तरुण विजय

अपनी जाति को ऊंचा कहने वालों के चेहरे जरा ध्यान से देखिए। इस बात के प्रति वे नितांत आश्वस्त होते हैं कि उनकी जाति ऊंची है और कुछ ऐसे होंगे ही फिर, जिनकी जाति ऊंची नहीं नीची होगी।
नीची जाति वाले।

हम ऊंचे हैं। इसलिए हमारा फर्ज है कि हम मनुस्मृति और बाकी तमाम धर्मग्रंथों का बोझ उठाए हर भाषण में बताते रहें कि देखो हमारे महान धर्म में किसी के प्रति भेदभाव, ऊंच-नीच की बात कही नहीं गई है। सब बराबर हैं। देख लो। पढ़ लो। हम क्या झूठ बोलते हैं?

फिर सारी दुनिया पर अहसान चढ़ाते हुए हम सहभोज करेंगे। हम ऊंची जाति वाले उन लोगों की बस्तियों में जाएंगे, जिन्हें हम ‘नीची जाति’ का कहते हैं, मानते हैं। फिर कहेंगे कि देखो तुम्हारे साथ खाना खा रहे हैं, पानी पी रहे हैं- इससे ज्यादा त्याग और तपस्या क्या करें? जान दे दें? अब भी अगर यकीन नहीं आता कि हमारा जाति-पांति में यकीन नहीं है तो…?

जिन्हें हम वाल्मीकि कहते हैं, उन्हीं में अधिकतर वे भारतीय भी हैं, जो आज भी मैला ढोने का काम करते हैं। आज के समय और युग में, जाति के आधार पर साफ-सफाई और मैला ढोने का काम बदस्तूर जारी है। ये तमाम राम के रखवाले, रामनामी ओढ़ने वाले, कण-कण, चराचर जगत में राम का दर्शन करने वाले आज तक यह नहीं समझ पाए कि भक्ति और शक्ति की पराकाष्ठा के बावजूद वे उन मनुष्यों में राम क्यों नहीं देख पाए, जिन्हें वे वाल्मीकि या ‘नीची जाति’ का कहते हैं। सब भक्तों को प्रस्तर, प्रस्तर मूर्तियों, पर्वतों, नदियों, पवित्र सरोवरों, मूषकों (करणी माता मंदिर), गज (गणपति), अश्व (कल्कि अवतार), श्वान (धर्मराज, दत्त भगवान), मयूर (कार्तिकेय) में परम पिता परमेश्वर के दर्शन होते हैं- सिवाय ‘नीच जाति’ वाले धर्मबंधु वाल्मीकियों के।

ऐसा क्यों है? देश में जितने भ्रष्टाचार, विद्रोह, आतंकवाद, देशद्रोह के कांड हुए उनमें 99.9 फीसद वे ही पाए गए, जो दलित या वाल्मीकि नहीं थे। जितने तीर्थस्थान, खासकर उत्तर भारत के गंदे और कीचड़, फटे-पुराने कपड़ों के ढेर, कूड़े आदि से आच्छादित रहते हैं, जहां गलत और पूर्ण अशुद्ध संस्कृत जींस और शर्ट पहन कर पूजा करवाने वाले ‘ऊंची जाति’ के पवित्र लोग रहते हैं, वहां की दुस्थिति भी जिन्होंने निर्मित की, उनमें भी दलित या वाल्मीकि धर्मबंधुओं का योगदान नहीं है।

फिर भी इन वाल्मीकियों और दलितों के प्रति इतनी घृणा और गुस्सा क्यों है सर?
तौबा, यह प्रश्न उठाते ही लाल आंखों से घूरते ‘उच्च कुलोत्पन्न’ शास्त्रज्ञ, धर्ममर्मज्ञ, धनधान्य से परिपूर्ण अभिजात ‘बड़े लोग’ डराने लगते हैं। भस्म कर डालेंगे, सूची से नाम काट देंगे, कुछ और मुद्दा ढंूढ़ कर यह विषय उठाने का दंड देंगे।

दें भी क्यों न? ये वाल्मीकि और दलित, अगर ‘ऊंचे लोगों’ के इलाके में पानी पी लें, उनके स्कूलों में ‘सवर्ण बच्चों’ के साथ खाना खा लें, उनकी बिटिया से ब्याह रचा लें, मंदिर में जाएं तो मार डाले जाते हैं। हर साल तेरह से पंद्रह हजार घटनाएं ऐसी होती हैं। गोहाना हो, मिर्चपुर या मदुरै- सब जगह वाल्मीकि-दलित महिलाओं से वे ‘बड़ी जाति’ वाले प्रतिशोध लेते हैं। इतना भयानक अत्याचार होता है कि घटना का विवरण पढ़ते-पढ़ते अगर खून न खौले तो आप मनुष्य से कम ही होंगे।

फिर भी उनके दुख-दर्द में शामिल होने कौन ‘बड़ी जाति’ वाले जाते हैं? ये तमाम बाबा लोग, महान धर्म रक्षक, धर्म अनुरागी, धर्म व्याख्याता, महामहोपाध्याय, प्रवाचक, प्रबोधनकार, दलित बस्तियों में उनका दुख-दर्द जानने, उनके साथ खड़े होने, शीघ्र त्वरित न्याय दिलवाने कहां जाते देखे जाते हैं? आज तो ऐसा लगता है कि जहां धन है, वहां इनका धर्म है। और वहीं न्याय है, वहीं जमानतें हैं, वहीं खुशियां हैं कि भाई जेल के सफर से बच कर ‘बेल’ ले आए! वाह!!

