क्षमा शर्मा
महानगरों, कस्बों, गांवों में चैनलों और कुछ अखबारों के जरिए शोर मचा है कि अच्छे दिन आ गए। सरकार ने एक साल में इतनी उपलब्धियां हासिल की हैं कि पूर्ववर्ती किसी सरकार ने नहीं की। कोई तीन सौ पैंसठ दिन में भ्रष्टाचार के खत्म होने की बात कर रहा है, तो कोई सौ दिन में। दिल्ली सरकार इस मामले में केंद्र से प्रतियोगिता की तैयारी कर रही है। मगर केंद्र सरकार के अच्छे दिन की धारासार बारिश देश के किस कोने में हुई, यह अभी तक पता नहीं चल पा रहा है। हो सकता है, विदेशों में हुई हो और उसकी खबर वहां के शोर-शराबे में दब गई हो या कि प्रवासी भारतीयों ने सारे अच्छे दिन समेट कर किसी ताले में बंद कर दिए हों।
पहले भरोसा दिलाया गया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। सबका विकास होने वाला है। नौकरियों की बाढ़ आने वाली है। मान लीजिए कि किसी जादू की छड़ी से स्वर्ग के दरवाजे खुलने वाले हैं। इसका महीनों तक राग अलापने के बाद अब पूछा जा रहा है कि बुरे दिन गए क्या! लोग जवाब न देकर टीवी कैमरों को देख कर हाथ हिलाते हैं और समझ लिया जाता है कि वे हां में हां मिला रहे हैं।
ऐसा पहली बार है, जब किसी सरकार ने सिर्फ एक साल पूरा होने पर इतना उत्सव मनाया। बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं और अखबारों को अपनी उपलब्धियों से रंग कर इतने विज्ञापन दिए कि अखबारों के मार्केटिंग वालों की बांछें खिल गर्इं। उनके लक्ष्य साल के मुकाबले कुछ ही दिनों में पूरे हो गए। मालिकों के अच्छे दिन आए कि उनकी तिजोरियां दिन दूनी रात चौगुनी गति से भर जाएं। लेकिन लोगों के जीवन में क्या सुधार हुआ, उनकी जेब कितनी कटी, महंगाई की मार कितनी और किस तरह से झेली, इससे किसी को क्या! इससे पहले इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी भारी बहुमत से विजयी हुए थे, मगर शायद ही कभी इस तरह के रंगारंग कार्यक्रम हुए थे। क्योंकि जब सारी उपलब्धियां एक साल में हो ही गर्इं तो आगे के लिए क्या बचा।
इन दिनों युवा जिस तरह अपनी शादी के तीस दिन का जश्न मनाते हैं, फिर तीन महीने, फिर छह महीने, फिर साल। मानो क्या पता शादी कितने दिन चले, इसलिए जितने दिन बीतते जाएं अपनी-अपनी खैर मनाते हुए उनका जश्न मना लिया जाए। सरकारें भी शायद इसी असुरक्षा की भावना से परिचालित हैं। इतने धुआंधार प्रचार को देख-सुन कर ऐसा महसूस हो रहा है कि जैसे सरकार का कार्यकाल पूरा हो गया है और बस अब चुनाव दरवाजे पर खड़ा है। जैसे यह सारी कबड्डी चुनाव जीतने के लिए खेली जा रही है।
सर्वे कराए जा रहे हैं। लोगों के मिजाज को भांपने की कोशिश की जा रही है। कौन किसे वोट देगा। कितने प्रतिशत वोट किसे मिलेंगे। किसका बहुमत होगा। चुनावी समीकरण क्या होंगे। कौन किसके साथ समझौता कर सकता है आदि। पता लगाया जा रहा है कि मोदी लहर अब भी बची है कि नहीं। जो लोग ऐसे सवाल कर रहे हैं शायद उन्होंने लहरों का आना-जाना कभी देखा नहीं। जो लहरें एक समय में तेज गति से तट की तरफ आती हैं, वही कुछ समय बाद लौट कर दरिया में विलीन हो जाती हैं।
सरकारी लोग महंगाई कम होने की बात कह कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, मगर आम उपभोक्ता रोजमर्रा की चीजों जैसे दाल, सब्जी, मोबाइल किराया आदि के बढ़ते दामों से कराह रहा है, लेकिन उपलब्धियों के इस कानफोड़ू शोर में उसकी कराह किसी को सुनाई नहीं देती। सुनाई दे भी कैसे! जिन माध्यमों से सुनाई दे सकती थी, जब वही अतिशयोक्तिपूर्ण बातों को गाने-बजाने में लगे हैं। सरकार की नजर में नंबर कैसे बढ़ें, इस बात की होड़ लगी है।
