चारु सिंह

मिथक हमेशा लोक नहीं रचता, वे पौराणिक भी होते हैं। पतिव्रताओं का मिथक भी कुछ ऐसा ही है। इनकी रचना रामायण और महाभारत से शुरू होकर निरंतर चल रही है। अब भी इनमें कुछ न कुछ जुड़ता जाता है। श्रीभगवान सिंह का लेख ‘लोहिया की स्त्री चेतना’ (26 अप्रैल) इसी शृंखला की एक कड़ी है। ऐसे राजनीतिक दौर में, जब इतिहास का ‘पुनर्लेखन’ एक अहम मुद्दा है और समस्त इतिहासबोध को धता बताते हुए मिथकों-पुराणों सहित वर्चस्वशाली कपोल-कल्पनाओं को ‘इतिहास’ कह कर प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे स्त्री कैसे बच सकती है? सो, फिर से बताया जाने लगा है कि ‘स्त्री सशक्तीकरण’ का प्रतिनिधि उदहारण ‘पतिव्रताएं’ ही हो सकती हैं।

श्रीभगवान सिंह बड़े आदेशात्मक लहजे में बता रहे हैं कि स्त्री के समस्त ‘‘साहस, निर्भीकता, बुद्धिमत्ता, मजबूत इच्छा-शक्ति’’ आदि का केंद्र ‘पतिव्रता धर्म’ होना चाहिए। ‘‘वैसे पतिव्रत धर्म भी स्त्री की चारित्रिक दृढ़ता और शक्ति का ही प्रतिफल हुआ करता है।’’ सवाल है कि क्या पुरुषों में ‘चारित्रिक दृढ़ता’ और ‘शक्ति’ की कमी है, जो वे इस धर्म का पालन नहीं करते? यह मसला इतना हल्का नहीं है कि इसे यों हवा में उड़ा दिया जाए। असल में जिस ‘पतिव्रत धर्म’ को इस बदली आबोहवा में फिर से आदर्शीकृत करने की कोशिश की जा रही है, जरा ध्यान से देखिए तो टीवी धारावाहिकों से लेकर स्त्री-पत्रिकाओं तक यह मॉडल बाजार के बदले हुए कलेवर में मौजूद है। इसे बीत चुकी बात कह कर नजरअंदाज करना, असल में वर्चस्व की ताकतों का ही साथ देना होगा।

स्त्री का आदर्श क्या हो, यह हमेशा से पितृसत्ता के लिए चिंता का विषय रहा है। तभी तो रच-गढ़ कर सीता-सावित्री जैसे ‘आदर्श’ पात्रों की रचना की गई। ‘पातिव्रत्य’ का आशय स्त्री का पति के प्रति प्रेम समझ लेना भूल होगी। यह अवधारणा प्रेम नहीं, दासत्व पर आधारित है, धर्मशास्त्रों के अनुसार जिसकी परिणति पति की चिता पर जल जाने के रूप में ही होती है। ‘पतिव्रता धर्म’ एक पितृसत्तात्मक अवधारणा है, जिसे स्मृति-पुराणों में बड़ी स्पष्टता से परिभाषित किया गया है। ‘बालाबोधिनी’ में भारतेंदु पतिव्रता की परिभाषा देते हुए कहते हैं, ‘‘पतिव्रता वही है, जो पति के दुखी होने में दुखी, पति के सुखी होने से सुखी… और पति के मरने में तत्काल सहगमन करती है।’’ भारतेंदु ने यह व्याख्या धर्मग्रंथों से ली है।

गीताप्रेस की किताबों में ‘मनुस्मृति’ आदि के उद्धरण सहित ऐसी व्याख्याओं का संग्रह मिल जाएगा, जहां बताया गया है कि स्त्री का जन्म ही ‘पतिव्रता धर्म’ का पालन करने के लिए हुआ है, इस संसार में स्त्री की भूमिका उसके पति के जीवित रहने तक ही है। पति की मृत्यु के बाद स्त्री की कोई आवश्यकता इस समाज को नहीं है। यही है पतिव्रत धर्म। इसी को श्रीभगवान सिंह स्त्री के समस्त साहस, बुद्धि, विवेक का केंद्र बना देते हैं!

राममनोहर लोहिया ने मिथकों का पुनर्पाठ करते हुए नई नैतिकताओं के स्वीकार की जरूरत को समझा था और तभी स्त्री की नैतिकता को ‘पतिव्रत धर्म’ से अलगाते हुए, वे उसे ‘स्वतंत्रता’ से जोड़ सके थे। लोहियाजी के लेखों का बहुत संकीर्ण पाठ करते हुए श्रीभगवान सिंह ने उसे कुछ सूत्रों में समेट दिया है, जो सही नहीं है। राममनोहर लोहिया पर कटाक्ष करते हुए वे द्रौपदी को ‘स्त्री स्वतंत्रता’ की वाणी मानने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि द्रौपदी ने पांच पतियों कि पत्नी होना स्वीकार किया था। क्या वे इसी आधार पर किसी पुरुष पात्र की ‘स्वतंत्र’ चेतना पर भी सवाल उठाते?

