सुधीर कुमार

हाल में दक्षिण-पूर्व एशियाई देश इंडोनेशिया ने अपने यहां ‘कार्बन टैक्स’ लागू कर 2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य की दिशा में अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। वहां इकाइयों को अब प्रति टन कार्बन उत्सर्जन पर तीस हजार इंडोनेशियाई रुपिया चुकाने होंगे। जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को सीमित करने, स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने के निमित्त इंडोनेशिया का यह कदम अनुकरणीय है। इस कदम के बाद संभव है कि वहां औद्योगिक इकाइयां कम कार्बन उत्सर्जन की ओर ध्यान देंगी।

‘कार्बन टैक्स’ लागू करने वाला इंडोनेशिया दुनिया का अठाईसवां देश है। इस अवधारणा को सबसे पहले डेविड गार्डन विल्सन ने 1973 में प्रतिपादित किया था। जबकि 1990 में फिनलैंड ‘कार्बन टैक्स’ लागू करने वाला दुनिया का पहला देश था। मौजूदा समय में यह आर्थिक अवधारणा अलग-अलग दरों के साथ अर्जेंटिना, कनाडा, चिली, जापान, कोलंबिया, डेनमार्क जैसे देशों में प्रचलित है।

वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखते हुए अब दुनिया विभिन्न तरीकों से कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने को लेकर संजीदा दिख रही है। बीते दिनों ग्लासगो में संपन्न काप-26 जलवायु शिखर सम्मेलन में भी दुनिया के कई देशों ने ‘नेट जीरो’ का लक्ष्य तय किया था। भारत ने भी इसे 2070 तक हासिल करने का संकल्प लिया है। ‘नेट जीरो’ कार्बन से तात्पर्य कार्बन उत्सर्जन के स्तर को शून्य तक लाने के बजाय इसकी भरपाई उन प्रयत्नों पर जोर देकर करनी है, जो कार्बन अवशोषित करते हैं।

इस अवधारणा में कार्बन उत्सर्जन एकाएक बंद करने के बजाय वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अपनी हिस्सेदारी को क्रमबद्ध तरीके से कम करने पर बल दिया जाता है। साथ ही उन क्रियाकलापों को बढ़ावा देना होता है, जो वातावरण से कार्बन को सोखने में समर्थ हैं। इस तरह आर्थिक विकास को प्रभावित किए बिना जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचने के निमित्त विभिन्न प्रयत्नों पर जोर दिया जाता है।

कार्बन डाई-आक्साइड के उत्सर्जन और अवशोषण में संतुलन की अवस्था को ही ‘कार्बन न्यूट्रैलिटी’ कहा जाता है। विकासशील और अविकसित देशों के साथ-साथ विकसित देश भी अपनी जिम्मेदारी को समझें, तो जलवायु परिवर्तन का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ने की नौबत ही नहीं आएगी।

पर्यावरण को आर्थिक विकास की प्रक्रिया में हाशिये पर नहीं रखा जा सकता। ‘नेट जीरो’ अवधारणा इस वैचारिकी पर बल देती है कि कार्बन उत्सर्जन और अवशोषण का कार्य साथ-साथ चलता रहे। इन दोनों के संतुलन में ही मानव सभ्यता का मूल टिका हुआ है। हालांकि ‘नेट जीरो’ का लक्ष्य पाना तब तक मुमकिन नहीं होगा, जब तक दुनिया जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल पर रोक, वनोन्मूलन पर पाबंदी और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाती।

जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल को कम करना इस राह में एक बड़ी चुनौती है। कुल ऊर्जा जरूरतों का लगभग अस्सी फीसद हिस्सा जिन जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त होता है, उनके इस्तेमाल की मानवता और पर्यावरण को कई मोर्चों पर भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत हैं।

इन्हें किसी प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया जा सकता। ये समाप्य प्रकृति के होते हैं। इसलिए इनके सीमित उपभोग पर बल दिया जाता है। वर्तमान पीढ़ी अगर संभल कर जीवाश्म ईंधनों का उपभोग नहीं करेगी, तो आने वाली पीढ़ियों की ऊर्जा आवश्यकता भी पूरी नहीं होगी। इस तरह टिकाऊ विकास की अवधारणा भी केवल कागजी रह जाएगी।