मशहूर पत्रकार नीरजा चौधरी ने एक बहस के दौरान कहा भी कि महंगाई कहां कम हुई है, यह किसी को नहीं मालूम। वे मदर डेयरी से सब्जियां खरीदती हैं। वहां भी मौसम की कई सब्जियां साठ रुपए किलो बिक रही हैं। पहले सब्जियों-फलों के दाम घटते-बढ़ते रहते थे। मगर अब तो दाम एक बार बढ़ते हैं, तो वे बढ़ते जाते हैं, कम नहीं होते।
भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी दोनों कह रही हैं कि देश से भ्रष्टाचार चला गया है। वह कहां गया है, किसके घर में डेरा डाला है, या कि रूप बदल कर आ रहा है, किसी को नहीं मालूम। अगर सचमुच भ्रष्टाचार भाग खड़ा हुआ है, तो उसका कोई प्रमाण भी होगा। मगर कहां, आकाश, पाताल या किसी और लोक में। क्योंकि आम आदमी को तो आज भी उसी तरह की मुसीबतों से गुजरना पड़ता है, जिनसे आज तक वह गुजरता आया है। मामूली कामों के लिए उसे पैसे देने पड़ते हैं, वरना फाइल इस मेज से उस मेज तक घूमती हुई वापस लौट आती है। कंप्यूटर में सब कुछ दर्ज हो जाने से भी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। हां, रिश्वत के रूप बदल जाते हैं।
मेरे एक परिचित ने बताया था कि आजकल लोग काम कराने के बदले रिश्वत में जितने रुपए चाहते हैं, उतने का मोबाइल में टाक टाइम डलवाने की शर्त रखते हैं। अब कोई पकड़े इस तरह की रिश्वत को। ऐसे ही न जाने कितने तरीके होंगे, जिन्हें लोग खोजते हैं और किसी को कानोंकान खबर नहीं होती।
आजकल अक्सर कहा जाता है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तो उन्होंने बहुत अच्छे काम किए थे, जो तब तक किसी और सरकार ने नहीं किए। आपको याद होगा कि अटल सरकार ने इंडिया शाइनिंग अभियान भी चलाया था। चुनाव से पहले अस्सी के आसपास के आडवाणी को लौह पुरुष की तरह पेश किया गया था। मगर अच्छे कामों के दावे और लौह पुरुष के साथ होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी चुनाव क्यों हार गई थी, यह कोई नहीं बताता। न कोई यह सवाल पूछता है।
तीन सौ पौंसठ दिन की उपलब्धियों का ढोल जिस तेजी से पीटा जा रहा है, कहीं ऐसा न हो कि जल्दी ही उसकी आवाज बेसुरी हो जाए और वह फट भी जाए।
इस संदर्भ में एक कथा याद आती है। एक गरीब आदमी गांव से शहर रोजी-रोटी की तलाश में गया था। वहां उसे अच्छा काम मिल गया और जल्दी ही उसने बहुत-सा धन कमा लिया। फिर एक दिन उसने गांव जाने का फैसला किया, जिससे सबको अपनी खुशहाली के बारे में बता सके। उसने अपना सारा धन समेटा और चल दिया। वह बाजार से गुजर रहा था कि उसकी नजर एक ढोल पर पड़ी। उसने फौरन उसे खरीद लिया और चल दिया। जंगल से गुजरते हुए उसने सोचा कि अब तो वह जल्दी ही घर पहुंच जाएगा और अपनी कामयाबी के किस्से सबको सुना सकेगा। इसी खुशी में अचानक उसके हाथ ढोल पर थाप देने लगे और वह जोर-जोर से ढोल बजाने लगा।
उधर से डाकुओं का काफिला गुजर रहा था। ढोल की आवाज उन्होंने सुनी तो वे उधर ही आ निकले। इस आदमी की वेशभूषा देख कर वे समझ गए कि यह जरूर मोटा आसामी है। वे उस पर टूट पड़े और सब कुछ लूट कर ले गए। ढोल को भी।
ढोल की यही नियति है, जितनी जोर से कोई बजाएगा, उतनी ही मुसीबतों को आमंत्रित करेगा।
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