उर्मिलेश

सुपरिचित लेखक, कवि और काव्यानुवादक सुरेश सलिल ने लगभग बीस सालों की कड़ी मेहनत से विचारक और पत्रकार शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी के जीवन और कृतित्व पर उल्लेखनीय काम किया है। हिंदी के लेखक-पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लिए विद्यार्थीजी का नाम हमेशा प्रेरणापुंज रहा, लेकिन उनके सामाजिक-राजनीतिक बोध, लेखन और कर्म की विस्तार से जानकारी बहुतों को नहीं है। उसकी बड़ी वजह है, विद्यार्थीजी के विचार और कर्म के बारे में प्रकाशित सामग्री की कमी। सुरेश सलिल का अध्ययन इस कमी को पूरा करता है। उन्होंने विद्यार्थीजी की ‘जेल डायरी’ (1922 के जेल-प्रवास के दौरान लिखी) की खोज कर डाली, जो अब तक सामने नहीं आई थी। चार खंडों में गणेशशंकर विद्यार्थी रचनावली, उनके श्रेष्ठ निबंध, विद्यार्थी संचयन और उनकी जीवनी जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के बाद संस्मरण और मूल्यांकन आधारित सलिल की एक नई पुस्तक गणेशशंकर विद्यार्थी और उनका युग आई है।

यह विभिन्न लेखकों-विचारकों द्वारा विद्यार्थीजी के जीवन और कर्म पर लिखे लेखों का संकलन है। इसमें विद्यार्थीजी के कुछ परिजनों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं। पुस्तक के अंत में परिशिष्ट के तहत विद्यार्थीजी की दो अति महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी दी गई हैं। एक है, ‘समाचारपत्रों का आदर्श’ और दूसरी- ‘हिंदी-उर्दू का प्रश्न’ है। ये दोनों संक्षिप्त टिप्पणियां बताती हैं कि विद्यार्थीजी अपने दौर के सर्वाधिक प्रौढ़ प्रगतिशील लेखक-विचारक तो थे ही, उनके अंदर अपने समय के जटिल और कठिन प्रश्नों पर नए ढंग से सोचने और अपनी बात को पूरी तार्किकता के साथ प्रस्तुत करने का नैतिक साहस भी था।

‘समाचारपत्रों का आदर्श’ शीर्षक टिप्पणी ‘प्रताप’ से ही जुड़े पत्रकार विष्णुदत्त शुक्ल की एक पुस्तक की भूमिका के तौर पर लिखी गई थी। सलिल ने उस लंबी भूमिका के एक अंश को परिशिष्ट में प्रस्तुत किया है। इस टिप्पणी की शुरुआती पंक्तियां हैं: ‘संसार के अधिकांश समाचारपत्र पैसे कमाने और झूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध करने में उतने ही लगे हुए हैं, जितने कि संसार के बहुत से चरित्र-शून्य व्यक्ति।’ मीडिया के बारे में यही बात तो हमारे समय के महान विचारक नोम चोमस्की आज कह रहे हैं। अद्भुत संयोग है, ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ संबंधी चोमस्की की थीसिस विद्यार्थीजी के विचारों का ही विस्तार लगती है।

विद्यार्थीजी ने 1930 के दौर में बड़े घरानों द्वारा संचालित दुनिया के अधिकतर समाचारपत्रों की भूमिका के बारे में साफ-साफ लिखा कि किस तरह और क्यों वे अपनी अहम सामाजिक भूमिका में चूक रहे हैं! निजी राजनीतिक हित और कारोबारी-प्रबंधन इसके मूल में हैं। विद्यार्थीजी ने अखबारी संस्थानों की इन कमियों की सिर्फ चर्चा नहीं की, इस मर्ज का इलाज भी खोजा। उनका ‘प्रताप’ किसी व्यक्ति-विशेष का निजी कारोबार न होकर ‘पब्लिक ट्रस्ट’ की तरह संचालित था।

