हमारा पढ़ा-लिखा और चिकना-चुपड़ा समाज इस समय अपने को जल्दी से जल्दी अमेरिकी बनाने की हड़बड़ी में है: उनके जैसा भोजन और पहरावे, उनके जैसे मनोरंजन और फैशन, उनके जैसी अंगरेजी और शारीरिक भंगिमाएं, मुद्राएं। उनकी ही पुस्तकें, उनकी फिल्में, उनके जैसे पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्चाएं। सब कुछ उनके जैसा, भले एक हाथ में अपनी हिंदू भारतीयता प्रकट करने वाले रंगीन धागे भी बंधे हों! यह मानसिकता भी बढ़ती जाती है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा शत्रु है।

अनुकरण करने के लिए सोचने-विचारने वाले वर्ग का इस कदर उत्साह दुखद अचरज में डालने वाला है। जो बौद्धिक या सर्जनात्मक प्रतिरोध इस अनुकरण का समाज में है, उसकी जगह बिल्कुल गायब तो नहीं हुई है, पर सिकुड़ रही है। अमेरिका में किसी भारतीय की उपलब्धि यहां बड़ी खबर बनती है, भले अमेरिकी मीडिया उसका अक्सर नोटिस तक नहीं लेता।

जैसा राजा वैसी प्रजा पुरानी कहावत है। राजशाही से अलग लोकशाही में राजा से अलग स्वतंत्र व्यवहार कर सकने और सोचने तथा सवाल पूछने की स्वतंत्रता होती है। यह स्वतंत्रता हम लगभग अपनी इच्छा से तज देने को आतुर हैं। आलोचना लगभग देशद्रोह मानी जाने लगी है। ऐसा माहौल तो तब भी नहीं था, जब हम पर अंगरेजी शासन था! अब सुनियोजित ढंग से यह प्रयत्न हो रहा है कि जहां भी स्तुति और समर्थन के बजाय प्रतिरोध और प्रश्नांकन की संभावना हो, वहां ऐसी संस्थाओं को अवमूल्यित कर दिया जाए, उनके साधनों में कटौती कर दी जाए और उनमें येन केन प्रकारेण बौनों को कारगर अधिकार सौंप दिए जाएं।

जब-तब मीडिया में इसको लेकर कुछ विरोध होता है, पर व्यापक समाज अपनी संस्थाओं का ऐसा सत्यानाश हाथ पर हाथ धरे देखता रहता है! स्वयं वे वर्ग जैसे लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी आदि संगठित होकर इस अवमूल्यन और विघटन के विरुद्ध कोई सशक्त आवाज नहीं उठाते। ऐसा लगता है कि इन वर्गों के अधिकांश सदस्यों ने मान लिया है कि यह तो होना ही है- हम अपने विरोध से इसे रोक तो नहीं सकते! हमारा समय उदासीनता, निराशा बल्कि हताशा और अकर्मकता का है: हम कुछ न कर, चुप रह कर एक भयानक अभियान को समर्थन और बढ़ावा दे रहे हैं।

सब कुछ एक बड़ा बाजार बनता जा रहा है: वहां जो बिक या खरीद नहीं सकता वह टिक ही नहीं सकता। शिक्षा, संस्कृति, विचार आदि की संस्थाओं पर यह गहरा दबाव है कि उन्हें बाजार के अनुकूल, उसके लिए उपयोगी होना है। समाज को अतिक्रमित कर बाजार उसका भौतिक और अवधारणात्मक स्थानापन्न बन रहा है। उसे राजनीति, धर्म, मीडिया आदि सभी बढ़ावा दे रहे हैं। चिंता यहां महदूद हो गई है कि हम कैसा बाजार बनने जा रहे हैं, बजाय इसके कि हम कैसा समाज बनने जा रहे हैं। बाजारू व्यवस्था में सामाजिक समता, सांप्रदायिक सद्भाव और सहिष्णुता, सामाजिक न्याय आदि सब घटेंगे और हम ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे कि न भारतीय होंगे, न समाज ही। यह दुस्स्वप्न हमारे समय की सच्चाई होने जा रहा है!

