गिरिराज किशोर

राजकुमार कुंभज का लेख ‘क्या निराला हिंदूवादी थे’ (7 जून) पढ़ कर लगा कि हिंदुत्व की राजनीति द्वारा साहित्य को आत्मसात करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। कुछ दिन पहले रामधारी सिंह दिनकर के एक पत्र के आधार पर विज्ञान भवन में प्रधानमंत्री ने बिहार की जातिवादी राजनीति को धिक्कारा था। जबकि दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में धर्म के संदर्भ में अपने प्रखर विचार व्यक्त किए हैं। पांच सौ साल पहले हिंदुओं ने कहा कि कबीर हिंदू थे, मुसलमानों ने बताया कि मुसलमान थे। कबीर की मृत चेतना को लगा कि ये दोनों मरने पर भी धर्म की लग्गी लगाने से बाज नहीं आ रहे, तो किंवदंती है कि शव अंतर्ध्यान हो गया, उसकी जगह फूल रह गए। हिंदू-मुसलमानों को क्या उस समय जवाब नहीं मिल गया था कि साहित्यकार अपनी तरह जीता, अपनी तरह मरता है!

एक राजकुमार जंगल में शिकार के लिए गया। एक दरख्त पर फल ही फल लगे थे। वह रुक गया। फल तुड़वा कर खाया तो मुग्ध हो गया। उसने कहा कि पेड़ को महल ले चलो। ऐसे फल तो मैंने कभी खाए नहीं। उसके काफिले के समझदार लोगों ने समझाने की कोशिश की कि पेड़ को ले नहीं जाया जा सकता। पर वह बजिद था। एक लकड़हारा जा रहा था, उसे रोका गया। उससे कहा गया, राजकुमार पेड़ अपने महल ले जाना चाहते हैं। तुम मदद करो। वह बोला राजकुमार, पूरे जंगल में यह एक ही पेड़ है। यह सबका है। चिड़ियों, पशुओं और राहगीरों सबको छांव देता है, अपने रसीले फल देता है, किसी को मना नहीं करता। बच्चे तोड़ नहीं पाते तो ढेले मार कर तोड़ते हैं। इसे चोट लगती है, वह सहता है पर फल देता है। आप ऐसा न करें।

राजकुमार लकड़हारे पर तलवार लेकर झपटा। पेड़ से आवाज आई कि तू एक काम कर, तू मेरे पास रह जा। मैं तुझे रोज फल दिया करूंगा, मेरा काम ही है फल देना। पेड़ किसी एक का नहीं, सबका होता है। राजकुमार नाराज हुआ- तेरी यह हिम्मत कि तू देश के राजकुमार की हुक्म उदूली करे। दरख्त ने कहा- मैं न हुक्म देता हूं और न लेता हूं। मेरी ताकत मेरे फल हैं। राजकुमार ने तलवार चलाई, तलवार टूट गई। पेड़ हंसा, अरे मूर्ख, फल खाने मेरे पास ही आना पड़ेगा। पेड़ पर न राजा का नाम लिखा होता है, न किसी और का। उसके फल-फूल को ही लोग जानते हैं।
लेखक को भी उसकी रचनाओं से ही जाना जाता है। उसको लेखक की तरह जीने दो, उसकी पहचान बदल कर उसे बदनाम मत करो।

सत्ता ऐसे प्रयत्न करती है, जैसे दिनकर के साथ पिछले दिनों हुआ। भले वे लोग उससे पहले उनका नाम न जानते हों। राजनीति और धर्म भी ऐसा करते हैं। लेखक और साहित्य का रिश्ता समय से है। जब लेखक धर्म से चरित्रों को उठाता है, तो उन्हें अपने रंग में रचता है। उसका रंग उसकी जीवन-दृष्टि, उसका जीवनानुभव, उसका अपना समय होता है, जिसमें वह पात्र को रोपता है। वाल्मीकि के राम तुलसी के राम से भिन्न हैं। किंवदंती है कि वाल्मीकि रामायाण राम के जन्म से पहले लिखी जा चुकी थी। तुलसी ने मानस राम-जन्म के हजारों साल बाद लिखा। उनके राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वह मुगल काल में लिखी गई। जब हिंदू मुगलों के शासन में थे। उससे पहले बताया जाता है कि वैष्णवों और शैवों में परस्पर मतभेद थे। तुलसी ने वैष्णवों और शैवों के बीच राम के माध्यम से समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और दरबारी सभ्यता को उद्घाटित किया। मानव मूल्यों का जो पतन हो रहा था उन्हें पुनर्स्थापित किया।

