सुधांशु रंजन

असहनशीलता लगातार बढ़ रही है। असहमति के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। धर्म के मामले में विरोध तो दूर, असहमति की भी कोई जगह नहीं है। भारत में नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या हुई। ये दोनों नास्तिक थे। कोलकाता में एक मदरसे के प्रधानाध्यापक और स्तंभकार मौसम अख्तर पर जानलेवा हमला हुआ। पाकिस्तान में पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी को जिला अदालत ने फांसी की सजा सुनाई। कादरी को तो फांसी नहीं दी गई, पर सजा सुनाने वाले जज को देश छोड़ कर भागना पड़ा। तासीर का अपराध केवल इतना था कि उन्होंने ईशनिंदा कानून पर सवाल उठाया था। उन्होंने अल्लाह या पैगंबर के खिलाफ कुछ नहीं कहा था। बांग्लादेश में लगातार निरीश्वरवादियों को निशाना बनाया जा रहा है। हाल में छब्बीस वर्षीय ब्लॉगर वशीकुर रहमान बाबू की बेरहमी से हत्या कर दी गई। बांग्लादेशी मूल के सेक्युलर लेखक और मुक्तोमन डॉट कॉम के संस्थापक अविजित राय की ढाका में निर्मम हत्या की गई।

इन घटनाओं ने यह सवाल फिर खड़ा किया है कि निरीश्वरवादियों को जीवन का अधिकार है या नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल तो तब होगा, जब व्यक्ति जिंदा बचेगा। जो लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता बहादुरी से अपने विचार व्यक्त करते हैं उन पर मौत का साया हमेशा मंडराता रहता है। तसलीमा नसरीन ने बीस साल पहले चिंता जाहिर की थी कि बांग्लादेश में कट््टरता बढ़ रही है। इसका परिणाम उनके निर्वासन में हुआ।

सांप्रदायिक हिंसा में एक संप्रदाय के लोग दूसरे संप्रदाय के लोगों पर हमले करते हैं। पर वैसी हत्याओं या हिंसा को क्या कहेंगे, जो धर्म के नाम पर तथाकथित विधर्मियों पर हों। इसमें दूसरे समुदाय के सदस्यों के अलावा कई बार अपने संप्रदाय के लोगों की भी हत्या की जाती है और इसे धर्मयुद्ध का नाम दे दिया जाता है। धार्मिक कट््टरपंथियों ने खुद विधान बना लिया है कि नास्तिकों या निरीश्वरवादियों को जीने का कोई हक नहीं है।

जो सही अर्थ में आस्तिक है वह नास्तिक से कभी नफरत नहीं करता। बल्कि वह उसे अपने साथ रखना चाहता है। जब महात्मा गांधी ने कहा कि ‘ईश्वर सत्य है’ तो गोरा (गोपाराजू रामचंद्र राव) ने प्रतिवाद किया और उनसे जानना चाहा कि उनकी योजना में नास्तिकों के लिए कहां जगह है। जो व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता है वह सत्य को कैसे मानेगा। गोरा का सत्य में विश्वास था, लेकिन ईश्वर में नहीं। नवंबर, 1944 में गोरा के साथ लंबी बहस के बाद गांधी ने इसे उलट दिया, ‘सत्य ईश्वर है।’ बहस के दरम्यान गांधी ने कहा कि उन्हें उपवास करना चाहिए, क्योंकि नास्तिकता फैल रही है। गोरा ने लिखा है कि निश्चित तौर पर उन्होंने सोचा कि आस्तिकों के दुराचार के कारण नास्तिकता बढ़ रही है और अगर उनका आचरण बेहतर हो जाए तो नास्तिकता खत्म हो जाएगी।

जाति से ब्राह्मण गोरा अछूतों के कल्याण के लिए काम कर रहे थे। उनका मानना था कि ईश्वर में आस्था मनुष्य को विभिन्न समुदायों में बांटती है। इसलिए उन्हें लगा कि निरीश्वरवादी छुआछूत खत्म करने का काम ज्यादा प्रभावी ढंग से कर सकता है। उन्होंने अपनी बेटी की शादी एक अछूत के साथ की। महात्मा गांधी उस शादी में शरीक होने वाले थे, लेकिन उनकी हत्या हो गई।

गोरा की पुस्तक ‘गांधी के साथ एक नास्तिक’ की भूमिका में किशोरीलाल मश्रुवाला ने लिखा है: ‘गांधी ने पाया कि हालांकि गोरा अपने को निरीश्वरवादी कहता है, वह सच्चा और गंभीर सोच वाला व्यक्ति है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह ‘ईश्वर का आदमी था।’ मश्रुवाला ने यह भी लिखा कि निरीश्वरवाद भी एक धर्ममत है और ऐसा कहना तार्किक है। गांधी ने चार्ल्स ब्रैडलॉ के बारे में कहा था कि ईश्वर में आस्था न होने के बावजूद वह सच्चरित्र और सच्चे अर्थ में धार्मिक व्यक्ति था। और वह एक महान नास्तिक था।