स्वतंत्रता और साहित्य का साहचर्य:

सांप्रदायिक सद्भाव के लिए प्रतिबद्ध-सक्रिय और हमारे पुराने मित्र शबनम हाशमी और गौहर रज़ा ने ‘द्वारका बातचीत’ नाम से द्वारका में एक नया सिलसिला शुरू किया है, जिसमें किसी प्रासंगिक विषय पर एक लंबा वक्तव्य और फिर चर्चा होती है। पंद्रह अगस्त को मेरी बारी रही और लगभग पचास व्यक्तियों के सामने और साथ स्वतंत्रता-संग्राम और साहित्य की भूमिका पर हमने ध्यान केंद्रित किया।

हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमारा संग्राम कई मायनों में अनूठा था। वह औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति का संग्राम तो था ही, वह स्वयं अपने को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अपनी कई रूढ़ियों और अन्यायों से मुक्ति करने का संघर्ष भी था। इसलिए उसमें गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का उपक्रम, खादी को प्रोत्साहन और उसका प्रसार, हरिजन उद्धार, सार्वजनिक नैतिकता, शिक्षा, स्त्री-मुक्ति, सर्वधर्मसमभाव, पश्चिम की रैडिकल आलोचना, आधुनिकता का उदय और विस्तार, मातृभाषाओं में आत्मविश्वास आदि के लिए प्रयत्न भी शामिल थे।

दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा संग्राम, जितना बाहरी शक्तियों से उतना ही आंतरिक शक्तियों से, इतना अनेक स्तरीय रहा होगा, जितना भारत में। गांधीजी ने इस संग्राम के केंद्र में साधारण व्यक्ति को रख कर उसे गरिमा और शक्ति का बोध कराया और एक बड़े सामाजिक आंदोलन में भी बदल दिया। बल्कि लगता है कि साधारण की केंद्र में प्रतिष्ठा ने ही साहित्य में साधारण की महिमा को उत्तेजित किया। कई अर्थों में हम राजनीतिक स्वतंत्रता मिलने के पहले ही साहित्य, कलाओं, ज्ञान-विज्ञान जैसे कई क्षेत्रों में स्वतंत्र थे।

उस दौरान हमने कई संस्थाएं बनार्इं: शांतिनिकेतन, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, कलाक्षेत्र, इप्टा, प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप आदि। स्वयं साहित्य ने संस्था का रूप लेना शुरू किया। उसे केंद्र में रख कर देश भर में कई साहित्य-संस्थाएं भी बनीं, जैसे नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा, असम साहित्य सभा आदि। अनेक शैक्षणिक संस्थाओं में, जिनमें विश्वविद्यालय भी शामिल थे, साहित्य और भारतीय भाषाओं की उच्च स्तरीय शिक्षा और अनुसंधान की शुरुआत हुई। इनमें से कई स्वतंत्रता और प्रतिरोध के कई स्तरों पर समझने-बढ़ाने के केंद्र भी बने।

स्वतंत्रता संग्राम जिन दिनों चल रहा था उन्हीं दिनों हमारे यहां पश्चिम-प्रेरित आधुनिकता और उसके प्रतिरोध भी विकसित हो रहे थे। कई स्तरों पर और कई रूपों में परंपरा का पुनराविष्कार भी हो रहा था। साहित्य में धीरे-धीरे, गांधी और रवींद्रनाथ से लेकर मार्क्स आदि के प्रभाव में, स्वतंत्रता, समता और न्याय की मूल्यत्रयी भी स्थापित हो रही थी। साहित्य में सीधे समाज को समझने, उसका साक्षात करने की वृत्ति ने भी बढ़ना शुरू किया। साहित्य पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रश्नवाचक हुआ।

