तरुण विजय
श्रीनगर के शेखपुरा इलाके में बने फ्लैट एक भुतहा अतीत का डर ओढ़े हुए, सहमे-सहमे से खड़े हैं। हमने सोचा था श्रीनगर जाएं और किसी विदेशी सैलानी की तरह लौट आएं, तो उसकी क्या सार्थकता। कश्मीर में फूलों का खिलना, डल का उमगना और फिल्मों की शूटिंग फिर से आरंभ होना अगर सत्य और अभिनंदनीय है, तो उतना ही सत्य मगर अत्यंत कारुणिक है कश्मीर में हिंदुओं का बसना, उजड़ना और फिर उजड़ने से भी ज्यादा पीड़ादायक फिर घर लौटने या वापसी का चक्र।
उस कश्मीरी युवती के माथे पर बिंदी इतनी छोटी थी कि नामालूम-सी लग रही थी। बोली, आप दिल्ली में बैठे समझ नहीं सकते कि कश्मीरी पंडित सामान, बोरी या कनस्तर नहीं हैं, जिन्हें जम्मू के तंबुओं से श्रीनगर की बस में चढ़ा दो तो वे वापस घर बस जाएंगे। हमारे बच्चे यहां राष्ट्रीय गीत गाना भूल गए हैं, क्योंकि श्रीनगर के स्कूलों में जन गण मन नहीं गाया जाता। यहां तक कि किसी किताब में राष्ट्रीय गीत नहीं छापा जाता। हम स्कूल में बिंदी लगा कर जाती हैं तो बच्चे हमसे सवाल पूछते हैं- आप बिंदी लगा कर क्यों आई? हम क्या जवाब दें। बाजार में हमें अपनी हिंदू पहचान थोड़ा कम करके चलना ज्यादा सुरक्षित लगता है।
एक युवक, सरकारी कर्मचारी, रैना ने कहा- हम दफ्तर जाते हैं तो बाकी कर्मचारी हमारे आसपास जानबूझ कर आकर मोदी को गालियां देते हैं। उन्हें लगता है कि हर हिंदू मोदी का वोटर और आरएसएस का एजेंट है। हम कोशिश करते हैं- न सुनें। पर कब तक? हम कश्मीर में गिलानी की देशद्रोही हरकतों की आलोचना नहीं कर सकते। हमारी कलाइयों पर पूजा का रक्षा-सूत्र (धागा) बंधा होता है- सीधे हमारी भाषा और पहनावे से पहचाने जाते हैं कि हम कश्मीरी पंडित हैं।
भट्ट ने कहा- सन 2005 में कहा गया कि कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी भेजा जाएगा। 2011 तक हम इंतजार करते रहे- इन दो-दो कमरों के फ्लैटों में छह-छह परिवार डाल दिए गए। एक रसोई में छह गैस सिलेंडर। बाद में दो-दो परिवारों ने फ्लैट साझा किए। कहा गया था कि छह हजार कश्मीरी पंडितों को घाटी में नौकरी दी जाएगी ताकि वे वापस बस सकें। आज तक दस सालों में सिर्फ पंद्रह सौ बासठ कश्मीरियों को नौकरी मिली। वह भी केंद्र के कोटे से। राज्य सरकार को अपनी तरफ से तीन हजार लोगों को नौकरी देनी थी- उसमें से एक को भी नौकरी नहीं दी गई। कहा गया कि राज्य के पास पैसा ही कहां है?
एक कौल साहब थे, फोतेदारजी थे। दुख असीम, वेदना अपार, क्षोभ प्रकट भी करें तो कहां। घाटी में वोट की मुश्किल, एक भी विधायक नहीं, एक भी सांसद नहीं। ठिकाने का पता नहीं, पुराने घर, गांव में जो थे, जहां आंगन से अखरोट के पेड़ों की डालियां ऊपरी मंजिल के कमरों में आ जाती थीं, सब बिक बिका गए। जहां हैं भी, वहां चारों तरफ कुछ ऐसी आबादी का स्वरूप छा गया है कि दो सौ घरों के बीच अकेला कश्मीरी पंडित का घर कैसे आबाद होगा।
हमारे गीत मर गए, हमारी भाषा, हमारे बच्चों की कश्मीरी भाषा बदल गई, हमारे मातम, मृत्यु के समय दस दिन, तेरह दिन की विधियां अब कैसे करें? हमसे एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं। हमारा तबादला श्रीनगर से जम्मू तो क्या, अनंतनाग भी नहीं हो सकता। अगर हम तबादला मांगें, तो छुट्टी। नौकरी खत्म। हमारे बच्चे जम्मू में, पति मुंबई में नौकरी पर और हम यहां टीचर की नौकरी कर रहे हैं।
हमें देख कर खुलेआम ताने मारे जाते हैं- ‘पंडतानियों, अपने खाविंद धूप में जलने जम्मू छोड़ आर्इं और खुद ठंड में श्रीनगर आ गर्इं।’ हम क्या जवाब दें?
