पुरुष की आत्मकथाओं में अपने व्यक्तित्व के समन्वय और एकान्विति की दिशा में विकसित करने का उद्यम दिखाई देता है। स्त्री की आत्मकथाओं का सामान्य निष्कर्ष यह है कि स्वयं को पाने की तलाश में वह स्वयं को खो बैठती है। उसका अपने आपे की तलाश में निकलना दरअसल, असंभव की तलाश में निकलना है। 

लिखने का मतलब दर्ज होना है और दर्ज होने का मतलब इतिहास में दाखिल होना। यानी अपने वजूद की निशानदेही। हाशिए के लोगों के लिए खासतौर से यह सदी विगत इतिहास में अपने वजूद की तलाश का उपक्रम है और समसामयिक संसार में अपने इतिहास का सूत्रपात भी। इसके लिए आत्मकथा महत्त्वपूर्ण विधा है। आत्मकथा एक ऐसी कहानी है, जो हर किसी के पास होती है और जिसे हर कोई सुना सकता है। अपनी इसी सहजता की वजह से आत्मकथा विमर्श के लिए महत्त्वपूर्ण है। स्त्री-विमर्श के लिए भी। आत्मकथा भुक्तभोगी का बयान है, इसलिए वहां सामाजिक, पारिवारिक, सांस्थानिक, पारंपरिक अन्यायों की ठोस शिनाख्त संभव होती है। वहां सचमुच का जीता-जागता हाड़-मांस का वह आदमी (या औरत) मिलेगा (या मिलेगी) जिसके लिए अन्याय के प्रतिकार, मानवमूल्य, मानवाधिकार सामाजिक न्याय की नीतियों और कार्यक्रमों का सरंजाम है। आत्मकथा-लेखन विमर्श की रणनीति का जरूरी कार्यक्रम है। अभी यह शुरुआत है। स्त्री की आत्मकथाएं गिनती में कम हैं और इसके बढ़ने की रफ्तार भी बहुत धीमी है। हिंदी की अधिकतर आत्मकथाएं जानी-मानी लेखिकाओं की हैं। ‘अन्या से अनन्या’ (प्रभा खेतान) ‘एक कहानी यह भी’ (मन्नू भंडारी) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (कृष्णा अग्नहोत्री) ‘जो कहा नहीं गया’ (कुसुम अंसल) ‘हादसे’ और ‘आपहुदरी’ (रमणिका गुप्ता) ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ (मैत्रेयी पुष्पा), और एकाध शायद, जो याद आने से रह गई हो।

स्त्री की आत्मकथाओं में कथ्य के स्तर पर कोई न कोई विकट संघात उपस्थित होता है, जिसके असर में वह टूटती, जूझती, निकलती या डूबती दिखाई देती है। स्त्री के जीवन में ऐसे अनुभवों का फैलाव अपरिमित है, जिन्हें संघात की कोटि में रखा जाए। नितांत निजी घरेलू रिश्ते, विशाल पैमाने की प्रायोजित सामाजिक-राजनीतिक हिंसा मानवाधिकार हनन- जहां देखो तहां कोई विभीषिका सामने मौजूद मिलेगी। स्त्री की देह को अगर हिंसा और रक्तपात का प्राथमिक दुर्घटनास्थल कहा गया है, तो अकारण नहीं। घर से लेकर सड़क तक हादसे हर जगह इंतजार में हैं- घरेलू हिंसा, बलात्कार, छलात्कार, इनसेस्ट, दंगा, लड़ाई, युद्ध, बाल-यौनशोषण। यौन-शुचिता की संस्कृति वाले हमारे समाज में अपने घावों पर लज्जित मौन की विवशता ऊपर से! जोर-जबर्दस्ती के हादसों में तो शायद फिर भी कहीं किसी करुणा और सहानुभूति की गुंजाइश की उम्मीद की जा सकती हो। अगर कहीं वह आकांक्षा या प्रेम के पीछे चल निकलने में धोखा खा गई हो तो दंड अनिवार्य होगा, औचित्यपूर्ण मान लिया जाएगा और किसी भी हद तक ले जाया जाएगा।
समाज इस किस्म के संघात के प्रसंगों में स्त्री से चुप्पी की अपेक्षा रखता है। बल्कि अभी कुछ समय पहले तक उसी पर निर्भर भी रहता आया है। संघात स्त्री के आत्मन् को चकनाचूर कर देने वाला ऐसा विकराल अनुभव है, जो उसके लिए निजी स्तर पर उस अनुभव के वृत्तांत और भाषा को असंभव बना देता है। कहने की असंभवता के कारण तो वह ‘अकथनीय’ है ही, स्त्री की समूची जिंदगी को यौनशुचिता के तराजू पर तोलने वाले समाज की संस्कृति के नियामक विमर्शों के दबाव में भी वह अकथनीय है।

