सय्यद मुबीन ज़ेहरा
पिछले सप्ताह से इस खबर को पढ़ कर बेचैन हूं कि मिस्र में एक महिला को अपना घर चलाने के लिए वर्षों पुरुष बन कर रहना पड़ा। तैंतालीस वर्ष तक। अब मिस्र में इस महिला को बहुत मान-सम्मान दिया जा रहा है, लेकिन यह पूरी कहानी मिस्र के समाज की खोखली मानसिकता को भी दर्शाती है कि जहां एक अकेली महिला तभी अकेले जीवित रह सकती है और अपने परिवार का ध्यान रख सकती है, जब वह पुरुषों जैसी बन जाए। सवाल यह भी है कि जब एक महिला अपने सजने-संवरने के शौक छोड़ कर मर्द बन जाती होगी, तब उस पर क्या बीतती होगी? यह इस बात का सबूत भी है कि अगर कोई औरत कर्तव्य पालन की भावना के साथ जीना चाहे तो समाज के सभी ढकोसलों, रस्म-रिवाजों को किनारे करते हुए वह अपना अलग रास्ता भी बना सकती है। मिस्र की यह गरीब औरत, जिसका नाम खबरों में सीसा जाबिर बताया गया है, चालीस साल से अधिक समय तक अपनी रोजी कमाने के लिए पुरुष के भेष में काम करती रही। उसकी आयु अब पैंसठ वर्ष के करीब है। इक्कीस साल की उम्र में पति की मृत्यु के बाद उसने अपनी अकेली संतान की खातिर पुरुषों की तरह जीवन जीने का निर्णय किया था।
आज से चालीस साल पहले का मिस्री समाज कितना रूढ़िवादी और पुरुषों पर पूरी तरह निर्भर रहा होगा! ऐसे समाज में गरीब वर्ग की एक गर्भवती महिला अपने जीवन को लेकर कितने संघर्ष और मानसिक पीड़ा से गुजरी होगी। उसका संबंध जिस समाज से था, वहां निश्चित रूप से महिलाओं के काम करने को लेकर जरूर ऐसा सोच रहा होगा, जिसकी वजह से सीसा जाबिर को पुरुषों का रूप अपनाना पड़ा। अचंभे की बात है कि जिस इस्लाम में विधवा, मजबूर, लाचार और अनाथों के अधिकार की बात कही गई है उसी धर्म को मानने वालों के बीच एक महिला को घर-गृहस्थी चलाने के लिए कोई सहानुभूतिपूर्वक आगे क्यों नहीं आया।
ऐसा ही सवाल तब भी उठा था जब अफगानिस्तान में तालिबान ने महिलाओं को घर में बंद रखने का आदेश दिया था। तब भी सवाल यही था कि वे महिलाएं, जिनके घर में कोई आदमी नहीं बचा है, अपने जीवन को कैसे आगे बढ़ाएंगी। उनका ध्यान कौन रखेगा। इस विषय पर एक फिल्म भी बनी थी, जिसमें एक बच्ची लड़कों के कपड़ों में अपने पिता के जानकार की दुकान पर काम करती है, ताकि अपने और अपने परिवार के लिए दुकान से प्रतिदिन कुछ रोटी ले आया करे। सीसा जाबिर की हकीकत भी किसी फिल्मी कहानी की तरह ही हमारे सामने आती है।
ऐसा नहीं कि सीसा जाबिर ने पुरुष बन कर किसी कार्यालय में काम किया, जहां आराम से कागजों में सिर खपा कर वेतन मिल जाता, बल्कि उसने जो भी काम किया उसमें पुरुषों जैसी शक्ति और क्षमता की जरूरत पड़ती है। उसने कभी र्इंट भट्ठों पर काम किया, कभी खेतों में मजदूरी की, कभी सिर पर मलबा ढोया और कभी सड़कों पर लोगों के जूते पॉलिश किए। सवाल है कि घर चलाने और अपनी बेटी के लालन-पालन के लिए क्या वह यही सब काम एक महिला के नाते नहीं कर सकती थी? क्या जरूरत थी उसे तैंतालीस वर्ष तक पुरुषों जैसी बन कर रहने की।
