तरुण विजय

हे भगवान, सारे भारत पर दलित की छाया पड़ जाए तो सबको मोक्ष मिले। अभी खबर छपी है कि एक बच्ची पानी भरने गई तो उसकी छाया अन्य उन लोगों पर पड़ गई, जिन्हें लगता है कि उनकी जाति ऊंची है। बस यही था अपराध उस छोटी-सी बच्ची का।

सच तो यह है कि हम दलितों से घृणा करते हैं। हम आइएसआइएस या तालिबानों के साथ एक बार रोटी तोड़ लेंगे, लेकिन हमें अपने ही रक्त-बंधु वाल्मीकि, दलित, आदि से बेइंतिहा नफरत होती है। पिछले दिनों जब दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की हड़ताल टूटी तो मुझे लगा, काश! यह कुछ और दिन चलती और इन संभ्रांत, कुलीन, ‘उच्च वर्णीय’ लोगों की नाकें बदबू से फटतीं, तो कितना अच्छा होता। इन्हें अपनी सफाई खुद करने को मजबूर होना पड़ता। या आउटसोर्सिंग करते/ करने देते।

ये भले, सज्जन, संभ्रांत, आक्सब्रिज उच्चारण के साथ हिंदी-अंगरेजी बोलने वाले भारतीय वाइसराय इस बात को कभी समझ भी नहीं पाएंगे कि जाति के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई कर्मचारी बनते रहने का अर्थ क्या होता है। उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेता बनने का अर्थ पता है। पिता, दादा, पड़दादा फिर बेटा, बहू, भानजा, भतीजा, पौत्र, प्रपौत्र- सब यों लाइन में राजनीति में नाम कमाते हैं, मानो खुदा का खत लेकर पार्टी दफ्तर में घुसे हों।

ऐसे ही आइएएस, आइपीएस वगैरह के परिवार हैं। श्वसुर सचिव, सास डायरेक्टर, खुद कलेक्टर, पति संयुक्त सचिव वगैरह एक ही परिवार में मिलते हैं। इधर क्या मिलता है? पिता मिंटो रोड पर सफाई कर्मचारी, बेटा रोहिणी में सफाई कर्मचारी, बहू मंदिर मार्ग पर सफाई कर्मचारी, मां पुल बंगश के पास सफाई कर्मचारी। सबकी जाति वही- वाल्मीकि। जाति के आधार पर सफाई कर्मचारियों का समुदाय बना देना कौन-से संविधान का पालन है? क्यों नहीं कानून बनना चाहिए कि वाल्मीकि-दलित अपनी जाति के कारण सफाई कर्मचारी नहीं बनेंगे। अगर ब्राह्मण, वणिक, ठाकुर- बाटा के जूतों की दुकान कर सकते हैं, तो सफाई भी जाति बंधन से मुक्त क्यों नहीं हो जानी चाहिए? लेकिन ऐसा होगा नहीं। भीतर, बहुत भीतर, हम मान बैठे हैं कि ये लोग ऐसे ही हैं, इन्हें ऐसे ही रहने देना चाहिए।

पिछले दिनों संसद में मैंने एक निजी संकल्प प्रस्तुत किया। उसमें सिर्फ इतना कहा था कि वाल्मीकि समाज को समाज की मुख्यधारा में सबके साथ आने के समान अवसर मिलने चाहिए और इस समानता में अगर बाधा है- और वह बाधा कहीं से भी हो- धर्म-क्षेत्र से या अन्य क्षेत्र से, उसे दूर करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाए। अगर कोई सुशिक्षित, सुपठित, सुसंस्कारित, सुप्रशिक्षित वाल्मीकि मंदिर में पुजारी बनना चाहता है, तो उसे बनने दिया जाए और इस कार्य में बाधा डालने वालों को रोकने के लिए संविधान संशोधन के अंतर्गत कानून बने। क्या इसमें कुछ गलत था?

संसद में सभी पार्टियों ने इसका समर्थन किया। अधिकतर नेता इसके साथ थे। लेकिन हमें कहां-कहां से, क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा। एक वरिष्ठ व्यक्ति ने कहा- तुम जाति युद्ध करवाना चाहते हो। दूसरे बहुत सुपठित सुस्थापित बुद्धिजीवी बोले- जब पता चलेगा कि फलां मंदिर में वाल्मीकि पुजारी है, तो लोग वहां पूजा के लिए जाना बंद कर देंगे।

मैंने चुप साधना जरूरी समझा। पर सोचा कि ऐसे हिंदू अगर जातिवादी देवता की पूजा ही अनिवार्य मानते हैं, तो वाल्मीकि पुरोहित के मंदिर में जाना छोड़ दें। कल के बजाय आज छोड़ दें। वे कौन-से देश और समाज के लिए मंदिर जाते हैं। सब अपनी-अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए ही पूजा करते हैं। मेरे अनुसार तो अर्धशिक्षित, असंस्कारी, संस्कृत ज्ञान से रहित, शास्त्रों से अनभिज्ञ ब्राह्मण से पूजा करवाने की अपेक्षा सुशिक्षित वाल्मीकि द्वारा करवाई गई पूजा देवताओं को भी ज्यादा स्वीकार्य होगी और यजमान को भी पूरा फल देगी। लेकिन जाति के आधार पर जो हमारे मानस में कलुष है उसका क्या करें? देवता को भी हम उससे अछूते नहीं रखते।

पर जिस देश में मीडिया से लेकर राजनीति तक दलित की छाया से बचा जाता हो, जहां किसी अखबार, चैनल, विज्ञापन की शीर्षस्थ संस्थाओं में दलित संपादक, समाचार संपादक, ब्यूरो प्रमुख, एंकर, निदेशक, मालिक ढूंढ़ने पर भी न के बराबर मिलते हों, जहां गरमी से सैकड़ों लोग मर जाएं तो प्राइम टाइम पर चर्चा न हो, वहां सामाजिक सरोकार कैसे हमारी चिंताओं में वरीयता पा सकते हैं?

यह धनी लोगों का देश है, जहां गरीब, दलित, वाल्मीकि, पिछड़े सिर्फ प्रयोग की वस्तु हैं। उन्हें सजावट और हृदय की विशालता, विराटता के दंभपूर्ण प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। शब्द-विलासी हो चुके समाज में घृणा ही हमारे व्यवहार का निर्देशन करती दिखती है। यह घृणा तब दिखती है जब दलित बेटी की छाया से समाज का एक वर्ग संतप्त और क्रुद्ध हो उठता है। जब देश में लगातार दलितों पर हमलों, अत्याचारों की घटनाओं में वृद्धि होती दिखती है, जब क्रिकेट के दुर्गंधित धन का प्रभाव सब ओर चर्चित होता है, पर दलित और जनजातियों पर अत्याचार मुख्यधारा की बहस, संवाद और समाधान खोजने की जिद का हिस्सा नहीं बनते। आंबेडकर को जपा जाता है, पर समाज में धंसी घनीभूत घृणा का समाधान खोजने की इच्छा अनुपस्थित रहती है।

कण-कण में ईश्वर-दर्शन का दंभ भरने वालों से वह पिता कातर स्वर में यही तो कह रहा है- हमार बिटिया पवित्र बा। दलित की बिटिया ठाकुर, ब्राह्मण की बिटिया से कम नहीं, उसमें भी देवी का अंश है।
भारत इस पिता की बात, उस बेटी का दर्द समझे। न समझे तो अनर्थ होगा।

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