कुलदीप कुमार
जिस किसी को भी इस देश और इसमें रहने वालों से प्यार है, उसके लिए इन दिनों चैन की नींद लेना संभव नहीं। चारों ओर जिस तरह का माहौल बनता जा रहा है, उसे देख कर किसी की भी नींद उड़ना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति पेट्रोल डाल कर इसलिए जिंदा जला दिया जाता है, क्योंकि उसने शक्तिशाली मंत्री पर गंभीर आरोप लगाए थे। वह पत्रकार था या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि हमारी तरह वह भी एक इंसान था। इस बात पर भी कोई विवाद नहीं हो सकता कि उसे इसलिए इतनी बर्बरतापूर्वक मारा गया, क्योंकि वह अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल कर रहा था। अभिव्यक्ति चाहे भाषणों के जरिए हो या रिपोर्ट और लेख के जरिए, रेडियो पर हो या टीवी पर, फेसबुक पर हो या ट्विटर पर, वह अभिव्यक्ति है। और, लोकतंत्र की बुनियाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही टिकी है।
अगर किसी की अभिव्यक्ति अतिरेकपूर्ण, दुर्भावनापूर्ण या किसी की मानहानि करने वाली है, तो उससे निपटने के लिए कानून में प्रावधान मौजूद हैं। जंगल के कानून से उसका सफाया किए जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। लेकिन वह सरेआम दी जा रही है। जिन पर आरोप लगे हैं, उनके खिलाफ केवल एक कार्रवाई की गई है। इन दिनों पुलिस किसी की रपट दर्ज कर ले, यही बहुत बड़ी बात है। और, यह बड़ी बात घटित हो गई है। और अब ‘कानून अपना काम करेगा’, यानी कुछ नहीं होगा। राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी के एक प्रमुख नेता का बयान है कि मंत्री पर केवल आरोप लगा है, अदालत ने उन्हें दोषी नहीं पाया है, जो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए।
दिल्ली सरकार के एक मंत्री के खिलाफ सुबह तीन बजे पुलिस रपट दर्ज करती है और दस बजे तक उसकी गिरफ्तारी हो जाती है। उस पर लगा संगीन आरोप क्या है? यही कि उसकी डिग्रियां जाली हैं। अदालत ने भी उसे दोषी नहीं पाया है, क्योंकि अभी जांच शुरू हुई है। लेकिन यह अपराध इतना संगीन है कि इस मंत्री को अदालत चार दिन के लिए पुलिस की हिरासत में भी भेज देती है।
ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पुलिस दिल्ली सरकार के नहीं, केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। और, अंगरेज शासकों द्वारा अपने उपनिवेश की जनता को दबा कर रखने के लिए बनाई गई पुलिस पिछले डेढ़ सौ साल से कानून के मुताबिक नहीं, शासकों के निर्देश के मुताबिक काम करती आई है। इसलिए सबके लिए कानून एक नहीं है। अगर होता तो यह नहीं हो सकता था कि दिल्ली पुलिस तो दिल्ली सरकार के एक मंत्री की शैक्षिक योग्यता की जांच करने के लिए अवध विश्वविद्यालय से पूछताछ करे और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षिक योग्यता संबंधी जानकारी देने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के पांच कर्मचारियों को निलंबित कर दिया जाए।
अगर सबके लिए कानून एक जैसा होता तो अनेक गंभीर आरोपों के कारण जेल में रह चुके गुजरात के पूर्व मंत्री आज देश पर राज कर रही पार्टी के अध्यक्ष न होते और उनके बारे में सीबीआइ वह रिपोर्ट न देती, जो उसने दी है। यह सीबीआइ पिछली सरकार के जमाने में ‘पिंजड़े में बंद तोता’ थी। लेकिन मोदी सरकार के आते ही यह ‘आजाद’ हो गई है। अब भाजपा का कोई नेता इसके खिलाफ दहाड़ता नजर नहीं आता। पहले यह कांग्रेस ब्यूरो आॅफ इन्वेस्टिगेशन कही जाती थी। अब वह क्या है? गुजरात के दंगों और फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में जेलों में रहे पुलिस अधिकारी न केवल छूट गए हैं, बल्कि उन्हें सेवा में बहाल कर दिया गया है। क्या वाकई कानून के सामने सब बराबर हैं?
