सय्यद मुबीन ज़ेहरा

अरुणा शानबाग का नाम अब इतिहास के संदर्भों में एक ऐसे शक्तिशाली जीवन के रूप में आएगा, जिसे हमारे समाज ने अपनी संवेदनहीनता से नष्ट कर दिया। ऐसा नाम, जो अपनी हिम्मत से लगातार बयालीस वर्षों तक समाज को आईना दिखाता रहा। उन्नीस मई खुद को सभ्य कहने वाले समाज की विफलता का दिन है। अब यह नाम हमारे जीवन में हमेशा इस सवाल के साथ सामने आएगा कि क्या किसी को सत्य की डगर पर चलने की ऐसी गंभीर सजा दी जाती है? निर्दोष जीवन भर तड़पे और दोषी मामूली सजा पाकर समाज की नजरों से दूर शांति का जीवन व्यतीत करता रहे!

दिल दहला देने वाली जीवनी है अरुणा शानबाग की, जिसने अपने जीवन के बयालीस साल बिस्तर पर, आठ महीने के बच्चे की मुस्कान और मासूमियत के साथ, काट दिए। अरुणा की जिंदगी के ये बयालीस साल एक ऐसे कागज की तरह हैं, जहां दर्द की केवल आड़ी-तिरछी लकीरें मिलती हैं। इशारों और संवेदनाओं की भाषा पढ़ने वाले ही इन लकीरों को पढ़ और समझ सकते हैं, क्योंकि इस कागज पर पठनीय शब्द ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते।

अरुणा की मौत की खबर जब टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग और सेलिंग समाचार के रूप में दी जाने लगी तभी यह आभास हो गया था कि यह केवल उसकी मौत की घोषणा नहीं, बल्कि हमारे समाज के मृत होने की खबर है। उसकी मौत को चीख-चीख कर दर्द और आहों में लपेट कर बताने वाले हम आखिर बयालीस वर्षों में अपने समाज को इस लायक बनाने में क्यों नाकाम रहे कि फिर कोई ऐसा घृणित अपराध न हो, किसी अरुणा शानबाग का जीवन इस तरह नष्ट न हो। उसके बाद भी हमारे समाज में निर्भया और गुड़िया जैसी अनगिनत महिलाओं के साथ बर्बर व्यवहार होता रहा है।

अरुणा की गलती क्या थी? केवल यही कि वह अपने काम को लेकर सख्त और सच्ची थी। मुंबई के केइएम अस्पताल की नर्स अरुणा को एक वार्ड बॉय ने अपनी हवस का शिकार बनाया और जंजीर से बांध कर मरने के लिए छोड़ दिया। अरुणा इस घटना से मिले घाव की वजह से बयालीस वर्ष तक जिंदा लाश की तरह बिस्तर पर तड़पती और यही सवाल करती रही कि क्या हमने उसके अपराधी को सजा दे दी है!

हम अरुणा के अपराधी हैं। अरुणा की करुणा के लिए वे सब जिम्मेदार हैं, जिन्होंने उस दरिंदे को केवल सात साल की सजा देकर छोड़ दिया। हम महिलाओं पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध कुछ समय तो खूब चीखते हैं, लेकिन सत्य और न्याय की मांग करने वाली पुकार के साथ कभी खड़े नजर नहीं आते। जब न्याय करना होता है तो अलग-अलग भागों में बंट जाते हैं। यही नहीं, जब कोई महिला अपने लिए न्याय की मांग कर रही होती है तो हम केवल तमाशा देखते हैं। उसके साथ कुछ लोग ही नजर आते हैं। अक्सर उसके खून के रिश्तेदार तक मुंह फेर लेते हैं। अरुणा का लाचार जीवन हमारे न्याय से दूर रहने वाले समाज की कहानी बयान करता है। हम केवल ढोंग करते हैं कि हमें दूसरे की परवाह है, जबकि असल में हम सबने मानवता को मिट्टी में गाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

