किससे मिलना है? मन बार-बार पूछता है। कहीं भी जाने से पहले वह पूछ बैठता है। यह प्रश्न मुझे बेहद नागवार लगता है। कहीं जाते वक्त यह टोका-टोकी बड़ी अप्रीतिकर लगती है। जी बैठ जाता है। उमंग ठंडी पड़ जाती है। भीतर से उठता हुआ उद्रेक का प्रवाह मंद पड़ जाता है। उत्कंठा के खिलते फूल, मरुआ जाते हैं। मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। पहले मैं विश्वास के विरुद्ध उगने वाले संदेहों को डपट दिया करता था। आत्मीयता की संधियों में जड़ फेंकती आशंकाओं को चुटकी भर जोर लगा कर उच्छिन्न कर दिया करता था। अब भी चाहता हूं। मगर अब उनको मुझसे डर नहीं है। अब मैं ही डर जाता हूं। रुकता तो नहीं। रुक तो नहीं पाता। मगर विचलित जरूर हो जाता हूं। तो क्या मैं पहले से कमजोर हो गया हूं। डरपोक हो गया हूं? नहीं, यह सच नहीं है। ऐसा सोचना सही सोचना नहीं है। संसार में केवल मैं जो सोचता हूं, वही संपूर्ण नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह भी जानना जरूरी है। जीवन केवल वैयक्तिक सत्ता नहीं है। वह सामूहिक सत्ता से संयुक्त होकर ही संपूर्ण बनता है। अपनी सोच और सामूहिक सोच के अंतर्सम्बंधों का संतुलन ही जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। इनके बीच वितुलन ही विसंगति पैदा करता है, जीवन में भी और समाज में भी। इसी से तनाव पैदा होता है। विषाद पैदा होता है। इसी से विषमता का विस्तार होता है। खैर, छोड़िए।
बहुत बार ऐसा हो चुका है कि मैं किसी मित्र से मिलने बहुत दूर चल कर हास-हुलास से पहुंचा हूं, मगर वहां मित्र के वेश में बैठे किसी अधिकारी से मिल कर भकुआ गया हूं। किसी मित्र के यहां जाकर मित्र के भीतर बैठे किसी भयंकर विद्वान की गरिमा से मिल कर सियरा-सकता गया हूं। किसी मित्र से मिलने जाकर उसकी कामयाबियों के ऐश्वर्य की धाक से मिल कर मुरझा गया हूं। किसी रिश्तेदार से मिलने जाकर उसके बड़प्पन और उसकी समृद्धि से टकरा कर लहूलुहान हो गया हूं। यह सब आकस्मिक नहीं है। आकस्मिक तौर पर ऐसा घटित हो जाय तो कोई बात नहीं। दुर्घटनाएं तो किसी भी मार्ग पर किसी भी यात्रा में कभी-कभी हो जाती हैं। आदमी उन्हें भूल ही जाता है। मगर हर यात्रा ही दुर्घटनापूर्ण होने लगे तो उसके प्रयोजन पर पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। उसकी परिणतियों और परिलब्धियों का विवेचन आवश्यक लगने लगता है।

ऐसा क्यों है कि प्राय: हम मिलने किसी दूसरे से जाते हैं और मिल कोई दूसरा जाता है। बड़ा आश्चर्यजनक है। मगर ऐसा है। क्या हमारे समय में एक आदमी के भीतर कई-कई आदमी बैठे हैं? क्या हमारे वक्त में एक आदमी की शक्ल के अंदर कई-कई शख्सियत छिपी बैठी है? यह तो बड़ा धोखा है। छल है। षड्यंत्र है। इससे बच पाना, बचे रह पाना बड़ा कठिन है। कठिन ही नहीं है, असंभव है। क्या हमारे समय में हर आदमी शिकारी है? कितना बेधक है आदमी का शिकारी बन जाना। हरे-हरे पत्तों की आड़ में, सम्मोहक और खुशबूदार फूलों की ओट में शस्त्र छिपा कर अपने स्वार्थ के लिए आदमियों को शिकार बनाना कितना गर्हित है। कितना लज्जाजनक है। आदमी के लिए आदमी की पहचान के सारे उपादानों को विनष्ट कर देना कितना बड़ा अपराध है। हमारा समूचा समय ही अपराधी की तरह सीना फुला कर विद्रूप अट्टहास में मगन है। बड़ी मुश्किल है। किसी को भी पहचान पाना किसी के भी वश में नहीं रह गया है। बड़ा घालमेल है। बड़ी मिलावट है। सारा बाजार मिलावटी और नकली माल से भरा हुआ है। समूचा समाज, समूची समाज-व्यवस्था मिलावटी चरित नायकों के कारनामों की अनुगत हो चली है। कुछ भी तय कर पाना मुमकिन नहीं रह गया है। क्या ठीक है, क्या गलत है, निश्चय कर पाना बेहद मुश्किल सवाल बन गया है। एक ही चीज एक तरफ से सही है, दूसरी तरफ से गलत है। एक ही काम एक के लिए सही है, दूसरे के लिए गलत है। एक ही आदमी आधा मित्र है, आधा शत्रु है। एक ही आदमी मित्र भी है, शत्रु भी है। एक समय में एक ही आदमी का मित्र हो जाना और एक समय में शत्रु हो जाना कितने असमंजस में डाल देता है। न प्यार करना संभव हो पा रहा है, न घृणा करना ही।

