जिन दो फिल्मकारों से मेरी कुछ घनिष्ठता हुई, वे हैं मणि कौल और कुमार शहानी- दोनों अपने अंचलों से, कश्मीर और सिंध से विस्थापित। दोनों ही नवाचारी, निर्भीक और प्रखर बुद्धिजीवी। दोनों ने मुंबई में रह कर अपना काम किया, जहां के अधिकतर फिल्मकारों और अभिनेताओं पर, उनकी अपार लोकप्रियता के बावजूद, आप बौद्धिक भी होने का आरोप नहीं लगा सकते! हमारे समय और समाज में लोकप्रियता और बुद्धि के बीच जो बढ़ती खाई है, उसका बॉलीवुड बहुत अच्छा, हालांकि बेहद दुखद, उदाहरण है। बहरहाल, दोनों से एक-एक फिल्म बनवाने में सफलता मिली: मणि ने मुक्तिबोध को लेकर और कुमार ने खयाल गायकी को लेकर मध्यप्रदेश में ‘सतह से उठता आदमी’ और ‘खयाल गाथा’ फिल्में बनार्इं।

कुमार शहानी अनेक अवसरों, परिसंवादों, पत्रिकाओं आदि के लिए अनेक विषयों पर लिखते रहे हैं। उन्हें एकत्र और संकलित कर एक सुदीर्घ भूमिका के साथ आशीष राज्याध्यक्ष ने पुस्तकाकार प्रस्तुत किया है- ‘शॉक ऑफ डिजायर ऐंड अदर एसेज’ शीर्षक से। तूलिका बुक्स ने रज़ा फाउंडेशन के सहयोग से उसे हाल ही में प्रकाशित किया है। कुमार की रुचि, दृष्टि और चिंतन का वितान बहुत विस्तृत है।

सिनेमा के अलावा साहित्य, संगीत, ललित कला, विज्ञान, टेकनालजी आदि को, उनके अभिप्रायों और प्रासंगिकता को वे गहराई से समझते हैं। वे परंपरा की निरंतरता और आधुनिकता के पारंपरिक स्रोतों को कुशाग्रता से पहचानते और उनके द्वैत के अतिक्रमण की ओर जाते हैं। वे सिनेमा के अत्याधुनिक माध्यम को अन्य पारंपरिक माध्यमों के क्रम में देखते-परखते हैं।

सिनेमा के आने के बाद बिंब की अभिव्यक्ति, अन्वेषण और संप्रेषण में क्या बुनियादी परिवर्तन आए हैं इसकी अच्छी पकड़ और समझ उनके यहां है। उनकी फिल्मों में सीधी आख्यानपरकता से विचलन होता रहा है: उसका औचित्य और आवश्यकता उनके चिंतन से परिचित होने पर समझ में आते हैं।

शहानी की फिल्में और चिंतन, लेखन और अभिव्यक्ति सभी में जरूरी लगती जटिलता है: वे सच्चाई के जो रूपक खोजते-पाते हैं वे उसकी अनिवार्य जटिलता से ही निकलते हैं और उन्हें सरलीकृत कर ग्राह्य बनाना उनकी आदत में शामिल नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि कुमार के लिए सारा सिनेमा, संसार भर का महत्त्वपूर्ण सिनेमा, एक स्पंदित संसार है, जिसे वे देखते-परखते और समझने की निरंतर चेष्टा में लगे हुए हैं। उनकी वैचारिकता और ऐंद्रियता के बीच बराबर आवाजाही होती रहती है।

प्रश्नवाचकता और उत्सव के बीच कोई व्यवधान उनके यहां नहीं है। वे जिस संसार की लय पकड़ने का उपक्रम करते हैं वह एक तरह की बहुसमयता में अवस्थित संसार है- समय और समयातीत के बीच कहीं, कई समयों में एक साथ विचरता हुआ। जो लोग इस अनूठे संसार के कुछ नजदीक जाना चाहें उन्हें यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। आधुनिक ऐसे भी हुआ जा सकता है, इसका एक उजला-विचारोत्तेजक उदाहरण।

कौन तैयार है!

इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले प्राणघातक तक हो चले हैं: हिंसा और असहिष्णुता तेजी से बढ़ रही है और राज्य उसमें या तो शामिल है या उसके प्रति उदासीन। जिन उदार मूल्यों को हमने अपना सहज उत्तराधिकार और सर्वव्याप्त मान लिया था उन पर लगातार प्रहार हो रहे हैं और उनकी व्याप्ति संदिग्ध हो चली है। ऐसे में हम कैसे प्रतिरोध करें और कैसे देश भर में फैली प्रतिरोध की सांस्कृतिक और बौद्धिक शक्तियां मिलजुल कर कुछ करें इस बारे में हम कुछ मित्र मिल-बैठ कर सोच रहे हैं।