अरुणा ने जाते-जाते हमें कई सवालों में घेर दिया है। इन सवालों के सामने हमारा समाज बिल्कुल चुप या लाचार नजर आता है। क्या हममें से कोई, पुलिस या अरुणा के घर वाले बता सकते हैं कि उसके साथ अत्याचार करने वाला वह दरिंदा वार्ड बॉय आज कहां है? अरुणा के घर वाले कहां हैं, जिन्होंने अपनी बदनामी के डर से उसे ऐसी हालत में तड़पता छोड़ दिया। सवाल तो उस डॉक्टर से भी पूछा जाना चाहिए, जो अरुणा का मंगेतर था और इस घटना के बाद उसे छोड़ कर दूसरे देश में बस गया। सवाल उस अपराधी वार्ड बॉय के घर वालों से भी पूछना चाहिए, जिन्होंने ऐसे दरिंदे को अपने घर में शरण दे रखी होगी। हमारे आसपास न जाने ऐसे कितने दरिंदे बेखौफ घूम रहे होंगे और हम उन्हें पहचानते भी नहीं। अगर उन्हें पहचान भी लें तो न समाज और न ही कानून उनके अपराध के अनुसार सजा दे पाता है।

असली समस्या है महिलाओं को लेकर हमारे समाज का रुख, जो कभी यह कहता है कि लड़कों से तो गलती हो ही जाती है, लड़कियों को रात में काम नहीं करना चाहिए, महिलाओं को ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए और चाउमीन नहीं खाना चाहिए, नहीं तो बलात्कार हो जाता है। समाज में ऐसी बातें यही जाहिर करती हैं कि हम सब महिलाओं की सुरक्षा और अस्मिता के नाम पर नाटक करते हैं। हम सच्चे दिल से नहीं चाहते कि महिलाएं सुरक्षित रहें। यह राजनीति करने के लिए एक मुद्दा तो हो सकता है, लेकिन इससे समाज में कोई बदलाव नहीं आता। और हम जैसे लोग जो वास्तविकता से समाज में बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके दिल और दिमाग पर कई दिन तक अफसोस और लाचारी छाई रहती है।

अरुणा शानबाग चिकित्सा इतिहास की सबसे लंबे समय तक जिंदा लाश की तरह जीने वाली रोगी बन गई। वह नर्स थी। नर्स को हम सब सिस्टर इसलिए कहते हैं कि वह हमारी सेवा एक बहन के रूप में करती है। अगर हमारे समाज में एक बहन के साथ ऐसी हरकत हो सकती है तो फिर और क्या रह गया है कहने-सुनने को। कठिनाई यह है कि अपने कार्यक्षेत्र में अगर आप अपना काम जिम्मेदारी से कर रही हैं, चापलूसी और मक्कारी से दूर हैं तो कुछ ऐसे पुरुषों की आंख में चुभने लगती हैं, जो स्त्री को केवल गंदी औए असामाजिक सोच से आंकते हैं। यही तो हुआ अरुणा शानबाग के साथ! यह कैसा समाज बनाया है हमने? आवश्यकता है कि जो महिलाएं समाज में अपना काम सच्चाई और मेहनत से करती हैं, उन्हें पूरे समाज का भरपूर योगदान और सुरक्षा मिले। समाज को उनकी शक्ति बन कर खड़ा होना चाहिए।

मुंबई का केइएम अस्पताल प्रशंसा के योग्य है, जिसने अरुणा को बयालीस साल तक प्यार और ध्यान से संभाला। यही नहीं, जब अरुणा के जीवन को समाप्त करने की बात उठी थी तब भी इस अस्पताल के कर्मचारियों ने इनकार किया और कहा कि जब तक उसकी सांस है, हम सब उसके साथ हैं।

आज अरुणा हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसकी पीड़ा और मासूम मुस्कान हमसे सवाल कर रही है कि मेरे जीवन और मृत्यु पर रोने वालो, क्या तुमने ऐसे समाज की नींव रख दी है कि जहां अब किसी अरुणा को इस दर्द भरी घाटी से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा! समाज की चुप्पी सब कुछ कह रही है।

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