हम क्या जवाब दें? उजड़ गया इनका कश्मीर। अब दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई में कश्मीर एनक्लेव, पाम्पोश कॉलोनी ही इनको मिलेंगी और अखरोट के वृक्ष का रंगीन फोटो इनके कमरे में लगेगा। इनके कश्मीरी बच्चे हिंदी, बांग्ला, तेलुगू ज्यादा सफाई से बोलेंगे, बनिस्बत कश्मीरी के। इनके माता-पिता मरते दम तक कश्मीर की कहानियां सुनाते रहेंगे।
वाजवान, रिस्ता, नद्रू, अखरोट, शिवरात्रि, दीनानाथ नादिम के गीत। ‘भुमरो भुमरो श्याम रंग भुमरो…।’
जैसे अजायबघर के प्राणी वैसे ये कश्मीरी बड़े-बड़े शहरों में, अपनी बुद्धि और कौशल के दम पर बड़े-बड़े ओहदे प्राप्त कर लेंगे। उनके नाम के आगे लगे कौल, भट्ट, रैना, फोतेदार देख शायद कभी-कभी कोई पूछा करे- अरे ओह, आप कश्मीर से हैं। यूआर कश्मीरी पंडित? ओह आय एम वेरी सॉरी। बड़ा ट्रैजिक हुआ आपके साथ।
बस फिर नई कहानी शुरू।
दुनिया में इतने निर्मम, बर्बर, अमानुषिक लोग और कहां होंगे- जैसे हम हैं। एक पूरी आबादी जड़ से उखाड़ दी। गीत खत्म कर दिए। संगीत अनाथ कर दिया। रोने और गम मनाने की रीति बिखर गई। हजारों सालों का चला आ रहा इतिहास मिट््टी से उखाड़ कर किताबों में बंद कर दिया। इतना अपमान किया, मारा, नफरत की इंतिहा कर दी। फिर भी जब कोई कहता है- भाई इन बेचारों को वापस आने दो, तो घाटी से भाईचारे और मुहब्बत के नारे लगाने वाले दाढ़ी वाले चिल्लाते हैं- खबरदार जो इनको इकट्ठा किसी शहर में आबाद किया। इन्हें बिखरने दो, जहां से आए थे, वहीं अलग-अलग जाने दो।
एक बार तो जंगल का नरभक्षी सियार भी हमदर्दी जता लेता है। पर ये तो उस हमदर्दी के शब्द को भी नापाक कर गए।
इधर भी भट्ट, कौल, रैना हैं, उधर भी भट्ट, कौल, रैना हैं। सिर्फ दो-तीन पीढ़ियों का तो फर्क है। शेख अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी ‘आतिशे-चिनार’ में लिखा था कि उनके परदादा कौल थे। सर मुहम्मद इकबाल के पिता कश्मीरी पंडित थे। पर देखिए, खून एक, नस्ल एक, जाति एक, पुरखे एक, इतिहास और भूगोल एक, पहनावा एक, गीतों में बराबर के साझीदार- पर एक के हाथ में एके-47 और पत्थर हैं, तो दूसरे के हाथ में रिफ्यूजी कार्ड। अखरोट के वृक्ष अब किसी और के बगीचे में उतर आए हैं।
कश्मीर से ज्यों सुगंध गई, ज्यों देश का हिस्सा गया, ज्यों खुशनुमा खुलापन तंगदिली, तंग-नजरों से हलाक हुआ, उसी तरह ये कश्मीरी पंडित उजड़े। भारतीय गणतंत्र कितना ही देशभक्ति के गीत गा ले, कितनी ही ऊंची उड़ानें भर ले, कितनी ही समृद्धि और सुरक्षा के नए मापदंड रच ले, लेकिन स्वतंत्र देश में बने देशभक्त शरणार्थी हमेशा चुभन देते रहेंगे। इन भारतीय नागरिकों का एकमात्र ‘अपराध’ उनका देशभक्त होना, उनका हिंदू होना ही रहा। वे किसी करण जौहर की फिल्म का विषय नहीं बनेंगे- क्योंकि उनको एक हीरो के अमेरिका में सुरक्षा जांच के घेरे से निकलते हुए झेले गए अपमान की वेदना जितनी तीव्रता से महसूस होती है और फलत: ‘माई नेम इज खान’ का जन्म होता है, वह वेदना ‘माई नेम इज कौल’ कहने वाले के दुख से नहीं होती।
क्यों भाई? मुसलमान हो या ईसाई या हिंदू, क्या एक भारतीय की वेदना भारतीय के नाते हम महसूस नहीं कर पाएंगे? एक बार सिर्फ एक बार, माता वैष्णो देवी के दर्शन से लौटते हुए, हज से वापस सही-सलामत जम्मू-कश्मीर-अनंतनाग जाते हुए। श्रीनगर में डल का हाउस बोट आनंद लेने के बाद, जरा इन भारतीय शरणार्थियों से भी मिलने का जोखिम तो उठाइए। भारत कुछ तो बोलेगा।
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