सलिल की इन पुस्तकों के प्रकाशन से पहले कम लोगों को मालूम रहा होगा कि उस दौर में जब इंटरनेट और इ-कॉमर्स नहीं था, विद्यार्थीजी जैसे कानपुर में बसे पत्रकार देश-विदेश के कई बड़े अखबारों को पढ़ा करते थे। कुछ को मंगाते थे और देश-विदेश के कई अखबारों को बुकस्टालों पर जाकर पढ़ा करते थे। उनके पास पूरी दुनिया की अद्यतन जानकारी और समझदारी थी।

वे महज पत्रकार नहीं थे, दर्शन, राजनीति और साहित्य में भी उनकी गहरी रुचि थी। विक्टर ह्यूगो सहित दुनिया के अनेक महान साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को उन्होंने पढ़ा था। ह्यूगो की दो महत्त्वपूर्ण कृतियों का उन्होंने अनुवाद भी किया। ‘प्रताप’ उन दिनों सिर्फ समाचार का नहीं, रचना और साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण मंच था। प्रेमचंद को हिंदी में लाने का श्रेय जिन लोगों को जाता है, उनमें विद्यार्थीजी का नाम सर्वोपरि है। प्रेमचंद की हिंदी में पहली कहानी ‘परीक्षा’ का प्रकाशन 1914 में ‘प्रताप’ में हुआ।

पुस्तक में विद्यार्थीजी पर महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, सुंदरलाल, महावीरप्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, शिवपूजन सहाय, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, वृंदावनलाल वर्मा और रामविलास शर्मा जैसी बड़ी हस्तियों के संस्मरण-लेख हैं। 1931 के कानपुर दंगे को रोकने की कोशिश के क्रम में हुई विद्यार्थीजी की शहादत पर गांधीजी ने मार्मिक ढंग से लिखा है: ‘हमें तो गणेशशंकर विद्यार्थी बनना चाहिए। गणेशशंकर की तरह आप एक-एक आदमी अपना-अपना अलग शांतिदल बना सकते हैं। लेकिन सवाल है कि विद्यार्थी की तरह ऐसे कितने आदमी हैं? गणेशशंकर ने अहिंसा की सेना का एक बहुत ऊंचा आदर्श हमारे सामने रख दिया। मैं चाहता हूं कि मुझे ऐसा मौका मिले और आपको भी। गणेशशंकर को ऐसा ही मौका मिला था, इसीलिए उसकी याद आने पर ईर्ष्या होती है। क्यों नहीं, मुझे वह मौका मिलता?’ कैसी त्रासदी है, कैसा दुर्योग, सत्रह साल बाद महात्मा गांधी को भी सांप्रदायिक-फासीवादियों की गोली का निशाना बनना पड़ा!

स्वाधीनता सेनानी और पत्रकार-इतिहासकार सुंदरलाल ने अपने संस्मरण में गणेशशंकर विद्यार्थी के जीवन, विचार, पत्रकारिता और शहादत की पृष्ठभूमि पर विस्तार से लिखा है। सुंदरलाल उन दिनों हिंदी अखबार ‘कर्मयोगी’ के संपादक थे। विद्यार्थीजी ने अपने संपादकत्व में निकलने वाले ‘प्रताप’ से पहले ‘कर्मयोगी’ और उर्दू अखबार ‘स्वराज’ के लिए भी काफी लिखा। इस लेख में सुंदरलाल ने एक पत्रकार की तरह 1931 के दंगे की पृष्ठभूमि और विद्यार्थीजी की शहादत से जुड़ी परिस्थितियों का विस्तार और पूरे ब्योरे के साथ जिक्र किया है। पुस्तक में संकलित किसी भी लेख या संस्मरण को कम करके नहीं आंका जा सकता है। सभी बेहद महत्त्वपूर्ण और सूचनाप्रद हैं।