जाहिर है, आत्मकथा अकेले की कथा नहीं होती। उसमें उल्लिखित और चित्रित हर तथ्य और घटना में स्त्री के अलावा अन्य अनेक भी शामिल होते हैं। उन तथ्यों का सत्य उनमें से किसी के लिए असुविधाजनक और बाधक भी साबित होता ही होगा। कोई स्त्री अगर सच कहने का फैसला कर ही बैठी हो तो खतरा केवल उसके अपने आपे तक के लिए नहीं होता। उसके सच को संदिग्ध/ दंडनीय/ निरस्तित्व बनाना पितृसत्ता की सबसे आसान रणनीति है। तसलीमा नसरीन ने अपनी आत्मकथाओं के जो नतीजे भुगते हैं वे साहित्यजगत की स्त्री-आबादी में जल्दी भुलाए नहीं जा सकते। लेकिन फिर भी आत्मकथा में अपने भय और आशंका को अभिव्यक्त करने के बावजूद, स्त्री एक सुखद आश्चर्य की तरह निडर उपस्थित नजर आती है, निषेधों और वर्जनाओं के उल्लंघन का बयान करने की बहादुरी से लैस। उसकी आत्मकथा का दूसरा उद्देश्य सजग सचेत भाव से स्वयं अपने आत्मन् की रचना में सक्रिय होना है। बल्कि कहना यह चाहिए कि चुप्पी तोड़ने के अभियान में यह निर्मिति भी निहित होती है, क्योंकि अपनी कहानी कहने के क्रम में वह अपने प्रति सचेत भी हो उठती है। उल्लिखित सभी आत्मकथाओं में इसका साक्ष्य मिलेगा।

स्त्री और पुरुष के जीवन की भौतिक वास्तविकताओं पर नजर रखते हुए आत्मकथाओं के माध्यम से स्त्री-आत्मन् और पुरुष-आत्मन् की निर्मिति और अभिव्यक्ति की तुलना की जा सकती है। पितृसत्ता में पुरुषों को अपनी अस्मिता की उपलब्धि के लिए संघर्ष की इजाजत है, जबकि स्त्रियों पर उनकी अस्मिता लाद दी जाती है। पुरुष के पास अवसर है कि वह जो बनना चाहता है, बने, जबकि स्त्री को पहले ही बता दिया जाता है कि वह क्या है। बने बनाए रिश्तों के ताने-बाने और भूमिकाओं के भीतर ही उसे अपने आपे को पाना और बताना है। पुरुष की आत्मकथाओं में अपने व्यक्तित्व के समन्वय और एकान्विति की दिशा में विकसित करने का उद्यम दिखाई देता है। स्त्री की आत्मकथाओं का सामान्य निष्कर्ष यह है कि स्वयं को पाने की तलाश में वह स्वयं को खो बैठती है। उसका अपने आपे की तलाश में निकलना दरअसल, असंभव की तलाश में निकलना है। इसकी एक वजह है। स्त्री का आत्मन् या तो आबद्ध-स्वत्व होता है या फिर संबद्ध-स्वत्व! आबद्ध-स्वत्व अपनी विवशताओं का बंदी है। संबद्ध-स्वत्व में संबंधों का दबाव तो होता है, पर स्वेच्छा और परस्परता की भावना के साथ। इसके विपरीत पुरुषोचित आत्मन् विच्छिन्न, अलगावपूर्ण, स्वयंपर्याप्त और अहम्-केंद्रित होता है। वह स्त्री आत्मन् का विलोम है।

