट का जो काव्यान्वेषण है उसकी बहुत समझ-जतन से व्याख्या की और उनके अनेक तथाकथित अंतर्विरोधों को अनिवार्य युग्म की तरह देखे-समझे जाने का प्रस्ताव किया। आशुतोष ने ‘जब हम कविता पढ़ते हैं तो वह भी हमें पढ़ती है’ कहते हुए श्रीकांतजी की अस्तिमूलक चिंताओं और उत्सुकताओं पर गहराई से विचार किया। उनके यहां मिथक की उपस्थिति का एहतराम करते हुए आग्रह किया कि मिथक के जन्म या उद्गम को जानना कठिन है, मिथक तो अपने पुनर्जन्म से ही पहचानी जाती है।

सभी के सामने स्पष्ट था कि बीसवीं शताब्दी श्रीकांतजी का एक अटल सरोकार था: उसकी विडंबनाओं के साथ-साथ वे मनुष्य होने की नागरिकता, काल और मृत्यु, राजनीति और इतिहास, व्यक्ति और समाज की अनेक विडंबनाओं से दो-चार होते कवि थे। अपने समय-समाज की हिंसा, क्रूरता और विभीषिका उनकी कविता के केंद्र में रही और उन्होंने इतिहास का भी, एक तरह से, अपनी कविता में मिथकीकरण किया। निराला ने अगर प्रार्थना को कविता बनाया, तो श्रीकांत ने अपशब्द या गाली को कविता बनाने की कोशिश की। पश्चिमी आधुनिकता से बखूबी परिचित वे एक वैकल्पिक समकक्ष भारतीय आधुनिकता को गढ़ना चाहते थे: वे, जैसा कि हरप्रसाद ने कहा, परिणति के नहीं, प्रक्रिया के कवि थे। उन्होंने अपने समय-समाज के विद्रूप, क्रूरताओं से बचना नहीं चाहा, क्योंकि वे रचना चाहते थे!

पाज़ ने कहा था:

मैक्सिकन कवि आक्तावियो पाज़ भारत में राजदूत थे, पर वे बीसवीं शताब्दी के एक बड़े कवि और बुद्धिजीवी भी थे। इसी रूप में उनका भारत के साहित्य और कला जगत में प्रभावकारी स्थान बना और अनेक भारतीय कलाकार जैसे रामकुमार, जगदीश स्वामीनाथन; बुद्धिजीवी जैसे शामलाल उनके संपर्क और उनसे संवादरत रहे। उनमें से एक श्रीकांत वर्मा भी थे। उनसे एक लंबी बातचीत में पाज़ ने कहा था आज से लगभग पचास वर्ष पहले: ‘… मुझे सबसे अधिक घृणा यहां के अंगरेजी पढ़े वर्ग से है, जो एक ओर साहित्य और संस्कृति का स्वांग करता है, दूसरी ओर अपने ही देश की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को नष्ट करता है। इसने कला को संग्रहालय की चीज बना दिया है। इसकी रुचि घटिया और भद्दी है। और यही यहां का शासक वर्ग बन बैठा है।

यह पाखंडी और नक्काल वर्ग है। इसने अंगरेजी साहित्य का भी अधूरा अध्ययन किया है। शेक्सपियर उसके लिए ड्राइंगरूम की सजावट की चीज है। जब तक यह वर्ग बना रहेगा तब तक भारत का साहित्य और कला विकसित नहीं हो सकते। बल्कि मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं कि उसके रहते भारत राजनीतिक अर्थों में कभी स्वाधीन नहीं हो सकता। लोग यह बात भूल जाते हैं कि संस्कृति के माध्यम से भी शासन किया जाता है, संस्कृति की भाषा में भी राजनीति की इच्छाएं व्यक्त होती हैं। ब्रिटेन और अमेरिका भारत के अंगरेजीपरस्त शासक वर्ग के माध्यम से भारत में पूर्ववत बने हुए हैं। भारतीयों को यह पहचानना होगा कि वे अब भी एक दूसरे अर्थ में दास बना कर रखे गए हैं।’ क्या यह विश्लेषण आज अधिक विकराल हो गई सचाई पर बहुत हद तक लागू नहीं होता? अब नकलची होने में हमें शर्म भी नहीं आती और अमेरिका आदि जब हमारा अपमान करते हैं, तो हमें बुरा लगना बंद हो चुका है!

इसी बातचीत में पाज़ ने कहा था: ‘… महान राज्य बनने का कोई अर्थ नहीं रह गया। एक तो अब भारत चाह कर भी महान राज्य नहीं बन सकता। इसके लिए अब बहुत देर हो चुकी है। लेकिन अगर वह महान राज्य बन भी जाता तो क्या हो जाता? माओ त्से-तुंग वैसे घटिया कवि हैं, लेकिन अगर वह महान कवि होते, तब भी मैं यह कहने में संकोच नहीं करता कि उन्होंने चीन को नष्ट कर दिया। उसे केवल राजनीतिक स्तर पर जीवित रख कर। शायद इसमें कुछ चीन की परंपराओं का भी दोष है। चीन की दार्शनिक सूक्तियों में भी राजनीति है और चीनी जब भी पीछे की ओर मुड़ते हैं तो इन सूक्तियों से केवल राजनीतिक अर्थ प्राप्त करने के लिए- लेकिन इसकी तात्कालिक जिम्मेदारी ‘सांस्कृतिक क्रांति’ के प्रवर्तक माओ त्से-तुंग पर है। भारत की परंपरा चीन से भिन्न है। अगर भारत पीछे की ओर मुड़ता है तो राजनीति या कौशल के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य के दर्शन के लिए।’

श्रीकांतजी से इस लंबी बातचीत में प्रतिबद्धता और विचारधारा पर बहस शामिल है। एक जगह पाज़ कहते हैं: ‘… मार्क्स की दृष्टि से बाल्ज़क जिन कारणों से बड़ा लेखक था, क्या वे सचमुच किसी लेखक के बड़े होने के निर्णयात्मक कारण हैं? किसी पाठक के लिए यह बात क्या महत्त्व रखती है कि बाल्ज़क जनवादी था या प्रतिक्रियावादी? खजुराहो, सांची और कोणार्क के कारीगर और कलाकार, कलाकार थे या प्रचारक? धर्म अगर उनकी कला की परिणति है, तो यह न उनका दोष है न उपलब्धि।… और संगीत, आपका अपना शास्त्रीय संगीत, जो सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है, किससे प्रतिश्रुत है? कमिटमेंट हमेशा मनुष्य का मनुष्यता के प्रति, कलाकार का कला के प्रति होगा। संस्थाएं, विचारधाराएं अमूर्त वस्तुएं हैं और महज विचारधारा की कसमें खाता हुआ, विचारधाराओं की बाइबिलें उठाता हुआ कोई लेखक न मनुष्यता के प्रति जिम्मेदार हो सकता है न कला के प्रति।’

उन्होंने अन्यत्र यह भी जोड़ा: ‘… मैं हिंदुस्तान ही नहीं, हर देश के तथाकथित ‘राष्ट्रीय साहित्य’ से बसे अधिक नफरत करता हूं, हालांकि मुश्किल यह है कि देशभक्ति, परंपरा और समाज के नाम पर हर देश में इस प्रकार का झूठा साहित्य पैदा होता है। मैं एक ‘सुर्रियलिस्ट कवि रहा हूं और कम से कम मेरे लिए तो देश और राष्ट्र के नाम पर की गई बकवास को साहित्य मानने का प्रश्न ही नहीं उठता।… ब्रिटेन और अमेरिका संसार की खिड़कियां नहीं हैं।’

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