क्षमा शर्मा
आज स्त्री-विमर्श इस ग्रंथि का शिकार हो चला है कि जो कुछ हमने कह दिया बस वही सही है। किसी और की बात न तो सुनी जाएगी, बल्कि अपने से इतर राय रखने वाले को महिला-विरोधी होने का तमगा भी मिलेगा। उसकी चारों ओर थू थू होगी।
हाल ही में शरद यादव के बयान को लें। अतीत में जब महिला आरक्षण पर बहस चल रही थी तो शरद यादव ने प्रमिला दंडवते की तरफ इंगित करते हुए कहा था कि ये परकटी औरतें गांव की औरतों के बारे में क्या जानती हैं। आज भी इस बात पर उनकी काफी आलोचना होती है, जो सही भी है। मगर हाल ही में राज्यसभा में एफडीआइ पर बहस के दौरान उन्होंने पश्चिम और पूरब का तर्क रखा था। वे कहना चाहते थे कि पश्चिम से जो भी विचार आता है उसे हम अपनी परिस्थिति को बिना सोचे-समझे लपक लेते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने उडविन का उदाहरण दिया, जिन्होंने निर्भया मामले पर इंडियाज डॉटर नाम से फिल्म बनाई थी। उनका कहना था कि उडविन को गोरी (पश्चिमी) होने के नाते आरोपी मुकेश सिंह के इंटरव्यू की इजाजत मिल गई। कोई सांवली (पूरब की) होती तो उसे यह इजाजत न मिलती।
इसी संदर्भ में वे बोले कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत की महिलाएं अधिक सुंदर होती हैं। वे नृत्य भी जानती हैं। जबकि उत्तर भारत में लड़कियों को नृत्य नहीं सिखाया जाता। उनकी यह बात एकदम सही है। उत्तर भारत में तो एक समय तक लड़कियों के नृत्य सीखने को उनका बिगड़ना माना जाता था। आज भले हम इसे न मानें, पर यह बात सच है। हालांकि दक्षिण भारतीय औरतों का वर्णन करते हुए उनके इशारे सहज नहीं थे, मगर उनकी बातों से यह अर्थ निकालना कि वे औरतों पर ‘सैक्सिस्ट कमेंट’ कर रहे थे, बेहद अनुचित है।
आखिर सैक्सिस्ट कमेंट की क्या परिभाषा है? आजकल मेट्रो में या कहीं और अगर आप लड़कियों की बातें सुनें तो वे उसी तरह की मां-बहन की गालियां धाराप्रवाह देती हैं, जैसा कुछ पुरुष देते देखे जाते हैं। चूंकि इन गालियों में स्त्रियों का खासा अपमान छिपा रहता है, इसलिए स्त्री विमर्श ने हमेशा इसकी निंदा की है। लेकिन अगर वे ही गालियां लड़कियां और स्त्रियां दे रही हैं, तो उनकी भी निंदा की जानी चाहिए। अगर पुरुष का गाली देना बुरा है, तो लड़कियों का गाली देना किस तरह से प्रगतिशील माना जा सकता है। अगर पुरुष का स्त्री को पीटना बुरा है, तो स्त्री का पुरुष को पीटना भी उतना ही गलत है। इस पीटने को कई लोग औरत के लक्ष्मीबाई होने और हालिया रिलीज फिल्म मरदानी से जोड़ते हैं।
यह बात सही है कि औरत की त्वचा के रंग से उसे ज्यादा या कमतर इनसान नहीं माना जा सकता। मगर समाज में क्या हालत है? एक मित्र की दो लड़कियों की शादी सिर्फ इसलिए नहीं हो पाई कि वे सांवली थीं।
शरद यादव ने सांवली होने को औरत का अवगुण या कमजोरी तो नहीं माना। उन्होंने तो यही कहा कि दुनिया में सांवली औरतों की संख्या ज्यादा है। और सांवला होना बुरा नहीं है। क्या स्मृति ईरानी और उनकी ही तरह दूरदर्शन पर शोर मचाने वाली अन्य स्त्रियां बताएंगी कि अखबारों, पत्रिकाओं, विभिन्न साइटों, टीवी के तमाम चैनलों पर रात-दिन गोरा बनाने वाले तरह-तरह के साबुन-क्रीम क्यों बिकते हैं? उन्हें स्वनामधन्य अभिनेत्रियां और मॉडल ही बेचती हैं। उन विज्ञापनों में त्वचा पर टिप्पणी करने और सांवले को गोरे के मुकाबले हीन बताने के अलावा और क्या होता है?