स्त्री की आत्मकथा उसके आत्मसशक्तीकरण का साक्ष्य है, लेकिन उसके सशक्तीकरण का स्वरूप क्या होता है? ‘तद्भव’ में ‘अन्या से अनन्या’ (प्रभा खेतान), और ‘एक कहानी यह भी’ (मन्नू भंडारी) की समीक्षा करते हुए अभय कुमार दूबे ने शिकायत की थी कि इनकी लेखिकाओं में स्वयं इस बात की पहचान नहीं है कि वास्तव में ये स्त्री के आत्म-सशक्तीकरण की कहानियां हैं। यह टिप्पणी वास्तव में स्त्री के संबद्ध-आत्मन् की संरचना से पुरुष आलोचक के अपरिचय का उदाहरण है। इन दोनों आत्मकथाओं में जिस मुक्ति को अंकित किया गया है वह उत्पीड़न और यंत्रणा के ‘तात्कालिक संदर्भ’ से मुक्ति है। ये अपने विखंडित आत्म के साथ सामंजस्य और समायोजन की, और अपने संघात की विकटता से उबरने की कहानियां तो हैं, लेकिन उनके साथ संबद्धता के भाव से मुक्ति की नहीं। आर्थिक स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, आत्मनिर्णय की क्षमता आदि स्त्री के आत्म-सशक्तीकरण के महज आंशिक उपकरण हैं, उसके ‘स्वत्व’ की संपूर्णता का पर्याय नहीं।

लिंग/ लैंगिकता/ कामभावना के सिलसिले में समाज के नैतिक पाखंडों का पूरा बोझा स्त्री की कमजोर पीठ पर है। समाज के नियामक विमर्शों की जकड़ का दमघोंटू दबाव उसके अस्तित्व की नाप से कहीं अधिक छोटा है और उसे सांस लेने भर की जगह भी नहीं देता। उसकी भूमिकाओं/ दायित्वों/ कर्त्तव्यों/ कसौटियों का फैलाव उसकी सकत और सामर्थ्य से बहुत अधिक बड़ा है। वह सामाजिक नैतिकता का पर्याय बन चुका है। उसका दारोमदार सदियों से स्त्री की चुप्पी और स्वीकार पर टिका रहता आया है। स्त्री-विमर्श के दायरे में प्रतिरोध के हथियार की तरह स्त्री की आत्मकथा इस चुप्पी को तोड़ने और इस दोमुंहे नैतिक पाखंड को पलीता लगाने का काम करती है।

अन्याय और उत्पीड़न की तथाकथित नैतिक कसौटियों पर अनैतिक साबित होना प्रतिरोध की राजनीति में कहीं अधिक नैतिक हो सकता है। नैतिक प्रतिरोध की तरह अनैतिक का चुनाव, और चुनाव से भी बढ़ कर उसका बयान सामाजिक असहिष्णुता, तिरस्कार से लेकर सार्वजनिक चीरहरण, दाग, दाह, संगसार, फांसी जैसे विधिसम्मत दंड का भागी होता है, लेकिन तथाकथित समाजसम्मत सही रास्ते पर लगे रहने की विफलता, अपने अनुभव के प्रकाश में नियामक विमर्शों की अन्यायपूर्ण कसौटियों का मूल्यांकन और उनसे विचलन का औचित्य इस ध्वंस को एक पवित्रता दे देता है।