सबसे बड़ी समस्या तो निश्चित रूप से उसके लिए यही रही होगी कि कम उम्र में विधवा हो जाने के कारण मर्दों की बुरी नजर उसकी ओर उठती रही होगी। कुछ लोग मदद के नाम पर उसका शोषण भी करना चाहते रहे होंगे। इसके अलावा अगर वह महिला होकर काम करती तो समाज उसकी आलोचना भी करता। वाह रे समाज, सहायता को तो आगे आ नहीं सकता, लेकिन सामाजिक रस्मों के नाम पर निशाना बनाने में इसका जवाब नहीं है। मिस्र के राष्ट्रपति ने सीसा जाबिर को सम्मानित किया है, लेकिन अब सम्मान देकर क्या उसके वे चालीस साल वापस मिल सकते हैं, जो औरत होते हुए भी उसे पुरुषों की तरह बिताने पड़े। इस सम्मान से अधिक जरूरी है कि ऐसे समाज के गठन के लिए सरकार कुछ करे, जिससे मिस्र में अब किसी सीसा जाबिर को फिर आदमी बन कर न रहना पड़े।
क्या ऐसा समाज हमारे यहां भी है? सच तो यह है कि महिलाओं को लेकर हर समाज में इसी प्रकार का सोच दिखता है। मगर हमारे यहां हालात इतने खराब नहीं हैं। वैसे हर समाज में सीसा जाबिर जैसी अकेली महिलाओं के सामने यह सवाल जरूर आता होगा कि पुरुषों के समाज में अकेले कैसे अपनी और अपने परिवार की गाड़ी खींची जाए। ऐसे में उनके दिल से आह निकलती होगी कि काश मैं मर्द होती, तो यह सब सहन नहीं करना पड़ता। हो सकता है, ऐसे ही किसी क्षण में इस महिला ने पुरुष बनने का फैसला किया होगा। अपनी इकलौती लड़की के लिए इस मां ने जो त्याग किया उसकी जितनी सराहना की जाए वह कम है। मगर जितनी सराहना इस मां की करें उतनी ही निंदा उस ‘सभ्य’ समाज की भी करनी होगी, जिसमें रहते हुए एक महिला खुद को इतना बेबस महसूस करती है कि अपनी पहचान ही बदल देती है।
यह औरत दुनिया भर की महिलाओं के लिए साहस और हौसले की मिसाल बन गई है। औरत हर समाज में शोषण का शिकार है। वह केवल अफगानिस्तान या अरब नहीं, बल्कि हमारे देश और खुद को विकसित कहने वाले देशों में भी स्त्री का किसी न किसी रूप में शोषण होता रहता है। कुछ देशों में कहने को उसे स्वतंत्रता मिली है, लेकिन वह पुरुषों की शर्तों पर है। मगर अब महिलाएं अपनी हिम्मत और हौसले से उन दीवारों को तोड़ रही हैं, जो पुरुषों के समाज ने अपने वर्चस्व के लिए उसके चारों ओर बना रखी हैं।
पिछले दिनों चेन्नई के पास बारहवीं कक्षा की एक बच्ची तीस फुट गहरे कुएं में गिर गई। उसकी चीख-पुकार सुन कर जब उसे बाहर निकाला गया तो वह बेहोश हो चुकी थी। काफी चोट लगी थी, लेकिन होश में आते ही उसे अपनी बोर्ड परीक्षा की याद आई। उसी दिन उसका रसायन शास्त्र का परचा था। वह उसी घायल स्थिति में परीक्षा देने गई। इस बच्ची ने अपनी पढ़ाई को लेकर जो जुनून जाहिर किया उसमें न केवल उसका हौसला झलकता, बल्कि यह भी दिखाई देता है कि शिक्षा कितनी महत्त्वपूर्ण है। संभव है कि सीसा जाबिर अगर शिक्षित होती तो उसका जीवन ऐसा न होता। यह बताता है कि महिलाओं के लिए शिक्षा कितनी जरूरी है। आप पढ़-लिख कर नौकरी ही करें, जरूरी नहीं, मगर कठिन परिस्थितियों में शिक्षा सबसे बड़ा सहारा हो सकती है।
सीसा जाबिर की हिम्मत और हौसले को सलाम करना होगा कि उसने उस मिस्री समाज में संघर्ष करते हुए पुरुषों की तरह जीवन बिताया, जहां आज भी महिलाओं को विभिन्न धार्मिक रस्मों के नाम पर दबाया जाता है। लेकिन प्रश्न है कि कोई समाज अगर महिला को मर्द बन कर काम करने पर स्वीकार लेता है, तो उसके स्त्री बनी रह कर काम करने पर उसे क्या शिकायत हो जाती है? न केवल मिस्र, बल्कि पूरी दुनिया के पुरुष समाज को इस सवाल का जवाब खोजना होगा।
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