सब कुछ साहित्य के प्रश्नांकन के घेरे में आने लगा। ऐसे लेखक थे, जिन्होंने संग्राम में सीधे भाग लिया जैसे हिंदी में माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान। अनेक भारतीय भाषाओं में भी। पर ऐसे बहुत थे जो संवेदना, दृष्टि और स्वप्न से उसके सहचर थे। ऐसे भी बहुत थे, जो स्वतंत्रता-संग्राम में अंतर्भूत मूल्यदृष्टि से परिचालित हो अपने ढंग से साहित्य में नए प्रयोग कर और नई निर्भीकता ला रहे थे। इसी दौरान अनुभवों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। कई अर्थों में हिंदी साहित्य में गद्य का विकास, उपन्यास, आलोचना, अनुवाद और मीडिया साहित्य द्वारा राजनीतिक से पहले पा ली गई स्वतंत्रता के परिणाम रहे हैं। इनका जन्म या शैशव स्वतंत्रता के कारण है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संग्राम के चलते ही हमारे समाज में सांप्रदायिकता-धर्मांधता-कट््टरता की शक्तियां फैलीं-बढ़ीं और साहित्य में लगातार उनका गहरा प्रतिरोध भी शुरू हुआ। स्वतंत्रता के पक्ष में ऐसा प्रतिरोध आज भी बना है और उसकी आज भी जरूरत है।

कोलकाता में नई संवाद-शृंखला:

लंबे समय से यह कोशिश चल रही थी कि रज़ा फाउंडेशन द्वारा दिल्ली में संचालित और अब सुप्रतिष्ठित संवाद शृंखला ‘आर्ट मैटर्स’ का अन्य केंद्रों जैसे मुंबई, चेन्नई और कोलकाता आदि में विस्तार हो। कोलकाता की कलावीथिका ‘आकार-प्रकार’ ने इसी 12 अगस्त को अपने यहां फाउंडेशन के सहयोग से यह शृंखला शुरू कर दी। पहले संवाद में कला-इतिहासकार प्रो. आर शिवकुमार और बांग्ला कलाकार हीरेन मित्र ने वयोवृद्ध चित्रकार गणेश हलोई से बातचीत कर इसकी शुरुआत की। मौसम बरसात का था और बहुत उमस थी। कलावीथिका ने अपने संग्रह से हलोई के कुछ चित्र भी प्रदर्शित किए। पचासेक लोग आए, जिनमें प्रणब रंजन रे, जवाहर गोयल जैसे कलाप्रेमी शामिल थे।

हलोई ने बड़ी सादगी, बिना कुछ उलझाए हुए, बार-बार यह कहा कि मूर्त-अमूर्त आदि के भेद तथाकथित प्रतिनिधित्व, प्रतिबिंबन आदि की बारीकियां आलोचना करती है: कला अपने आप में संश्लेष होती है। उसमें उपस्थिति में अनुपस्थित, वर्तमान में अवर्तमान, नित्य में अनित्य रसा-बसा या अंतध्वर्नित होता है। कलाकार यह तक करके कुछ नहीं करता कि उसे बखान करना या बयान देना या कुछ सर्वथा अप्रत्याशित बनाना है। उसके द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व सभी अंतत: उसकी कला में ही अंतर्भूत होते हैं। कई बार इसका कलाकार को सचेत रूप से पता भी नहीं चलता, उसकी कोई जरूरत भी नहीं होती। कला में सब कुछ जान-समझ कर नहीं होता: बहुत सारा आकस्मिक भी होता है। इसी तरह अर्थ के भी कई रूप होते हैं, हो सकते हैं। दर्शक उसमें क्या देखता या देख पाता है यह उसकी संवेदना और शिक्षा पर निर्भर है। कलाकार अपना अर्थ न बांधता है, न थोपता है। अर्थ पहले से तय भी नहीं होता। वह कला-प्रक्रिया के अंतर्गत प्रगट होता या रचा जाता है।

जिस तरह आत्मीयता, सहज जिज्ञासा और साथ-सोहबत का माहौल ‘आकार-प्रकार’ में उस शाम था उससे आश्वस्ति हुई कि यह प्रयत्न सार्थक है और कोलकाता के सघन पंचांग में उसके लिए तिथियां हो सकती हैं।

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