जाहिर है कि ऐसा तब तक कारगर और सार्थक ढंग से नहीं हो सकता, जब तक कि हम अपनी भूल-चूकों, दुर्व्याख्याओं, कट्टरताओं, असहिष्णुताओं आदि की शिनाख्त न करें और इस पर विचार न करें कि हमसे कहां-कैसी भूल हुई। यह भी लाजिम है कि हम अपनी अपार विफलता का एहतराम कर उसके कारणों की पूरी निर्ममता से पड़ताल करें। यह आसान भले न हो, आगे की दिशा तय करने के लिए जरूरी है।

हमने अपने तथाकथित धर्मनिरपेक्ष उत्साह में भारतीय परंपरा और उसमें अंतर्भूत विवेक की पूरी तरह से अनदेखी की। उसकी बहुलता और उदारता का भले हमने औपचारिक गुणगान किया, लेकिन व्यवहार में, सर्जनात्मक और बौद्धिक व्यवहार में, हमने उसको बहुत कम उद्बुद्ध किया और हमारी इस कोताही से वे सभी अनुदार कट्टर शक्तियों के पाले में ढकेल दिए गए।

हमने विचारधारा को अस्त्र बना कर दूसरों के विरुद्ध इस्तेमाल कम किया और स्वयं विचार को अप्रासंगिक बना दिया: जो हमसे असहमत हो वह हमारा शत्रु हो गया, भले ही वह उदार मूल्यों में विश्वास करता हो। हमने धर्मनिरपेक्षता पर इस तरह का आग्रह किया कि वह धर्मों के विरोध और अनादर के रूप में देखी गई और उसमें हिंदू विरोध ज्यादा नजर आता रहा। हमने किसी भी धर्म द्वारा की जा रही कट्टरता, हिंसा आदि का समान उत्कटता से विरोध नहीं किया। नतीजा यह है कि धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव बेहद संदिग्ध धारणाएं समझी जाने लगीं।

हमने जीवन, कर्म और सृजन में अध्यात्म की स्थिति को लगातार अवमूल्यित, लगभग लांछित किया। अध्यात्म को धर्मों की कैद से बाहर लाकर व्यापक मानव-मुक्ति और आकांक्षा का हिस्सा बनाने की हमने कोशिश ही नहीं की। अध्यात्म को संघर्ष से विच्छिन्न कर हमने जो हासिल किया वह यह है कि कम से कम सारा हिंदी समाज हमारे साहित्य, सृजन और चिंतन द्वारा पोसे गए आध्यात्मिक शून्य में छद्म धार्मिकता की शरण में चला गया।

हालत यह है कि आज यही समाज सबसे अधिक असहिष्णु, धर्मांध, हिंसक और कट्टर बन कर उभरा है। साहित्य-कलाओं और संस्कृति की उदार समावेशिता उससे लगभग गायब हो रही है। हमारे पास ऐसे रूपक और प्रतीक तक नहीं बचे हैं, जिनसे हम उदारता और समावेशिता को समाज को बता-समझा सकें। मुद्दे और भी हैं: पर वे लोग कहां और कितने हैं जो इस तरह के पुनर्विचार का दुस्साहस करने को तत्पर हों? जिन्हें आज की महत्त्वाकांक्षी युवा पीढ़ियों से नए ढंग से संवाद करने की जरूरत लगती हो?

अजमेर में निराशा

पिछले वर्ष उसके पहले संस्करण से मैं अजमेर साहित्य समारोह से उत्साहित हुआ था, भले अनुभव न होने के कारण उसमें थोड़ी दुर्व्यवस्था थी और श्रोता अधिक नहीं थे। पर वह अन्य समारोहों से अलग, पूरी तरह से हिंदी में था और यह उसे एक विशिष्टता देता था। सो इस बार भी उसमें गया। उसका आयोजन एक पुरानी हवेली में था, जो अब होटल है। शहर में है। पर इसके बावजूद श्रोता कम आए- पहले दिन तो बहुत ही कम थे, बाकी के दिनों में उनकी संख्या उत्साहवर्द्धक नहीं थी।

आयोजकों के मन में लोकप्रियता का अटूट आकर्षण है: उसके चलते लोकप्रिय हस्तियों पर ही उनका ध्यान और प्रयत्न केंद्रित रहा और बाकी जैसे इस आकर्षण को वैधता देने के लिए बुला लिए गए! हममें से अधिकांश लोगों को अपने सत्रों के विषय वहीं जाने और पूछने पर पता चले। स्वयंसेवक बहुत थे, पर उनसे व्यवस्था का ढीलापन और आलस्य कम न हुए। स्थानीय लेखकों में से कई अनामंत्रित थे, सो वे भी नहीं आए। मेरा आगे से इस सिलसिले में अब अजमेर जाना न होगा। लोकप्रिय न होने की वजह से शायद आगे बुलाया भी नहीं जाएगा।

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