यह मानसिकता की बात है। कानून और प्रवचन से बढ़ कर मन बदलने का विषय है। हम उन्हें मित्र नहीं बनाते, रिश्तेदार बनें तो मार देते हैं। हमारे आमंत्रितों की सूची में- उनकी बात छोड़ दें जो अपने ‘एससी अफसर’ या ऐसे व्यक्ति को, जो उनके बारे में कोई फैसला करने की ताकत या पद रखते हैं- वाल्मीकि-दलित स्थान पाते ही नहीं। गृहप्रवेश, मुंडन, विवाह, दावत में वाल्मीकि-दलित प्राय: होते ही नहीं। होली-दीवाली पर उनके साथ बैठना बहुत कम, प्राय: नगण्य होता होगा। हुआ भी कभी एकाध बार, तो उसका बखान जिंदगी भर करेंगे- अपनी महान समरसता की भावना का रौब गालिब करने के लिए। यानी संबंध सामान्य तो है ही नहीं।

पूरा मीडिया देख लीजिए। कितने संपादक, सह-संपादक, एंकर, चैनल मालिक, कार्यक्रम निर्धारक, संवाददाता, ब्यूरो प्रमुख आपको वाल्मीकि-दलित या जनजातियों से मिलेंगे? अब कह दीजिए कि ये क्या बात हुई? पत्रकार-संपादक-लेखक तो जन्मजात प्रतिभा का परिणाम होते हैं। सर्जनात्मक प्रतिभा कृत्रिम प्रशिक्षण के थोड़े आती है? यह फिर वही ‘बड़ी जाति’ वालों का अहंकारी तर्क है। छलावे का पिटारा। अरे तुम तो सदियों से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, पठन-पाठन-लेखन-स्वाध्याय की धारा में बहते आए, परिष्कृत परिणाम हो। जिनको पीढ़ियों से मैला ढोने के लिए धकेला गया और जिनके मानस में दासता जड़बद्ध बिठा दी गई, उन्हें लेखन-पत्रकारिता में विशेष प्रोत्साहन देकर आगे लाने के कितने संस्थान, विश्वविद्यालय खोले गए?

वे तमाम करोड़पति विद्यालय निर्माता, औद्योगिक घरानों का मंदिर-निर्माता दानदाता जो विद्यालय खोलते हैं, वे भी तो अमीरों के ‘ऊंची जाति’ वाले धनकुबेरों के बच्चों के लिए होते हैं। एक तो ऐसा संस्थान, विद्यालय हमें बताएं, जो इन महान भक्ति में सराबोर अमीर दानदाताओं ने केवल वाल्मीकि दलित बच्चों को श्रेष्ठतम शिक्षा देने के लिए, निजी क्षेत्र में खोला हो? कृपया बताइए?

फिर अपने त्रिपुंड से देदीप्यमान धवल मस्तक और अधिक खाने से मोटी हुई ग्रीवा तान कर कहा जाता है- आरक्षण समाज में विभेद पैदा करता है, आरक्षण के बजाय गुण आधारित समाज और राजनीतिक व्यवस्था अधिक न्यायकारी है।

इनसे पूछा जाए कि अगर आरक्षण न होता तो क्या इतना भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों को मिलता जितना मिला है?

क्या निजी क्षेत्र ने एक बार भी एक स्थान पर भी कहीं अपनी ओर से श्रेष्ठता के ऐसे केंद्र खोलने के उदाहरण प्रस्तुत किए, जहां दलित-वाल्मीकि समानता और सम्मान के साथ-साथ बढ़ने का मौका पा सकें?
जो भी कदम समरता के उठे, वे भले ही जितनी आवश्यकता है उसकी तुलना में कम क्यों न हों, पर भारतीय मन को बचाने वाले ही कहे जाएंगे।

इनमें निस्संदेह अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम के कार्य, समरसता मंच का मौन परिवर्तन हजारों लाखों वाल्मीकि दलित परिवारों के हृदय स्पर्श करता, समानता का भाव जगाता प्रभावी हुआ तो आर्य समाज के दलित पुरोहित, गायत्री परिवार का बहुआयामी जातिभेद भंजक कार्य पंजाब के अनेक संत, बहुत बड़े पैमाने पर धारा मोड़ने का काम कर रहे हैं। हम विचारधारा के भेद छोड़ दें। अनेक धुर वामपंथी सक्रिय समूह जाति से परे होकर अपना काम और संगठन करते हैं और जातिभेद भंजन में उनका योगदान काफी रहा है।

फिर भी, कितना काम बाकी है। ये वाल्मीकि-दलित मनुष्य और साथी के नाते, सजावटी वस्तु की तरह सजाने के लिए नहीं, कब अपनापन और ईमानदार सहपथगामी पाएंगे?

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