अपना रिश्तेदार, रिश्तेदार है। मगर अपने से बड़ा वह देखना नहीं चाहता। अपने से छोटा देख कर वह रिश्तेदार बने रहने को राजी है। अपने से बड़ा होने की आशंका से वह बिदक जाने को विकल है। अपने बड़प्पन का भूत हर आदमी के सिर चढ़ा है। कोई कहीं भी जा रहा है, अपने को छोड़ कर जा रहा है। अपनी समृद्धि को लेकर जा रहा है। अपने वैभव को लेकर जा रहा है। अपनी गाड़ी, अपना ठाट-बाट, अपने गुमान की पूरी धौंस, जहां जा रहा है, अपने से पहले पहुंचा दे रहा है। आदमी इन सबके पीछे है। ओफ्फ, आदमी कितना निरीह हो गया है! कितना तुच्छ, कितना नगण्य! वस्तुओं की, सामग्रियों की भीड़-भाड़ में, रोब-दाब में आदमी कितना नि:शक्त है! फिर भी, इन सबको ही वह अपनी पहचान बनाने को बेताब है। जिसके यहां आदमी जा रहा है, वह भी उससे कम नहीं है। वह भी आपका आतिथ्य नहीं कर रहा है। वह आतिथ्य कर रहा है, अपनी मर्यादा का। परोस रहा है, अपना गौरव।
हमारा रिश्ता, हमारी आत्मीयता, हमारी मित्रता, हमारा पड़ोस, हमारा राष्ट्रधर्म सब कुछ कितना विद्रूप है। हमारा व्यवहार, हमारी सोच, हमारी भाषा कितनी वंचक है। हमारे समय में कहीं भी किसी भी घर में चेहरा देखने के लिए कोई दर्पण नहीं बचा है। जो भी, जहां भी आईना है, केवल ‘मेकअप’ देखने के लिए है। अब चेहरा कहीं नहीं है। चेहरे पर ‘मेकअप’ हर कहीं है।

सचाई कहीं नहीं है, झूठ हर कहीं है। ईमानदारी कहीं नहीं है, दिखावा हर कहीं है। बाहर भी। भीतर भी। व्यवस्था में भी। व्यक्ति में भी। आपसी संबंधों में भी है। सामाजिक सरोकारों में भी। वैयक्तिक स्वतंत्रता व्यक्ति का एकमात्र लक्ष्य रह गया है। वैयक्तिक उन्नति व्यक्ति का एकमात्र प्राप्य। हमारे समय में व्यक्ति समाज और राष्ट्र से एकदम असंबद्ध है। ऐसा क्यों है?
जब हम स्वाधीनता के लिए लड़ रहे थे, हमने दो बहुत बड़े मूल्य उपलब्ध किये थे। उसमें एक था, राष्ट्रदेवता का बोध। राष्ट्रबोध की उपासना। दूसरा था सामूहिक अस्तित्व का अभिज्ञान। पारस्परिक एकता की अभ्यर्थना। कितना आश्चर्यजनक है और उससे भी अधिक लज्जाजनक कि हम स्वतंत्रता पाने के बाद स्वराज में अपने दोनों महनीय मूल्यों से विच्युत हो गए। हमारी यह विच्युति ही हमारी राष्ट्रीय विडंबना की मूल है। मगर यह हमारी चिंता के केंद्र में कतई नहीं है!