निराला की पंक्ति है: ‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु/ पूछेगा सारा गांव बंधु।’
साहित्य में रचनाकार जहां अपनी नाव बांधता है वह उसकी अपनी जमीन होती है, वह उसका ठीया होता है। निराला के सामने अगर यह बात कही गई होती कि वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी कविता के प्रखर कवि’ हैं तो वे, हो सकता है, हाथापाई कर बैठते। राष्ट्रवादी होना या राष्ट्रवादी भावना का कवि होना एक बात है और किसी धर्म से जोड़ कर उसकी कविता की व्याख्या करना, कविता का राजनीतिकरण करना अलग बात है। निराला का अपना रंग इतना गाढ़ा था कि वहां किसी और रंग की गुंजाइश नहीं थी। उन्हें केवल हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ना उनके वृहत रचनाकर्म को सीमित करना है।

आज साहित्य का जिस तरह बाजारीकरण और राजनीतिकरण हो रहा है, वह चिंता की बात है। पुरस्कारों के माध्यम से अपने संबंधियों की स्मृति को जनता के पैसे से स्थायी बनाने का प्रयत्न शंका पैदा करता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार है। लोहियाजी का नाम उससे जुड़ा है। मगर पार्टी के मुखिया के दो गुरु, जिनको निरंतर राजकीय पदों से सम्मानित किया जाता रहा, कुछ दिनों पहले समाचार-पत्रों में दिखे। उनके लिए भाषा विभाग द्वारा इक्कीस, इक्कीस लाख रुपए के दो सम्मान सृजित किए गए। उनमें से एक भाषा निदेशालय के ही उपाध्यक्ष हैं, उन्हें मंत्रीपद प्राप्त है। दूसरे हिंदी संस्थान के अध्यक्ष हैं। बकौल पार्टी मुखिया, उन्होंने उन्हें अंगरेजी पढ़ना सिखाया था। अपने अध्यापकों का सम्मान करना अनिवार्य है, उपयुक्त भी, लेकिन जनता के पैसे से?

यह ठीक है कि कवि सम्मेलन और मुशायरे हिंदी उर्दू साहित्य के सबसे अधिक समृद्ध पक्ष हैं। अब जरा-सी अच्छी आवाज में पढ़ने वाला और मजाहिया कविता लिखने वाला कवि लाखों मानदेय लेता है। निराला, पंत और महादेवी अव्वल तो कवि सम्मेलनों से बचते थे, जाते थे तो आयोजक उन्हें शॉल, नारियल आदि देकर सारस्वत सम्मान करते थे। आज सारस्वत सम्मान बिना पैसे के अपमान की बात समझी जाती है। एक बात उल्लेखनीय है कि बच्चन बड़े कवि थे, कवि सम्मेलन सम्राट थे, पर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा कवि के रूप में बना कर रखी। भले वे उस त्रयी की श्रेणी में नहीं आ सके।

अब अपना अनुभव। फेसबुक पर भूमि अधिग्रहण और अतिवृष्टि के मुद्दे पर सरकार की आलोचना करता रहा। बहुत से युवा हिंदुत्ववादी मित्र मेरे परम विरोधी हो गए। अपनी पोस्ट में मुझ पर आक्रमण करते वक्त शब्दों का ‘सदुपयोग’ करने से बाज नहीं आते। एक मित्र ने हिंदूवादी मित्र को लिखा कि गिरिराज किशोर ने जितना लिखा, आपने पढ़ा नहीं होगा। उसके जवाब में उन्होंने उसे अश्लील साहित्य से जोड़ दिया। यह आक्षेप तो मुझ पर लगता है कि आप कांग्रेसी हैं और उनकी खुशामद करके पद्मश्री पा लिया। जबकि मैं समाजवादियों से अधिक जुड़ा रहा। गांधीजी की स्मृतियों की नीलामी पर उस पद्म सम्मान को वापस करने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को बार-बार लिखा। एक्टिविस्ट कभी नहीं रहा। यह कोई स्पष्टीकरण की बात नहीं।

अभी एक हिंदूवादी मित्र ने लिखा, आप जल्दी जेल जाएंगे। तस्वीरें आपत्तिजनक लगाई जाती हैं। सब बातों के लिए नियंत्रण कक्ष है, पर असभ्यता के संदर्भ में नहीं। मैंने सुना है कि शहरों में कुछ लोग इसीलिए रखे गए हैं कि वे आलोचना का विरोध करें। पता नहीं, उन्हें भत्ते मिलते हैं या नहीं, पर आर्थिक लाभ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

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