कुलदीप कुमार

क्या ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) भी ‘पाप’ (पारंपरिक पार्टी) की राह पर चल पड़ी है? क्या उसमें भी एक नेता का निर्विरोध वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है? क्या असहमति जताने और नेतृत्व की कार्यशैली का विरोध करने वालों के लिए अब उसमें कोई जगह नहीं रह गई है? क्या अरविंद केजरीवाल की अपार लोकप्रियता और अभूतपूर्व चुनावी सफलता ने उन्हें एक ऐसा ‘कल्ट फिगर’ बना दिया है, जिसकी पूजा तो की जा सकती है, लेकिन उस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता? क्या यही वह वैकल्पिक राजनीति है, जिसकी ओर जनता बड़ी उम्मीदों के साथ देख रही है और जिसकी सफलता के लिए उसने सत्तर सदस्यों की दिल्ली विधानसभा में इस राजनीति का प्रतिनिधित्व करने वाले सड़सठ सदस्यों को चुन कर भेजा है? आज ये सवाल हर उस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को आंदोलित कर रहे हैं, जिसे देश और लोकतंत्र के भविष्य की चिंता है।

सवाल यह भी है कि क्या अरविंद केजरीवाल देश के पहले ऐसे नेता हैं, जिन्हें चुनाव में असाधारण सफलता मिली है? क्या सफलता ही सही होने का पैमाना है? केजरीवाल ने तो सिर्फ दिल्ली में अपने जौहर दिखाए हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी को राष्ट्रव्यापी अपार लोकप्रियता और असाधारण चुनावी सफलता मिली है। तो क्या मोदीभक्तों का उन सभी को देशद्रोही कहना सही है, जो नरेंद्र मोदी से असहमत हैं? क्या गिरिराज सिंह का यह कहना सही है कि मोदी विरोधियों की जगह पाकिस्तान में है? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि अब केजरीवाल विरोधियों की ‘आप’ में कोई जगह नहीं है। न केवल विरोधियों की, बल्कि उनकी भी जिनकी केजरीवाल की निष्ठा पर पूरा भरोसा नहीं है, मसलन अवकाशप्राप्त एडमिरल रामदास।

यह सब उस राजनीतिक दल का हाल है जो लोकतंत्र, भ्रष्टाचार-विरोध, पारदर्शिता, स्वच्छ राजनीति और जनभागीदारी का झंडा उठाए हुए जनता के बीच आया था और जिसके नेताओं ने जनलोकपाल के मुद्दे पर संसद को चेतावनी दी और धरना-प्रदर्शन किए। अब उस पार्टी को अपना ही लोकपाल बर्दाश्त नहीं और उसे हटाने के लिए तरह-तरह के असत्यों और अर्ध-सत्यों का सहारा लेना पड़ रहा है। यह दुखद है कि एक ऐसी पार्टी, जिसने लोगों के दिलों में एक नई किस्म की राजनीति की उम्मीद जगाई थी, अपने शैशव में ही उसी बीमारी का शिकार हो गई है, जिसने दूसरी पार्टियों को प्राइवेट कंपनियों में बदल कर अंदर से खोखला कर दिया है।

सभी जानते हैं कि हिटलर भी अपार लोकप्रियता अर्जित करके चुनावों के जरिए सत्ता में आया था। यहां इसका उल्लेख करने का अर्थ केजरीवाल को हिटलर बताना नहीं, सिर्फ यह याद दिलाना है कि लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए चुन कर सत्ता में आए व्यक्ति जरूरी नहीं कि लोकतांत्रिक आचरण करें ही। यों भी अण्णा शैली की राजनीति में सर्वोच्च नेता से असहमति की गुंजाइश नहीं है। रालेगण सिद्धी में अण्णा हजारे ने जिस तरह के प्रयोग किए, उनमें एक तत्त्व सेना-शैली का अनुशासन भी था, जिसमें आदेश को बिना किसी ना-नुच के मानना ही होता है। जनभावनाओं को उभार कर सत्ता में आने वाले नेता अक्सर लोकतंत्र के साथ तालमेल बिठाने में विफल ही रहे हैं। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों के राजनीतिक इतिहास में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। इसके साथ यह भी सही है कि जिन पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र मजबूत होता है, वे अंदर से मजबूत होती हैं।

आज कांग्रेस में एक परिवार का वर्चस्व है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का विरोध करने का साहस शायद ही कोई कांग्रेसी नेता जुटा पाए। और अगर किसी ने जुटा भी लिया, तो विरोध करने के बाद शायद वह पार्टी में न रह पाए। लेकिन क्या हमेशा से ऐसा ही था? महात्मा गांधी जैसी शख्सियत के मुखर विरोध के बावजूद सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू जैसी लोकप्रियता का एक भी नेता कांग्रेस में तो क्या, पूरे देश में नहीं था। उन्हीं नेहरू के मुखर विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। नेहरू की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी नहीं, लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री चुना गया। और जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, तो पार्टी के भीतर हुए मतदान में मोरारजी देसाई को हराने के बाद।

