सविता झा खान

अपूर्वानंद का लेख ‘खामोश सुबकियां’ (17 मई) पढ़ कर ऐसा क्यों लगा कि अब भी गरीबों के संदर्भ में तमाम उपक्रम ‘निशब्द फर्श पर गिरते आंसू’ तक सिमट कर रह जाते हैं? मानो प्रश्नों की सुलग को इन प्रतिमानों ने (जिनकी औद्योगिक समाज के पास मानने की कोई विवशता नहीं है) मानवीयता के इन संदर्भों में जकड़ दिया है। यही सवाल और संवेदना का स्तर डिकेंस के समय भी था और आज भी। अब तो हम उत्तर-औद्योगिक काल में आ गए, जहां विनिर्माण क्षेत्र को सेवा और सूचना तकनीक के क्षेत्रों ने ढंक लिया है। इस युग में वही तेवर और वही सवाल क्यों, जो औद्योगिक अर्थव्यवस्था और समाज के थे। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक, कि सामाजिक सरोकार आर्थिक व्यवस्था से तालमेल नहीं बिठा पा रहा। दूसरा, कि समाज के वर्गीकरण की धुरी कहीं अटक गई है।

क्या इसका कारण हमें पीछे जाकर औद्योगिक युग में नहीं तलाशना पड़ेगा, जिसने न सिर्फ समाज को मजबूती से गरीब और अमीर के खांचों में हमेशा के लिए जकड़ कर मध्ययुगीन पद्धति को जारी रखा, बल्कि एक नया खांचा भी तैयार किया, जिसे हम शहर और गांव के असमान वितरण में देखने लगे। पर समस्या यहीं नहीं रुकी, शहरों में बैठे कुलीन न सिर्फ पलायन कर आए निम्न वर्ग के लिए वही प्रारूप तैयार कर रहे थे, जो उनके हित के माफिक था, बल्कि प्रगति का एक ऐसा एकल ढांचा भी गढ़ रहे थे, जो ग्रामीण परिवेश के कभी पल्ले नहीं पड़ा।

ऐसे में यहां शिक्षा का संदर्भ कायदे से बहुस्तरीय, बहु-परतीय होना चाहिए था, देश की आर्थिक योजनाओं के तालमेल में होना चाहिए था, जबकि ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के रूप में यह एक ऐसे इलाज के तौर पर सामने आया, जिसे मर्ज का पता ही नहीं था। जैसे ब्रिटिश हमें सभ्य बनाने का बोझ उठा रहे थे उसी को नए राष्ट्र-राज्य ने भी जारी रखा। गरीबों की शिक्षा के संदर्भ में हो या कृषि में घटती उनकी हिस्सेदारी को लेकर लगातार मुंह के बल गिरते सरकारी आंकड़े, हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को प्रभावित नहीं कर सकी।

पिछले दशक में जोतेदारों की भागीदारी कुल कामकाजी जनसंख्या में 31.7 से घट कर 24.9 प्रतिशत तक रह गई। गैर-कृषि क्षेत्र आर्थिक परिवेश में अपनी बड़ी भागीदारी के बावजूद पचास प्रतिशत से भी कम लोगों को रोजगार मुहैया करा पा रहे हैं। क्या ऐसे में हमें अपनी लचर शिक्षा नीति के विषय में गंभीर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है; खासकर गरीबों के लिए, जिन्हें हम साक्षरता के नाम पर सिर्फ दोपहर का भोजन और बीच में पढ़ाई छोड़ने का विकल्प देकर कब तक अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे? वह भी तब, जब पुश्तैनी के नाम पर उनके पास कुछ न हो। फिर सेवा क्षेत्र की खस्ता हालत, आर्थिक मंदी, वैश्वीकरण के बढ़ते खतरे क्या हमें शिक्षा के कौशल और ज्ञान संबंधी वैकल्पिक अर्थ तलाशने को बाध्य नहीं कर रहे थे? आखिर कब तक ऐसे तमाम देश, जो आंशिक या पूर्ण रूप से औपनिवेशिक प्रक्रिया से गुजर चुके हैं, वैश्वीकरण के बोझ को नव-उपनिवेशवाद के विजेता मुखौटे की आड़ में झेलते रहेंगे!