जीवाश्म ईंधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों का संकेंद्रण बढ़ जाता है, जो वायुमंडल का औसत तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेवार होती है, जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। कार्बन डाई-आक्साइड के उत्सर्जन में कोयला चालीस फीसद, पेट्रोल और डीजल तैंतीस फीसद और प्राकृतिक गैस बीस फीसद तक कसूरवार है।

जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल से उत्पन्न वायु प्रदूषण से हर साल पच्चीस लाख भारतीयों की मृत्यु होती है। ‘एनवायरमेंटल रिसर्च’ में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक 2018 में जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्पन्न वायु प्रदूषण से सतासी लाख जानें गईं।

जीवाश्म ईंधनों दुनिया में हर पांच में एक मौत की वजह भी है। अच्छी बात है कि कई बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों ने 2030, तो कुछ ने 2040 तक कोयला आधारित परियोजनाओं के लिए वित्तपोषण रोकने की घोषणा की है। जबकि सतहत्तर देशों ने कोयले का उपयोग बंद करने का संकल्प लिया है। वहीं ग्यारह देशों ने ‘बियांड आयल ऐंड गैस अलायंस’ नामक एक नए गठबंधन की घोषणा की है, जिसमें आयरलैंड, फ्रांस, डेनमार्क, कोस्टारिका जैसे देश शामिल हैं। यह गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर तेल और गैस के अन्वेषण और उनके दोहन के अंत के लिए एक समय सीमा का निर्धारण करेगा।
अक्षय ऊर्जा जीवाश्म ईंधनों का सर्वोत्तम विकल्प है।

ऊर्जा के ये स्रोत असमाप्य हैं और पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल भी। सौर, पवन और जल ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों का प्रयोग करना होगा। इससे वायु की गुणवत्ता निखरेगी और धरती पुन: जीने लायक होगी। जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग रोक या सीमित कर खनन आपदाओं में कमी लाई जा सकती है। साथ ही इससे खनन कर्मियों के साथ-साथ आसपास की आबादी भी दूषित आबो-हवा में सांस लेने के अभिशाप से मुक्त हो जाएगी।

जीवाश्म ईंधनों के उत्खनन से भूमि क्षरण, जंगलों की कटाई, जैव-विविधता का ह्रास, प्राकृतिक आपदाओं को आमंत्रण समेत कई पर्यावरणीय समस्याएं जन्म लेती हैं। अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग में ही सुखी भविष्य की भावना अंतर्निहित है।

ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में सौ से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी लगाने का संकल्प लिया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन दशक में एक अरब एकड़ में लगे जंगल नष्ट हो गए हैं। वनों को बचाना इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया में हर मिनट उतने वन काटे जा रहे हैं, जितने वन सताईस फुटबाल के मैदान में हो सकते हैं।

यह प्रकृति और मानव दोनों के लिए गंभीर चिंता की बात है। जंगलों की कटाई पर रोक लगाए तथा जंगल बसाए बिना कार्बन उत्सर्जन के अवशोषण का सपना पूर्ण नहीं हो पाएगा और न ही इससे जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरों से बचाव ही संभव है।

एक अनुमान के मुताबिक एक परिपक्व पेड़ एक साल में औसतन सौ किलोग्राम आक्सीजन प्रदान करता और वातावरण से अड़तालीस पौंड से अधिक कार्बन डाई-आक्साइड अवशोषित कर लेता है। संतुलित पर्यावरण की स्थापना में पेड़-पौधे महती भूमिका निभाते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग से हमारी रक्षा करते हैं। जंगल पर्यावरण से प्रदूषक गैसों जैसे नाइट्रोजन आक्साइड, अमोनिया, सल्फर डाइ-आक्साइड तथा ओजोन को अपने अंदर समाहित कर वातावरण में प्राणवायु छोड़ते हैं।

इसके साथ ही जंगल वर्षा कराने, तापमान को नियंत्रित रखने, मृदा कटाव को रोकने तथा जैव-विविधता का पालन-पोषण करने में भी सहायक हैं। अच्छी बात है कि तीस से ज्यादा वित्तीय संस्थानों ने कहा है कि वे उन कंपनियों में निवेश नहीं करेंगे, जो जंगलों के विनाश में भागीदार हों। अठाईस देश वनों की कटाई से जुड़ी चीजों का आयात बंद करेंगे। अगर हम जंगल बसा नहीं सकते तो उन्हें काटने का भी हमें नैतिक हक नहीं है।