इन्हीं इंदिरा गांधी का नीतियों के आधार पर चंद्रशेखर, मोहन धारिया और कृष्णकांत जैसे ‘युवा तुर्क’ विरोध करते थे। 1971 में इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद चंद्रशेखर शिमला में पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य बने, बाकायदा चुनाव जीत कर। अगले साल कलकत्ते में वे कांग्रेस कार्यसमिति का चुनाव जीत कर दुबारा उसके सदस्य बने। उस समय इंदिरा गांधी की लोकप्रियता शिखर पर थी। लेकिन पार्टी संगठन पर उनका शिकंजा नहीं कसा था। 1974 में चंद्रशेखर ने खुल कर जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का समर्थन किया। इसके बावजूद वे 1975 में अपने मित्र और सहयोगी रामधन को कांग्रेस संसदीय दल का मंत्री बनवाने में सफल रहे। इमरजेंसी लगने के बाद तो देश की राजनीतिक स्थिति पूरी तरह बदल गई, लेकिन उसके पहले तक चंद्रशेखर या उनके सरीखे मुखर नेताओं को कांग्रेस से निकाला नहीं गया।

राजीव गांधी को सत्ताच्युत करने में सबसे बड़ी भूमिका विश्वनाथ प्रताप सिंह की थी और उनके नेतृत्व में ही जनता दल ने 1989 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। लेकिन चंद्रशेखर ने हमेशा कहा कि वे मेरी पार्टी के अध्यक्ष हैं, मेरे नेता नहीं। अपने इस कथन के समर्थन में उनका तर्क था कि जब वे जनता पार्टी के अध्यक्ष थे, तब पार्टी में मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह जैसे वरिष्ठ नेता थे। तो क्या वे इन वरिष्ठ नेताओं के नेता थे? विश्वनाथ प्रताप सिंह से चंद्रशेखर की असहमति जगजाहिर थी। लेकिन उन्हें जनता दल से निकाला नहीं गया। उन्होंने खुद पार्टी छोड़ी। भारतीय जनता पार्टी जैसी कड़े अनुशासन वाली पार्टी को भी अटल बिहारी वाजपेयी के विरोध को पचाना पड़ा, जब उन्होंने रामजन्मभूमि आंदोलन के समय अपने आप को उससे दूर रखा और स्पष्ट कर दिया कि वे लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के पक्ष में नहीं हैं।

राजनीतिक पार्टियों के भीतर सिर्फ हां-में-हां मिलाने वालों की जगह होने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। जो राजनीतिक पार्टी वैकल्पिक राजनीति का संकल्प लेकर और उसका वादा करके सत्ता में आई है, उसे अपने चाल-चलन को भी अन्य पार्टियों से अलगाना होगा। पार्टी तो पारंपरिक शैली में चलाई जाए, विरोध करने वालों को पार्टीद्रोही और पीठ में छुरा घोंपने वाला बता कर चलता किया जाए और दावे वैकल्पिक राजनीति के किए जाएं, यह केवल केजरीवाल-भक्त ही हजम कर सकते हैं, आम आदमी नहीं। बिना कोई कारण बताओ नोटिस जारी किए, बिना स्पष्टीकरण देने का मौका दिए किसी को भी निकालना लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। यहां प्रश्न यह नहीं है कि केजरीवाल के आलोचकों की नीयत क्या है? यह सवाल तो पुरुषोत्तम दास टंडन के बारे में जवाहरलाल नेहरू और मोरारजी देसाई और चंद्रशेखर के बारे में इंदिरा गांधी भी उठा सकते थे। सवाल यह है कि क्या किसी लोकतांत्रिक पार्टी में सदस्यों और नेताओं को असहमति का अधिकार है या नहीं?

अब ‘आप’ के शीर्ष नेतृत्व में केवल वे लोग बचे हैं, जो अरविंद केजरीवाल के समर्थक हैं। यह किसी भी पार्टी की राजनीतिक कमजोरी का लक्षण है, खासकर ऐसी पार्टी की कमजोरी का, जिसका दावा और वादा देश में स्वच्छ, भ्रष्टाचार रहित और जनभागीदारी पर आधारित राजनीति की शुरुआत करने का हो। अरविंद केजरीवाल ने खुद दिल्लीवासियों से कहा था कि वे भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं का स्टिंग ऑपरेशन करें। लेकिन अब जब उनके ऊपर हुए स्टिंग ऑपरेशन सामने आ रहे हैं तो उन्हें करने वालों की नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं। ये दोहरे मानदंड आश्वस्तिकर नहीं हैं। आम आदमी पार्टी इतनी जल्दी पारंपरिक पार्टी में बदल जाएगी, किसी ने भी नहीं सोचा था।

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