कभी ग्राम्शी ने ‘हेजेमनी’ की बात करते हुए इतिहास को वर्चस्व के उपकरण के रूप में देखा था। पितृसत्तात्मक मिथकों द्वारा नारीवादी घेरे में सेंध लगाने की इस कोशिश को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है। ‘पतिव्रता धर्म’ को ‘स्त्री सशक्तीकरण’ का बेहतरीन रूप बताना साजिश ही कहा जाएगा।

श्रीभगवान सिंह ‘पतिव्रता’ सावित्री को ‘पांच पतियों वाली’ द्रौपदी से अधिक ‘स्त्री स्वतंत्रता’ का प्रतिनिधि इसलिए मानते हैं कि ‘‘वैधव्य जैसे निष्ठुर अभिशाप के प्रतिरोध में दृढ़ता से खड़ी एक स्त्री शक्ति के रूप में सावित्री की छवि उभरती है।’’ क्या वाकई विधवा होने से बचने का संघर्ष ही स्त्री शक्ति है, वह भी तब, जब ‘पतिव्रता धर्म’ पति की मृत्यु के बाद सती होने पर विवश करता है? इसी महाभारत में सती होने के भी उल्लेख हैं। राजा पांडु की दूसरी पत्नी उनके साथ सती हो गई थी। ऐसे में सावित्री ‘स्त्री स्वातंत्र्य’ की प्रतिनिधि तब कही जाती जब वह पति की मृत्यु के बाद सती होने से इनकार कर देती और साहस तथा सम्मानपूर्वक विधवा जीवन जीने का फैसला करती, जैसा कुंती ने किया था।

सावित्री की यह कथा असल में औरतों पर नकेल कसने का एक तरीका है। यह कथा धर्म का सहारा लेकर जनमानस में यह बात स्थापित करती है कि एक ‘सच्ची पतिव्रता’ अपने पति को यमराज के हाथों से छीन लाती है। ऐसे में विधवा स्त्री पर होने वाले तमाम अत्याचारों को एक नैतिक बल मिलता है, क्योंकि वही तो पातिव्रत्य का पालन करने में विफल रही और अपने पति को मर जाने दिया! क्या हम व्रत-पूजा के जरिए अपने पति को यमराज से बचा लेने की कोशिश अपने घरों में ही नहीं देखते? ऐसे में ‘‘वैधव्य’’ से बचने की कोशिश और पति की छांव में सुरक्षित बने रहने की सावित्री की कोशिश को ‘‘स्त्री स्वातंत्र्य’’ का प्रतिनिधि उदहारण मानना कितना उचित है?

द्रौपदी के चरित्र को जिस दृष्टि से श्रीभगवान सिंह देख रहे हैं, राममनोहर लोहिया उससे अधिक सूक्ष्मता और संवेदनशीलता से देख सके थे। अपने लेख में वे द्रौपदी की दृढ़ता और गंभीरता की प्रशंसा करते हैं, जो उचित है। श्रीभगवान सिंह को द्रौपदी के चरित्र का सबसे कमजोर पक्ष उसका पांचों पांडवों की पत्नी बनना लगता है। ठहर कर सोचा जाए तो उसी महाभारत में जहां पति के मरने पर पत्नी के सहगमन के उल्लेख हैं, वहां पांच पतियों वाली द्रौपदी क्या एक मजबूत और अनोखे स्त्री चरित्र के रूप में नहीं दिखती?

एक ऐसी स्त्री, जिसके भीतर आत्मसम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी है, जो पति द्वारा जुए में हारी जाने पर केवल पतियों के भरोसे बैठ कर विलाप नहीं करती, अपने स्तर से आत्मरक्षा का रास्ता भी ढूंढ़ लेती है। जो न केवल पतियों को फटकारने का साहस रखती है, बल्कि अपने अपमान का बदला लेने की जबरदस्त प्रतिहिंसा उसके भीतर मौजूद है। वह पौराणिक साहित्यों में प्राय: दुर्लभ ‘स्त्री चेतना’ का एक शक्तिशाली नमूना है और जनमानस में भी वह इसी रूप में स्वीकृत है। उसे कम करके आंकना और महाभारत युद्ध का जिम्मेदार बताना, रचना का सही पाठ कर सकने की असमर्थता का ही द्योतक है।

श्रीभगवान सिंह कहते हैं कि पतिव्रत धर्म का पालन न होने से यौन अपराध बढ़ रहे हैं- ‘‘इस चारित्रिक दृढ़ता के छीजते जाने के कारण आज समाज में कितने यौन कदाचार बढ़ते जा रहे हैं, वह सब हमारे सामने है।’’ यानी अपने साथ होने वाले यौन कदाचार की जिम्मेदार खुद औरतें हैं, क्योंकि उनकी ‘‘चारित्रिक दृढ़ता छीजती जा रही है!’’

अपने तर्कों की पुष्टि के लिए वे ‘लोकमानस’ का हवाला देते हैं। लेखक का दावा है कि द्रौपदी की छवि लोक में एक ‘‘बदनसीब स्त्री’’ की रही है, जबकि शालिनी शाह अपने अध्ययन में इसके उलट तथ्य रखती हैं। शास्त्र-पुराण भले कुछ कहें, आज भी कई जगह गांव-देहात की औरतें सुबह-सवेरे जिन ‘पंचकन्याओं’ का नाम लेकर अपना दिन शुरू करती हैं, द्रौपदी उनमें से एक है। कुंती, द्रौपदी, तारा, अहल्या और मंदोदरी। इनमें से कोई भी प्रचलित अर्थों में ‘पतिव्रता’ नहीं है। क्या इन ‘अशिक्षित’ स्त्रियों की यह सांस्कृतिक दुनिया, संस्कृति के दावेदारों के किए-कराए पर पानी फेर देने के लिए काफी नहीं? शायद तभी तो उनके लिए अब तक ‘पतिव्रता महात्म्य’ लिखना जारी है।

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