ब्रैडलॉ उन्नीसवीं सदी के राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रसिद्ध निरीश्वरवादी थे, जिन्होंने 1866 में नेशनल सेक्युलर सोसाइटी की स्थापना की थी। 1880 में नार्थेम्पटन से वे सांसद निर्वाचित हुए, पर उन्होंने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने से मना कर दिया। वे ‘सत्य निष्ठा’ के नाम पर प्रतिज्ञा करना चाहते थे। मामला प्रवर समिति को भेजा गया, जिसने ऐसी अनुमति नहीं दी। उन्हें गिरफ्तार किया गया और संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। लेकिन उपचुनावों में वे लगातार चार बार वहां से निर्वाचित होते रहे और हर बार उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया। 1886 में आखिरकार उन्हें शपथ लेने दिया गया। दो वर्ष बाद उन्होंने संसद से एक नया शपथ कानून पारित कराया, जिसमें सत्य निष्ठा के नाम पर शपथ लेने का प्रावधान किया गया।

गोरा के साथ बहस में गांधी ने ब्रैडलॉ के बारे में कहा: ‘मुझे याद है उन पादरियों की, जो महान नास्तिक ब्रैडलॉ की शवयात्रा में आए थे। उन्होंने कहा कि वे उन्हें श्रद्धांजलि देने आए हैं, जो धार्मिक व्यक्ति था।’

सच यह है कि निरीश्वरवादी तथाकथित ईश्वरवादियों की तुलना में ज्यादा ईमानदार और पवित्र होते हैं। सच्चे ईश्वरवादी गिने-चुने हैं, जो आत्म-दर्शन के लिए तड़पते हैं। अधिकतर आस्तिक वे हैं, जो असुरक्षा के भाव से घिरे रहते हैं। सच्चे नास्तिक बहादुर होते हैं, जो परंपरा और ईश्वर पर सवाल उठाते हैं। अगर वे ईश्वर की सत्ता और शास्त्रीय नैतिकता पर सवाल नहीं खड़े करेंगे, तो नास्तिक कैसे होंगे।

पुरातन काल से ही निरीश्वरवाद का इस्तेमाल प्रतिद्वंद्वियों और विरोधियों को सताने के लिए किया जाता रहा है। शुरू में रोमन ने ईसाइयों को नास्तिक कह कर परेशान किया। इसलिए नहीं कि वे ईश्वर को नहीं मानते थे, बल्कि शाही पंथ के प्रति वफादारी का इजहार करने से उन्होंने इनकार कर दिया था। एनेक्सागोरस पर नास्तिकता का आरोप लगा, क्योंकि उसने सूर्य की कल्पना एक भौतिक वस्तु के रूप में की। प्रोटागोरस को एथेंस से निकाल दिया गया, क्योंकि उसने कहा कि उसे पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं और यह विषय कठिन है, जबकि जीवन छोटा है। इटली के संत, दार्शनिक, गणितज्ञ और खगोलशास्त्री गियोडार्नो ब्रूनो पर धर्मच्युत होने के आरोप में मुकदमा चलाया गया, क्योंकि उसने कहा था कि तारे भी दूर अवस्थित सूर्य हैं, जिनके अपने ग्रह हैं। उन्हें दोषी ठहराया गया और सन 1600 में जिंदा जला दिया गया।

गैलीलियो को मृत्युदंड से बचने के लिए अपना सूर्यकेंद्रित सिद्धांत वापस लेना पड़ा। उसे जेल में बंद किया गया। जब उसे प्रताड़ित किया जाता, तो वह कहता था सूर्य धरती के चारों ओर घूमता है और धरती समतल है। पर जैसे ही दर्द खत्म होता, वह चिल्लाता था कि धरती गोल है, जो सूर्य के चारों ओर घूमती है। आधुनिक यूरोप में भी ‘नास्तिकता’ शब्द का इस्तेमाल अंधाधुंध तरीके से दूसरों को सताने के लिए किया गया। इसमें परम आस्तिकों को भी नहीं बख्शा गया।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के बारे में विस्तृत तात्त्विक प्रमाण दिया। व्यक्तिगत आस्था का परिचय देते हुए उन्होंने वर्जिन ऑफ लॉरेटा के मंदिर की यात्रा की। इसके बावजूद ऑक्सफर्ड के बिशप सैमुएल पार्कर ने घोषणा की कि गेसेंडी और हॉब्स के साथ देकार्त युग के तीन सबसे खतरनाक नास्तिकों में एक है। ईश्वर भक्त स्पिनोजा को नास्तिकता के नाम पर समाज से निकाल दिया गया। इसी आधार पर फिश्ट को जेना विश्वविद्यालय की नौकरी से बाहर का रास्ता दिखाया गया।

भारत में वेद को मानने वाले आस्तिक कहलाए, जबकि इसे खारिज करने वालों को नास्तिक कहा गया। पर यूरोप जैसी स्थिति यहां कभी नहीं रही। पूर्व-मीमांसा दर्शन इसका उदाहरण है कि कैसे ईश्वर की सत्ता को नकारने वालों और आस्तिकों के बीच बेहतरीन तालमेल संभव है।

सच्चे व्यक्ति सत्य का अन्वेषण करते हैं, चाहे वे ईश्वरवादी हों या निरीश्वरवादी। दोनों का उद्देश्य है जनकल्याण। भगत सिंह ने अपनी पुस्तिका ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में लिखा है कि स्वतंत्रता का युग सही मायने में तब शुरू होगा, जब बड़ी संख्या में ऐसे स्त्री और पुरुष मिलेंगे, जो सिर्फ मानव-सेवा के प्रति समर्पित होंगे। स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा था: ‘मैं ऐसे ईश्वर की पूजा करता हूं जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं।’

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