सय्यद मुबीन ज़ेहरा
हम जिस मैगी के दीवाने थे, उसके बारे में अब पता चला है कि वह इस लायक थी ही नहीं कि खाया जाए। अगर मैगी के प्रति दीवानगी का विश्लेषण किया जाए तो इसके पीछे बाजार से कहीं अधिक जिम्मेदार मानव विकास का वह माहौल है, जिसने हमसे समय छीन लिया है। समय कम हो तो खाना तेज यानी फास्ट हो जाता है। यह अलग बात है कि फास्ट का अर्थ भूख या भुखमरी से भी जुड़ा है। समय के अभाव के कारण हम भोजन की संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। सबेरे का नाश्ता, दोपहर का भोजन, शाम का नाश्ता और रात का खाना जब हम ढंग से नहीं खाते तभी हमें तुरंता भोजन की जरूरत पड़ती है। अगर आप नई तकनीक के सताए हैं और रात को देर से सोना आपकी मजबूरी है, तो सुबह बच्चों को नियमित नाश्ता करा कर भेजना आपके बस से बाहर होगा। ऐसे में मैगी और उसके परिवार के दूसरे सदस्य ही आपकी मदद को आगे आएंगे। दो मिनट का यह स्वाद एक बार लगा नहीं कि फिर कुछ नहीं भाता।
युवा पीढ़ी मैगी और बर्गर पीढ़ी होती जा रही है। घर में भोजन की संस्कृति और विधि का समाप्त होना इसका एक कारण है। परिवार के सभी सदस्य साथ बैठ कर दिन भर की गतिविधियों पर चर्चा करते थे। अपनी कहते, दूसरों की सुनते थे। यह रिवाज ही समाप्त होता जा रहा है। हर कोई कभी आ रहा है, कभी खा रहा है। भोजन टीवी के सामने किया जा रहा है। ऐसे में कोई अपना दुख-दर्द कहना चाहे तो सभी उसे घूरने लगते हैं। किसी मॉल के फूड कोर्ट या रेस्तरां में जाकर देखें, सबेरे से भोजन शुरू होता है, तो आधी रात तक चलता रहता है। भोजन का कोई समय नहीं है। स्वभाव में यह रहा ही नहीं कि खाने का भी एक समय होता है। बाजार को दोष दीजिए या समाज को, जिसमें काम करते हुए हमारे पास एक-दूसरे तो क्या, अपने लिए भी समय नहीं बचा है।
मैगी ही क्यों, क्या बाकी जो कुछ हम खा रहे हैं वह सब हानिकारक नहीं है। मैगी पूरे देश में अब तक किसकी जांच-परख के बाद लोगों तक पहुंच रही थी। क्या दूसरे खाद्य पदार्थों और हवा-पानी की सफाई पर भी साफगोई से बात करेंगे? जहां बच्चों के दूध तक में धड़ल्ले से मिलावट होती हो, वहां किसके भरोसे हम खाद्य पदार्थ खरीद कर लाते हैं!