हिंदू देवी-देवताओं के ‘आपत्तिजनक’ चित्र बनाने और धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में देश के मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन पर अनेक कस्बों और शहरों की अदालतों में सैकड़ों मुकदमे ठोंके गए। हार कर वे इक्यानबे साल की उम्र में विदेश चले गए, फिर कतर के नागरिक हो गए और छियानबे साल की उम्र में लंदन में उनकी मृत्यु हुई। मजलिस-ए-मुत्तहिदा मुसलमीन के नेता अकबरुद्दीन ओवैसी को सांप्रदायिक भाषण देने के लिए गिरफ्तार किया गया। लेकिन पिछले सालों से लगातार अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने वाले योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति और संजय राउत जैसे नेताओं के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई। क्या कानून सबके लिए बराबर है?
क्या जनादेश भी सबके लिए बराबर है? शायद नहीं। भारतीय जनता पार्टी के समर्थक यह कहते नहीं थकते कि देश की जनता ने उनके नेता नरेंद्र मोदी को भारी जनादेश दिया है, जिसका सम्मान करना सबका कर्तव्य है। लेकिन यही समर्थक दिल्ली की जनता द्वारा आम आदमी पार्टी को दिए गए अभूतपूर्व जनादेश का सम्मान करने को कतई तैयार नहीं। दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए यहां की सरकार के पास बहुत-से अधिकार नहीं हैं। भाजपा बहुत दिनों से दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग करती आई है। दिल्ली में भाजपा की भी सरकार रही है और कांग्रेस की भी। ऐसा भी हुआ है कि दिल्ली में एक पार्टी की सरकार थी तो केंद्र में दूसरी पार्टी की। लेकिन कभी केंद्र ने दिल्ली सरकार के हाथ बांधने के लिए ऐसे कदम नहीं उठाए जैसे मोदी सरकार उपराज्यपाल नजीब जंग का सहारा लेकर उठा रही है।
यहां सवाल आम आदमी पार्टी का समर्थक या विरोधी होने का नहीं है। सवाल यह है कि सत्तर में से सड़सठ सीटों पर जीत दर्ज कराने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार को कुछ भी करने का अधिकार है या नहीं? वह अपनी इच्छा से अपने अधिकारी भी नियुक्त या निलंबित नहीं कर सकती, अगर उसे हर बात के लिए उपराज्यपाल की मंजूरी की जरूरत है, तो फिर दिल्ली में विधानसभा और सरकार होने का अर्थ क्या है? क्या दिल्ली सरकार को मिला जनादेश, जनादेश नहीं? क्या जानबूझ कर अराजकता की स्थिति पैदा नहीं की जा रही? अगर सरकार और उसकी मशीनरी को काम ही नहीं करने दिया जाएगा, तो क्या जनाक्रोश के लावे को उबलने से रोका जा सकेगा?
कुछ ही दिनों में आपातकाल की चालीसवीं वर्षगांठ आने वाली है। जिस तरह इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण हुआ था और किसी भी किस्म की आलोचना के प्रति असहिष्णुता बढ़ी थी, उसी तरह की परिस्थिति एक बार फिर बनती दीख रही है। हमारे देश के राजनीतिक वर्ग का पिछले चार दशकों के दौरान भयंकर नैतिक ह्रास हुआ है। आपातकाल के समय देश में जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज, इएमएस नंबूदिरीपाद, ज्योति बसु, सी. राजेश्वर राव और मोरारजी देसाई जैसे अनेक चोटी के नेता थे, जिनकी राजनीतिक ही नहीं, नैतिक साख भी थी।
आज चारों तरफ नजर घुमाने के बाद भी ले-देकर अण्णा हजारे जैसे गैर-राजनीतिक लोग ही दीखते हैं, जिनकी थोड़ी-बहुत नैतिक साख है। सत्ता में हों या सत्ता के बाहर, आज के नेताओं को लोकतंत्र की कोई खास फिक्र नहीं है। राजनीतिक सत्ता व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों के लिए इस्तेमाल किए जाने की चीज हो गई है। ऐसे में अगर लोकतंत्र पर कोई बड़ा आघात हुआ तो क्या उसका कारगर प्रतिरोध हो पाएगा?
इस प्रश्न पर सोचने से निराशा ही हाथ लगती है। निराशा और अराजकता की स्थितियां लोकतंत्रविरोधी ताकतों के लिए बहुत मददगार सिद्ध होती हैं। ऐसी ही स्थितियों में लोगों को एक शक्तिशाली अधिनायक की जरूरत महसूस होने लगती है, जो बिगड़ते जा रहे हालात पर काबू पा सके और सख्ती से काम ले सके। इस समय तो किसी को ढूंढ़ने की जरूरत भी नहीं है। लोकतांत्रिक सरकारें कैसे अधिनियम के जरिए तानाशाही में बदल सकती हैं, यह उस गोपनीय पत्र को पढ़ कर पता चलता है, जो जनवरी 1975 में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखा था और जिसमें आपातकाल का पूरा नक्शा खींचा गया था।
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