विद्यार्थीजी के जीवन, रचना और कर्म के शोधकर्ता होने के नाते सुरेश सलिल के पास भी महान शहीद पत्रकार के बारे में असंख्य नई जानकारियां हैं, जो अब से पहले आज की पीढ़ी में बहुतों को नहीं थीं। उन्होंने ‘गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रताप’ शीर्षक अपने लेख में विद्यार्थीजी के व्यक्तित्व, विचारधारा और लेखन का ठोस तथ्यों की रोशनी में ईमानदार मूल्यांकन किया है। विद्यार्थीजी के बारे में उनकी यह टिप्पणी काबिलेगौर है: ‘आज जिस हिंदुत्व का खेल खेला जा रहा है, वह बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही शुरू हो गया था। उससे टक्कर लेते हुए 21 जून, 1915 को विद्यार्थीजी ने प्रताप में राष्ट्रीयता शीर्षक लेख में लिखा था, ‘हमें जानबूझ कर मूर्ख नहीं बनना चाहिए। ऊंटपटांग रास्ते नहीं नापने चाहिए। कुछ लोग ‘हिंदू राष्ट्र’ ‘हिंदू राष्ट्र’ चिल्लाते हैं। हमें क्षमा किया जाए, यदि हम कहें, नहीं, हम इस बात पर जोर दें, कि वे एक बड़ी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक ‘राष्ट्र’ शब्द के अर्थ नहीं समझे।’

शहीद भगतसिंह के साथी और लाहौर षड्यंत्र मामले के सह-अभियुक्त विजय कुमार सिन्हा ने वामपंथी और क्रांतिकारी संगठनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं से विद्यार्थीजी के निकट संबंधों पर नई जानकारी दी है। बाद के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बने अजय घोष ने भी एक समय विद्यार्थीजी के साथ जुड़ कर काम किया। उनके अलावा बहुत सारे क्रांतिकारियों के लिए ‘प्रताप’ का दफ्तर अपने घर जैसा था। भगत सिंह और विद्यार्थीजी के निजी-वैचारिक रिश्तों पर पुस्तक में कुछ नए तथ्य सामने आए हैं।

विद्यार्थीजी की पुत्री विमला विद्यार्थी (अब दिवंगत) से सलिल की लंबी बातचीत में इस बारे में बहुत सारी नई जानकारी है। विद्यार्थीजी भगतसिंह को पुत्रवत स्नेह करते थे। कम लोगों को मालूम है कि लाहौर षड्यंत्रकांड के बाद जब भगतसिंह फरार थे और ब्रिटिश हुकूमत की पुलिस और खुफिया एजेंसियां उन्हें खोजने के लिए पागल थीं, तब वे कानपुर स्थित ‘प्रताप’ के दफ्तर में लगभग छह महीने बलवंत सिंह के नाम से रहे। अखबार के लिए लिखते भी रहे। उनकी फांसी के बाद विद्यार्थीजी बहुत दुखी थे। 23 मार्च को भगतसिंह को फांसी हुई। इसकी सूचना विद्यार्थीजी को 24 मार्च को मिली। उस वक्त कानपुर में दंगे भड़क गए थे। दंगों को शांत करने की कोशिश में 25 मार्च को विद्यार्थीजी खुद शहीद हो गए।

बातचीत में एक अन्य महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र आता है। काकोरी के शहीद अशफाक उल्ला खां ने फांसी दिए जाने से एक दिन पहले विद्यार्थीजी को तार भेजा कि कल लखनऊ स्टेशन पर आकर मुझसे मिलिएगा। विद्यार्थीजी कई साथियों के साथ शहीद अशफाक को आखिरी सलामी देने गए। उनकी शाहजहांपुर में मजार विद्यार्थीजी ने बनवाई। इस बातचीत में ‘प्रताप’ के बारे में एक बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है। अपने समय का यह मशहूर अखबार 1919 से ही निजी प्रतिष्ठान के बजाय एक ‘पब्लिक ट्रस्ट’ की तरह काम करता था। विद्यार्थीजी की शहादत के कुछेक साल के अंदर ही ‘प्रताप’ की प्रखरता में कमी आई और प्रबंधन-संपादन की संरचना और दिशा भी बदल गई।

आज के दौर में गणेशशंकर विद्यार्थी के जीवन और कृतित्व पर सुरेश सलिल का शोध-अध्ययन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इससे एक प्रखर बुद्धिजीवी-पत्रकार और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के बड़े सेनानी के लेखन और सामाजिक अवदान पर रोशनी पड़ती है। इस महान विचारक और पत्रकार का जीवन और लेखन आगे की पीढ़ियों को रास्ता दिखाता रहेगा।

गणेशशंकर विद्यार्थी और उनका युग: संपादक- सुरेश सलिल, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड, 46973, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 900 रुपए।

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