नेहरू जरूर एक अलग सोच के तौर पर सामने आए थे, पर अफसोस कि वह सोच सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडे के तौर पर था। यह अगर उनके सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोण का भी हिस्सा बन गया होता, जो पहले औपनिवेशिक ढांचों को उखाड़ फेंकने को प्रेरित करता, तो फिर क्यों हम गरीबों और गांवों को भी उसी घटते रोजगार की बीमारी से संचालित करना चाहते, जब न तो उनके पास जीवनयापन को पर्याप्त जमीन है न ही अन्य प्रकार की संपत्ति और बौद्धिक विस्तार।

सैमुअल स्माइलस अपनी किताब ‘सेल्फ हेल्प’ में उद्यमशील विकास की बात करते हैं, जिसमें समाज को पुराने बंधनों से आजाद कराने की क्षमता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर राबर्ट पील के दादा खुद अपने खेत जोतते थे, घरेलू कुटीर उद्योग (ऊनी, सूती वस्त्र) के भारी मुनाफे से अपनी अगली पीढ़ियों के लिए प्रचुर संभावना विकसित की। फिर ऐसी शिक्षा-व्यवस्था क्यों न हो, जो घरेलू कुटीर उद्यम और साक्षरता को साथ लेकर चले, जिसमें आत्मनिर्भरता के अंश समाज के लिए नए मानक लेकर आएं!

गांधीजी ने स्पष्ट रूप से औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली को भारतीय जरूरतों के प्रतिकूल बताते हुए पढ़ाई के पहले सात वर्षों तक एक ऐसी शिक्षा की अवधारणा पर बल दिया, जिसमें स्व-वित्त की जगह थी, हस्तशिल्प थे, बाजार से जमीनी तालमेल और उपयोगिता थी। अपूर्वानंद के लेख में हाल ही में किए गए बाल श्रम पर एक विवादास्पद निर्णय के संदर्भ में कहा गया है कि ‘‘पश्चिमी नकल के तर्क पर विचार करने की भी जरूरत नहीं।’’ जरूरत है, क्योंकि वर्धा योजना को नकारने का तर्क भी इसके बाल-श्रम तत्त्वों के कारण ही था, क्या यह वाजिब था? आज जब फिर से कुटीर उद्योगों को कृषि के साथ पुनर्जीवित करने की जरूरत को अर्थव्यवस्था के एक मजबूत विकल्प के रूप में देखा जा रहा है, तब तो नहीं जान पड़ता।

एक और संदर्भ यह है कि बच्चों और बचपन के प्रति क्या अलग सोच के साथ राष्ट्रीय नीतियों की जरूरत है? जवाब हां है, क्योंकि आज जब हम प्राणी मात्र का वर्गों में विभाजित समाज बना रहे हैं, तो वहां विभाजन सिर्फ स्त्री-पुरुष का नहीं होगा। बच्चे एक अलग श्रेणी बनेंगे, जिनकी संकल्पना सिर्फ वयस्कता की तरफ बढ़ते अवयव के तौर पर नहीं होगी, बल्कि उनकी अलग जरूरतों के साथ कानून, नीतियां और व्यवस्था बननी चाहिए। जब बाजार सफलता के साथ मीडिया और प्रचारतंत्र के माध्यम से उनका मनोवैज्ञानिक इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहा, जिसमें बच्चे एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता बन कर उभर रहे हैं, तो फिर आज श्रम से शर्म कैसी! स्वनिर्मित होने में क्या दोष! आखिर अर्थव्यवस्था ने उन्हें वयस्कों के समांतर खड़ा कर दिया है। जब स्कूली शिक्षा में उन्हें हिंसा और बाजार दोनों भरपूर परोसे जा रहे हों, जब टूटते परिवार की हिंसा, असुरक्षा में हिंसा, आतंकवादी हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा, भाषा की हिंसा बच्चों के संदर्भ में ढाली जा रही हो तो खामोश सुबकियां जैसी उपमाएं किसे मजबूर कर पा रही हैं, यह सोचने की बात है।

यह सिर्फ कुछ शिक्षाविदों द्वारा, जो बचपन को इस शैक्षणिक परिश्रम से गुजारने पर तुले हैं, उनके सामने एक साहित्यिक गुहार जैसा प्रतीत होता है। एक सोचा-समझा नीतिगत तर्क नहीं, जो निशब्द आंसू को चिनगारी में बदल कर इस कठोर व्यवस्था को जला दे।

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