श्रीभगवान सिंह
भारतीयता का सच क्या है, यह उन्नीसवीं सदी से ही पाश्चात्य और प्राच्य बौद्धिकों के विमर्श का मुद्दा रहा है। एक धारा इसमें केंद्रीय प्रवृत्ति के रूप में आर्य बनाम आर्येतर जातियों के निरंतर संघर्ष, टकराव को रेखांकित करती रही, तो दूसरी धारा अनेक जातियों के इसमें समाहित होते जाने, एक-दूसरे में घुल-मिल जाने के सच को सामने रखती रही है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था: ‘आर्य, अनार्य, द्राविड़, शक-हूड़, पठान-मुगल सभी, यहां लीन हुए एक ही देह में’। यही स्वर हिंदी में हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘अशोक के फूल’ में प्रकट हुआ था: ‘विचित्र देश है यह। असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए, न जाने कितनी मानव-जातियां आर्इं और आज के भारतवर्ष को बनाने में अपना हाथ लगा गर्इं। जिसे हम हिंदी रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य-आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है।’ इसी चिंतनधारा को गवेषणात्मक ढंग से सत्यापित करने के क्रम में शिवकुमार तिवारी की पुस्तक नागवंश की पुराकथाएं आई है।
यों भारतीय संस्कृति की समन्वयात्मक प्रवृत्ति के अंतर्गत जितनी चर्चाएं आर्य, अनार्य, सुर, असुर, शक, हूण, द्रविड़ आदि की होती रही हैं, उतनी चर्चा का विषय नागवंश नहीं रहा है। इस पुस्तक में शिवकुमार तिवारी ने भारत की एक अति प्राचीन, पर काल प्रवाह में विस्मृत-सी कर दी गई नाग संस्कृति को सामने रखने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। यह पुस्तक अल्पज्ञात पौराणिक संकेतों और लोककथाओं में प्रचलित आख्यानों के आधार पर नाग समाज की सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं को नाना कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करती है।
‘नागवंश की पुराकथाएं’ पढ़ते हुए कई जानकारियां जुड़ती चलती हैं। मसलन, अब तक हमें सिंधु घाटी की सभ्यता, वैदिक सभ्यता या फिर गंगा-जमुनी तहजीब, जो मुगलों और हिंदुओं के मेल से विकसित हुई, का पाठ पढ़ाया जाता रहा है। गौरतलब है कि इन सभ्यताओं के उद्भव और विकास का केंद्र सिंधु घाटी से लेकर गंगा-जमुना का दोआब रहा है। लेकिन भारत की प्राचीन सभ्यता में नर्मदा घाटी का भी महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है, यह जानकारी इस ग्रंथ में मिलती है: ‘ऋषिवर, ध्यान से सुनें, नर्मदा घाटी केवल आर्यों की बपौती नहीं है। वहां हम यक्ष, राक्षस, नाग और गंधर्व जैसी कितनी ही जातियां न जाने कितनी सहस्राब्दियों से रह रही हैं, अत: इस भूमि पर हमारे नैतिक मूल्यों का भी उतना ही महत्त्व है जितना आपके नैतिक मूल्यों का। ऋषिवर, हमारे समाजों में स्त्रियों को यह अधिकार है कि वे अपने पुरुषों से आपसी सहमति के आधार पर संबंध विच्छेद कर सकती हैं। इस तरह हमारे समाज में नारी किसी पुरुष की जीवन भर की दासी नहीं रहती, यही अधिकार पुरुष को भी है।’
नागवंशियों को नाग समाज कहे जाने के पीछे मुख्य कारण यह था कि वे जातीय प्रतीक चिह्न के रूप में ‘सर्प’ को अंगीकार किए हुए थे। इसी क्रम में यह राज भी खुलता है कि हम राम की सेना के रूप में जिन वानर, भालुओं का जिक्र पाते हैं वे भी वास्तव में वानर या भालू नहीं, बल्कि ऐसे गुफा, कंदराओं में रहने वाले विभिन्न जनजातीय समाज थे, जिन्होंने ‘वानर या भालू’ को अपना जातीय प्रतीक चिह्न बना रखा था। इन नागवंशियों का दूसरे समाजों से संघर्ष और टकराव हुए तो फिर मेल भी हुए और आर्यों ने बहुत कुछ उनसे ग्रहण भी किया। लेखक बताते हैं कि ‘नाग वर्णव्यवस्था में आने के पूर्व न तो जंगली थे और न ही असभ्य।
दरअसल, उनका सामाजिक संगठन हो या कि आर्थिक, वे आर्यों के स्तर पर ही थे। यह अवश्य है कि उनकी सामाजिक विशेषताएं और आर्थिक कार्यकौशल आर्यों के समान न होकर भी अपने आप में विकास के लगभग उसी सोपान पर थी, जिसमें आर्य थे। उदाहरण के लिए यदि आर्य अश्व और गोपालक थे तो नाग हस्ति और महिष पालक। अगर आर्य यव पैदा करते थे तो नाग चावल, इसी तरह अगर आर्यों को स्थल यातायात अधिक पसंद थे, तो नाग जलमार्गों के अच्छे जानकार और अच्छे नाविक थे।’