इन दिनों भी विद्या बालन का एक विज्ञापन आता है, जिसमें उसके गाल छूकर- मक्खन है यार, कहा जाता है और वह धन्य हो जाती हैं। स्मृति ईरानी को चाहिए कि दूरदर्शन और अखबारों में छाए इन विज्ञापनों को वे सूचना प्रसारण मंत्रालय से बंद कराएं। यही नहीं, उन ब्यूटी पार्लरों पर भी लगाम लगवाएं, जो औरतों को सिर्फ और सिर्फ सुंदर बनने और दिखने का पाठ पढ़ाते हैं। इस सुंदर दिखने में गोरेपन की अहम भूमिका होती है। कास्मेटिक इंडस्ट्री का पूरा जोर संसार की हर लड़की को गोरी और सैक्सी बनाने पर है। गोरा बनाने के लिए इतने किस्म की क्रीम ईजाद की गई हैं! क्या आपने कभी ऐसी किसी क्रीम के बारे में सुना है, जो गोरे को काला बनाती हो और जिसकी बाजार में भारी मांग हो। व्यापार कहां पहुंच गया है, जो समाज में फैले मिथ और भ्रमों को तोड़ता नहीं है, बल्कि उन्हें और मजबूती प्रदान कर अपनी तिजोरियां भरता है।
ए ऐंड एम नाम की पत्रिका ने सालों पहले एक सर्वेक्षण किया था, जिसमें बताया गया था कि गोरेपन की क्रीमों की सबसे अधिक मांग दक्षिण भारत में है। वहां सिर्फ औरतें नहीं, पुरुष भी बड़ी संख्या में इन्हें खरीदते हैं। यही नहीं, त्वचा को ब्लीच करने का जोर भी भारत में बहुत है, जिससे आपके चेहरे का असली रंग न दिख सके। ब्लीच के बारे में बहुत-से त्वचा विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका प्रयोग त्वचा के लिए बेहद हानिकारक है। मगर कौन सुनता है! जब कोई नुकसान होगा तब देखा जाएगा। पहले गोरा दिख कर सांवले के मुकाबले संसार के श्रेष्ठ नागरिक तो कहलाएं।
दरअसल, हमारे समाज में भेड़चाल की अद्भुत परंपरा है। अंगरेजों ने हम पर लंबे समय तक राज किया। जैसा राजा वैसी प्रजा। अंगरेज गोरे होते थे। भारतीय लोग उनकी औरतों को मेम पुकारते थे और अपनी लड़कियों को मेम की तरह गोरी कहने में गौरव का अनुभव करते थे। राजा जैसा बन न सकें उसकी नकल तो कर ही सकते हैं। उस जैसे दिख तो सकते हैं। गोरेपन के प्रति यह आकर्षण उसी औपनिवेशिक सोच का नमूना है, जहां गोरे होते ही आप दूसरों के मुकाबले श्रेष्ठ हो जाते हैं। सांवली लड़की के मुकाबले गोरी लड़की की विवाह के बाजार में भारी मांग होती है। किसी गोरी लड़की की शादी तो सांवले लड़के से हो सकती है, मगर गोरे लड़के से सांवली लड़की की शादी होना असंभव-सा है, कुछ अपवादों को छोड़ कर।
विश्वास न हो तो अखबारों में लाखों की संख्या में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों पर नजर डाली जा सकती है। यहां शायद ही किसी विज्ञापन में किसी ने सांवली लड़की की मांग की हो। जो चाहता है वह फेयर यानी कि गोरी लड़की चाहता है। दरअसल हम गोरे रंग से इतने प्रभावित हैं कि उसके अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता।
यही नहीं, स्त्रियों के लिए इन दिनों सौंदर्य के कुछ नए मानक भी रच दिए गए हैं। इन मानकों ने लड़कियों के दिल में गहराई से जगह बना ली है और गांव-गांव तक जा पहुंचे हैं। जैसे कि मोटी के मुकाबले पतली लड़की ज्यादा आकर्षक होती है। ठिगनी के मुकाबले लंबी लड़की ज्यादा प्रभावित करती है। मातृभाषा के मुकाबले अंगरेजी बोलने वाली लड़की नौकरी और जीवन के अन्य क्षेत्रों में प्राथमिकता पाती है। जो लड़कियां ऐसी नहीं हैं, वे दोयम दर्जे की तो क्या, जेड ग्रेड की नागरिक भी नहीं हैं। ध्यान से देखें तो ये सभी मानक पश्चिम ने ही हमें सौंपे हैं। पहले वे बॉलीवुड तक आए। फिर अपने इन रोल मॉडल्स से होते हुए आम लड़की तक जा पहुंचे। करीना कपूर को देख कर हर लड़की अगर जीरो साइज बनाने की सोचती है, तो इससे तमाम तरह के व्यापार, जिनमें कास्मेटिक इंडस्ट्री, पार्लर्स, हैल्थ क्लब्स, जिम से लेकर क्रेश डाइट तक के कोर्स का फायदा होता है। लड़की के स्वास्थ्य का क्या होता है, यह वह जाने।
महिलाओं के अधिकारों पर हल्ला मचाने वाले आखिर इन बातों के खिलाफ कोई मोर्चा क्यों नहीं निकालते!
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