पंद्रह अगस्त को नरेंद्र मोदी लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र को दूसरी बार संबोधित करने वाले हैं, पर अब भी लगता है कि उनका प्रधानमंत्री होना सोनिया गांधी को गवारा नहीं। यह भी लगने लगा है कि उनको गवारा नहीं कि अब वे न राजमाता रही हैं भारत देश की और वह सुहाना मौसम भी बीत गया है, जब वे भारत की असली प्रधानमंत्री थीं, लेकिन बिना किसी जिम्मेवारी की।

सो, रोज निकालती हैं अपना गुस्सा उस शख्स पर व्यक्त करने, जिसको कभी उन्होंने ‘मौत का सौदागर’ कह कर जलील किया था। रोज उनकी कोई नई शिकायत पेश आती है। पिछले हफ्ते उन्होंने गुस्सा किया इस बात को लेकर कि नगालैंड में जो समझौता हुआ, उस पर हस्ताक्षर करने से पहले प्रधानमंत्री ने पूर्वोत्तर राज्यों के तीन कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ सलाह-मशविरा नहीं किया। पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि क्या समझौता फिर भी ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता है, तो उन्होंने चिढ़ कर जवाब इन शब्दों में दिया: ‘ऐतिहासिक शायद साबित होगा, लेकिन प्रधानमंत्री का इन मुख्यमंत्रियों की सलाह के बिना यह समझौता करना इस सरकार का घमंड दर्शाता है।’

अजीब दास्तान नहीं तो क्या है कि जिस महिला ने अपने एक दशक लंबे शासनकाल में पत्रकारों से बात तक करने की तकलीफ नहीं की, आजकल पत्रकारों को ढूंढ़ कर उनसे मुखातिब होती हैं मोदी के खिलाफ कोई नई शिकायत व्यक्त करने। गिला-शिकवे के इस सिलसिले में सोनियाजी को अपने बेटे का इतना समर्थन है कि कई बार मां-बेटे एक ही स्वर में बोलते हैं। शिकायतों की शृंखला उस समय से चली आ रही है, जब राहुलजी अपनी माताजी की इजाजत लेकर विदेशों में दो महीने छुट्टियां बिताने गए थे। उनकी गैर-मौजूदगी में सोनिया विपक्षी दलों का एक जत्था लेकर पैदल गर्इं राष्ट्रपति भवन तक मोदी की यह शिकायत करने कि भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन सिर्फ उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए किए जा रहे हैं।

जब राहुल वतन वापस आए तो उन्होंने अपनी पहली आम सभा में इस बात को न सिर्फ दोहराया, बल्कि यह भी साथ कह दिया कि प्रधानमंत्री को सिर्फ उद्योगपतियों की चिंता है, किसान-मजदूरों की नहीं। इसके बाद राहुल पंजाब की अनाज मंडियों का एक दिवसीय दौरा करके वापस आए और नसीहतें देने लगे प्रधानमंत्री को कि विदेशों के दौरे करने के बदले उनको किसानों से मिलना चाहिए।

सोनियाजी और उनके बेटे की नजरों में मोदी सांप्रदायिक भी हैं, यानी उनको चिंता हिंदुओं की है, ईसाइयों और मुसलमानों की नहीं। साथ में यह भी इल्जाम लगाया गया है मोदी पर कि वे पाकिस्तान के साथ जिहादी आतंकवाद को लेकर सख्ती से पेश नहीं आ रहे हैं। इतनी शिकायतों के बाद जब ललित मोदी ने खुलासा किया कि उनकी मदद की थी विदेशमंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री ने, तो सोनियाजी ऐसे पेश आर्इं जैसे उनके हाथ में ब्रह्मास्त्र आ गया हो।

तब से लेकर आज तक संसद को चलने नहीं दिया गया है, इस बुनियाद पर कि जब तक तीन मुख्यमंत्रियों और एक केंद्रीय मंत्री के इस्तीफे नहीं लेते हैं प्रधानमंत्री, तब तक संसद नहीं चलने दिया जाएगा। कई दिनों तक हल्ला मचा, नारेबाजी हुई और लोकसभा अध्यक्ष की इतनी बेइज्जती की गई कि आखिरकार उन्होंने पच्चीस कांग्रेस सांसदों को निलंबित कर दिया। सोनियाजी लेकिन मैदान-ए-जंग में दो कदम भी पीछे नहीं हटीं, उल्टा उन्होंने अपने निलंबित सांसदों को इकट्ठा करके संसद की प्राचीर में गांधीजी की प्रतिमा के सामने प्रदर्शन करना शुरू किया। पत्रकार जब वहां पहुंचे तो सोनियाजी ने उनको स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मोदी लोकतंत्र को खत्म करना चाहते हैं।

खूब हल्ला मचा, खूब तमाशा हुआ, लेकिन क्या सोनियाजी भूल गई हैं कि अगले चार साल मोदी प्रधानमंत्री निवास में विराजमान रहने वाले हैं, चाहे जितना हल्ला होता रहे, चाहे जितने आरोप लगाए जाएं। क्या अगले चार वर्षों तक सोनियाजी संसद को चलने नहीं देंगी? क्या भूल गई हैं कि जनता उनके साथ होती, तो पिछले आम चुनावों में कांग्रेस की सिर्फ चौवालीस सीटें आतीं? चुनाव परिणाम का विश्लेषण जब दिल्ली में बैठे राजनीतिक पंडितों ने किया तो कइयों ने मोदी की शानदार जीत के पीछे हिंदुत्व को मुख्य कारण बताया। लेकिन हम जैसे लोग, जो दिल्ली और मुंबई से बाहर निकल कर चुनाव अभियान देखने गए थे, अच्छी तरह जान गए कि मोदी की जीत के पीछे मुख्य कारण था सिर्फ यह कि मतदाताओं को परिवर्तन और विकास की उनकी बातें बहुत अच्छी लगीं।

इसमें दो राय नहीं कि बीते कई चुनावों में मतदाताओं ने जाति, धर्म-मजहब और राजनेताओं के तथाकथित करिश्मे पर वोट दिया, लेकिन 2014 में मतदाता बदल गए थे। उनको पूरी तरह अहसास था अपने अधिकारों का और इस बात का भी कि सोनियाजी के एक दशक लंबे राज में न उनको बुनियादी सेवाएं ढंग की मिलीं और न ही नौजवानों में बेरोजगारी की गंभीर समस्या कम हुई थी। ऊपर से अर्थव्यवस्था में ऐसी मंदी छाई हुई थी कि निराशा देश भर में फैल चुकी थी। सो, जब मोदी परिवर्तन, विकास के नारे लेकर आए मतदाताओं को इतना अच्छा लगा कि कांग्रेस पार्टी को बेइज्जत करके बाहर फेंका। लगता है कि सोनियाजी इस बात को बिल्कुल भूल चुकी हैं।

पर मोदी की समस्या यह है कि शायद वे भी भूल गए हैं कि उनको मतदाताओं ने पूर्ण बहुमत क्यों दिया था। भूले न होते तो परिवर्तन की रफ्तार इतनी धीमी न रखते अपने शासनकाल के पहले वर्ष में। न ही वे जनता को उन चीजों से बेखबर रखते जिन में परिवर्तन आ चुका है या आने वाला है। सोनियाजी के आक्रामक अंदाज का अगर कुछ फायदा होगा तो यह कि मोदी को याद आएगा कि उनको पूर्ण बहुमत मिला क्यों था।

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