आर्य और असुर, नाग, गंधर्व जैसे आर्येतर के बीच मेलजोल का एक प्रमाण इनके बीच विवाह संबंध के रूप में मिलता है: ‘पौराणिक आख्यानों में ऋषियों और राजाओं के विवाह भी असुरों, नागों और गंधर्वों आदि की कन्याओं के साथ हुए, पर ये सभी विवाह सामाजिक सहमति से हुए वर्णित हैं। इस संदर्भ में लेखक ने उस कथा का उल्लेख भी किया है, जिसमें मांधाता नाम के राजा ने नागवंश से रिश्ता जोड़ कर दो प्राचीन संस्कृतियों में मेलजोल बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू की।
इस तरह लेखक ने पुराकथाओं के माध्यम से एक समन्वित संस्कृति के विकास में नागवंशियों के कई योगदानों से अवगत कराया है। मसलन, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म के युद्ध में नागों ने धर्म के पक्ष में आर्यों का साथ दिया। भार्गव ऋषि परशुराम और हैहयराज कार्तवीर्य के बीच हुए युद्ध में नागों ने परशुराम के पक्ष में युद्ध किया, क्योंकि परशुराम का उद्देश्य था स्वेच्छाचारी हैहय राजाओं का वध करना, न कि अन्य क्षत्रियों से वैर करना। यह कथा उस धारणा का खंडन करती है, जिसके अनुसार परशुराम को क्षत्रियद्रोही बताया जाता रहा है।
भारतीय नृत्य कला के विकास में भी नागवंश का उल्लेखनीय योगदान रहा है। दरअसल, आज नागराज शिव से जुड़ी जितनी नृत्य-भंगिमाएं प्रचलित हैं, उनके आविष्कारक नागवंशी ही थे, क्योंकि शिव उनके आराध्य थे। नृत्य के साथ-साथ नागवंश का योगदान न केवल भारत, बल्कि विश्व की प्राचीनतम भाषा के व्याकरण को वैज्ञानिक रूप देने में भी है। लेखक बताते हैं कि यह भाषा-वैज्ञानिक कार्य संपन्न करने का श्रेय जिस पतंजलि को है, उनका संबंध भी नागों से था।
लेखक ‘अहिंसा परमोधर्म’ जैसे सिद्धांत के संबंध में भी तथ्यान्वेषण प्रस्तुत करते हैं। माना जाता रहा है कि अहिंसा परमोधर्म: पद बौद्ध और जैन धर्म से आया, पर लेखक ने ‘महाभारत’ के अनुशासन पर्व में आई एक कथा के हवाले से यह सिद्ध किया है कि ‘नागवंश से संबंधित इस महाभारतकालीन आख्यान में एक तथ्य और सन्निहित है, वह यह कि अहिंसा को श्रेष्ठ कर्तव्य या धर्म के रूप में अति प्राचीन काल में ही ऋषियों ने मान्यता दे दी थी। अनेक लोगों को यह भ्रम है कि सनातन धर्म में अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं थी या कि वह परवर्ती धर्मों के विकास के साथ ही धर्म के रूप में मान्य हुई। दरअसल, अहिंसा भारत की प्राचीनतम सांस्कृतिक धारणा है, जिसे परवर्ती धर्मों ने और अधिक सुपुष्ट किया।’
इस पुस्तक में प्रस्तुत पुराकथाओं के आलोक में आर्य-अनार्य संबंधी कई भ्रांत धारणाओं से पाठक को छुटकारा मिलता है। मसलन, आर्य-अनार्य या सुर-असुर के बीच केवल युद्ध और हिंसा की स्थिति नहीं रही, बल्कि उनमें मेलजोल, वैचारिक-व्यापारिक आदान-प्रदान, रोटी-बेटी के संबंध भी कायम हुए। रावण को अनार्य सिद्ध किए जाने के विपरीत लेखक उसे भी आर्य सिद्ध करते हैं, जो सही है। ‘तथाकथित आर्यों और द्राविड़ों का मिश्रण हजारों वर्ष पूर्व प्रारंभ हो गया था। असुर, वानर, रीक्ष, गंधर्व आदि समूह इन्हीं के मिश्रण से विकसित हुए। रावण आर्य ब्राह्मण होकर भी असुर हो गया। उसके पुत्र मेघनाद ने नागराज की पुत्री से विवाह कर असुर वंश की शाखा में वृद्धि की, तो हजारों नाग कन्याएं ब्राह्मणों और क्षत्रियों की पत्नियां बन कर मानव वंश या आर्यवंश की वृद्धि करती रहीं।’
वैसे ग्रंथ मुख्य रूप से नाग-संस्कृति पर केंद्रित है, पर इसमें नागों के अलावा असुर, वानर, रीक्ष, गंधर्व और आर्यों के बीच चले घात-प्रतिघात, संघर्ष के साथ-साथ मेलजोल, एक-दूसरे में अंतर्भुक्त होने, अंतर्लीन होने की प्रक्रियाओं का भी विश्वसनीय विवेचन है। कुल मिला कर, यह पुस्तक भारत की प्राचीन काल की उस सामासिक संस्कृति का चित्र सामने रखती है, जिसमें कालांतर में तितिक्षा, अहिंसा, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, सहकार आदि ने स्थायी जीवन-मूल्यों के रूप में स्थान ग्रहण कर लिया।
नागवंश की पुराकथाएं: शिवकुमार तिवारी; राजकमल प्रकाशन प्रालि, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 500 रुपए।
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