हर वित्त मंत्री यह शेखी बघारता है कि उसकी सरकार की सभी नीतियों और कार्यक्रमों के केंद्र में गरीब तबका है। यह उचित ही लगता है, क्योंकि भारत की आबादी का एक खासा बड़ा हिस्सा है, जो गरीब है। आकलन अलग हो सकते हैं, लेकिन अगर हम सिर्फ कुछ चंद संकेतकों- प्रति व्यक्ति आय, बेरोजगारी, खाद्यान्न उपलब्धता या उपभोग, आवास और स्वच्छता को देखें तो विभिन्न राज्यों में पच्चीस से चालीस फीसद लोग गरीब के रूप में वर्गीकृत किए जा सकते हैं।
महामारी के साल (2020-22), लगातार पीछे पड़ी महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) महंगाई 6.52 फीसद) और बेरोजगारी (शहरी 8.1 फीसद, ग्रामीण 7.6 फीसद) ने स्थिति को बदतर ही बनाया है। साल 2023 की शुरुआत ही मनहूस है। बड़ी कंपनियां हजारों की तादाद में कर्मचारियों की छंटनी कर रही हैं। बेरोजगारी की ऊंची दर धीरे-धीरे शिक्षित मध्यम वर्ग को भी लपेटे में ले रही है।
कौन गरीब है?
भारत में बढ़ती गैरबराबरी ने कई सच्चाइयों को बेपर्दा कर दिया है। आक्सफैम की रपट के अनुसार, भारत के पांच फीसद सबसे रईसों के पास देश की कुल संपदा के साठ फीसद हिस्से पर कब्जा है, जबकि सबसे निचली कतार पर खड़े पचास फीसद लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का महज तीन फीसद है। चैंसेल, पिकेटी व अन्य ने साल 2022 की अपनी गैरबराबरी रिपोर्ट में आकलन किया है कि नीचे के पचास फीसद लोगों की राष्ट्रीय आय में महज तेरह फीसद की हिस्सेदारी है।
शीर्ष के पांच से दस फीसद (सात से चौदह करोड़ लोग) अपनी दौलत का प्रदर्शन करते हैं, खर्च करते हैं और उपभोग करते हैं, जिससे बाजार को ‘चमक’ मिलती है। (भारत में साल 2023 के लिए लैंबोरघिनी की सभी गाड़ियां पहले ही बिक चुकी हैं और कंपनी अब सिर्फ 2024 में आपूर्ति के लिए ही मांग स्वीकार कर रही है। भारत में इस कंपनी का सबसे कम दाम वाला माडल भी सवा तीन करोड़ रुपए का है और यह एक्स-शोरूम कीमत है।) वे धनकुबेर हैं। नीचे के पचास फीसद में गरीब सम्मिलित हैं।
सीएमआइई (‘सेंटर फार मोनिटरिंग इंडियन इकोनोमी’) के अनुसार, भारत में पूरा श्रमिक बल तेंतालीस करोड़ का है। इसमें भी 42.23 फीसद वे हैं जो मौजूदा समय में कार्यरत हैं या नौकरी की तलाश में हैं, जो कि दुनिया में सबसे न्यूनतम में से एक है। देश के 7.8 फीसद घरों (मोटे तौर पर 2.1 करोड़ परिवार) में कमाने वाला एक भी सदस्य नहीं है। तीस फीसद रोजगारशुदा (मोटे तौर पर तेरह करोड़) दिहाड़ी मजदूर हैं। इन घरों का आमतौर पर या औसतन घरेलू खर्च ग्यारह हजार रुपए हैं। ये गरीब घर हैं।
सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे- पांच से उजागर हुआ है कि पंद्रह से उनचास साल की महिलाओं की आधी से ज्यादा आबादी (सत्तावन फीसद) रक्ताल्पता की शिकार हैं। छह से तेईस माह के बच्चों में सिर्फ 11.3 फीसद को ही पर्याप्त पोषक आहार मिल रहा है। इनमें भी सामान्य से कम वजन वाले बच्चों का अनुपात ( 32.1 फीसद), अविकसित या कमजोर बच्चे (35.5), कृषकाय (19.3) और गंभीर रूप से कृषकाय बच्चों का अनुपात 7.7 फीसद है जो खतरनाक हद तक ऊंचा है। इन वर्गों को भरपेट खाना भी नहीं मिलता। वे गरीब हैं।
गरीबों को सजा देता बजट
अब 2023-24 का बजट बनाने वाले लोगों से पूछें कि उन्होंने गरीबों के लिए क्या किया है, सबसे निचली कतार में खड़ी पचास फीसद आबादी के लिए क्या किया है, बेरोजगारों के लिए क्या किया है और उनके लिए क्या किया है जिन्हें भरपेट दो जून की रोटी भी नहीं मिलती। जवाब बजट के दस्तावेज में दी गई संख्याओं में हैं। कुछ नमूने :
बजट के मुख्य बुनियादी शीर्षकों में, जिनमें गरीबों के लिए रोजगार सृजित किए जा सकते थे और साथ ही जिनसे उन्हें राहत पहुंचाई जा सकती थी, 2022-23 के दौरान आबंटित धनराशि खर्च नहीं हो पाई: (तालिका 1)

साल के शुरू में आबंटित की गई धनराशि अप्रासंगिक है, अगर साल के अंत तक खर्च की गई धनराशि आबंटित राशि से काफी कम है। गरीबों को चूना लगाया गया है। आगे अगर देखें तो साल 2023-24 में भी इस रवैए में बदलाव के कोई सबूत नहीं हैं: (तालिका 2)

पेट पर चोट
यह है कि अगर आबंटित धनराशि खर्च की जाएगी, तभी रोजगार सृजित होंगे और कल्याणकारी फायदे फलीभूत होंगे। इसके अलावा, कोई भी आबंटित धनराशि जो दिखने में पिछली बार आबंटित राशि से अधिक प्रतीत होती है, को मुद्रास्फीति दरों के साथ समायोजित करना पड़ता है।
फिर कई मामलों में पाया गया है कि आबंटित राशि वास्तव में कम है। उन सारे कार्यक्रमों, जिनसे गरीबों को सीधे फायदा होता है, को कम राशि में मिली है और अगर इसे मुद्रास्फीति की दर से समायोजित किया जाए तो यह और कम निकलेगी। इसमें और भी जोड़ लें। जीएसटी में कोई कटौती नहीं की गई है (इसके जरिए इकट्ठा हुई संपूर्ण राशि का चौंसठ फीसद हिस्सा निचले तबके के पचास फीसद लोगों की जेब से आता है)।
करों में भी कोई कटौती नहीं है और न तो पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस में। ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री आश्चर्यजनक रूप से महामारी के बाद गरीबी, असमानता, बेरोजगारी, छंटनी, कुपोषण, अविकसित और गंभीर रूप से अविकसित बच्चों की तादाद में बढ़ोतरी से बेखबर हैं।
क्या कोई अचरज की बात है कि वित्त मंत्री ने नब्बे मिनट के भाषण में सिर्फ दो बार ‘गरीब’ का जिक्र किया? एक तमिल कहावत सबसे बढ़िया तरीके से इस बजट को चित्रित करती है : इसने गरीबों के पेट पर लात मारा है।