कुछ दिन तक हम मैगी मैगी चिल्लाएंगे और फिर भूल जाएंगे। ऐसा ही शोर कोक के विरुद्ध मचा था। पर क्या उसका बाजार बंद हुआ? उसकी बिक्री में कमी आई? आज हम विकसित हैं, इसलिए अपने घर में पैदा साग-सब्जी और दूध-घी तो मिलता नहीं; जो भी बाजार के भरोसे मिल रहा है उसे सुंदर पैकेट देख कर खरीद लेते हैं। अंदर का हाल तो वही जानता है, जिसे आपका स्वास्थ्य बिगाड़ कर अस्पतालों का भला करना है। खाने-पीने की चीजों पर मुहर कई महीनों और साल तक चलने की लगी होती है। मगर जिस प्रकार के मौसम में हम रहते हैं उसमें उनके सुरक्षित रहने का भरोसा नहीं किया जा सकता। मगर जबरदस्त विज्ञापनों के दम पर ये हमारे और नई पीढ़ी के मन में इस तरह बैठ जाते हैं कि मानो इनके बिना गुजारा ही नहीं हो सकता। पर शुद्ध भोजन तो वह है, जिसके बारे में पता हो कि वह किस खेत से आपकी थाली तक पहुंचा है।
शरीर के भीतर जो कुछ जा रहा है उसका सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से है। यही समय है कि भोजन के मामले में सामुदायिक रसोई की अवधारणा को आगे बढ़ाया जाए। एक परिवार, मोहल्ले या क्षेत्र का खाना मिल कर एक जगह साफ-सुथरे तरीके से बने और उसमें सभी की भागीदारी हो। यह साझा चूल्हा संस्कृति को पुनर्जीवित कर सकता है। विवाह-शादी में पकने वाला खाना भी सामुदायिक रसोई का एक रूप है। होटल का खाना भी यही है। मगर इसमें बाजार जुड़ा है। अगर सब एक-दूसरे के सहयोग से अपने समय और सुविधा के अनुसार इस अवधारणा को आगे बढ़ाते हैं तो यह निश्चित रूप से अच्छी पहल कही जा सकती है।
क्या खाएं, क्या न खाएं की अपेक्षा सबसे पहले भोजन का होना जरूरी है, क्योंकि जब हम मैगी की चर्चा छेड़े हुए थे उसी दौरान एक रिपोर्ट चुपचाप आई और हमें झकझोर गई। इस पर चर्चा नहीं हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार हमारा देश दुनिया के भूखों की सूची में पहले स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक भुखमरी रिपोर्ट के अनुसार हम उन्नीस करोड़ चालीस लाख भूखों के साथ शीर्ष पर हैं। इसमें हम चीन से भी आगे हैं, जिसने नूडल्स तक का रास्ता दिखाया है। हालांकि विश्व में भूखों की संख्या में कमी आई है और यह 1990-92 के एक अरब से घट कर उन्यासी करोड़ पंचानबे लाख पर पहुंच गई है। भारत में भी भूखों की संख्या में कमी आई है। जो इसी अवधि में इक्कीस करोड़ एक लाख के मुकाबले उन्नीस करोड़ छियालीस लाख रह गई है। पच्चीस सालों में आई यह गिरावट इस बात का संकेत तो है कि हमारे यहां कुछ अच्छा हो रहा है, मगर इस गति से सुधार होगा तो भूखे पेट रहने वालों के अच्छे दिन आने में सदियां बीत जाएंगी।
बड़े दुख की बात है कि हमारे देश में जहां एक ओर टीवी चैनलों पर भोजन से संबंधित कार्यक्रम दिन भर चलते हैं, विभिन्न खाद्य पदार्थों के विज्ञापन आते रहते हैं, वहीं लाखों लोग भूख से बेचैन रहते हैं। यह तब है जब भूखमरी और कुपोषण से निपटने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। पर जिस गति से चीन अपने यहां भूखों की संख्या में कमी ला पा रहा है, हम उसमें कमजोर साबित हो रहे हैं। इसका एक कारण भ्रष्टाचार हो सकता है, पर सबसे बड़ा कारण है कि हमारे यहां भरे पेट वालों का पेट भरने में ही सारी सहानुभूति खर्च होती है। सड़कों पर जगह-जगह और कुछ विशेष धार्मिक अवसरों पर भी लोगों को भोजन बांटते देखा जाता है। तब साफ नजर आता है कि जिन्हें वास्तव में भोजन की आवश्यकता है उन्हें तो किनारे कर दिया गया है, पर भरे पेट वालों को खूब खिलाया जाता है!
हमें न केवल भूखों का पेट भरना, बल्कि भोजन की बरबादी से बचना भी है। याद रखें कि जो भोजन आप बरबाद कर रहे हैं, उससे कई भूखों का पेट भर सकता है। भूख मानव जीवन की बड़ी समस्या है और इसे दो मिनट की मैगी नहीं, बल्कि दो मिनट का अहसास दूर कर सकता है।
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