गंगा सहाय मीणा
यह दिलचस्प और विचारणीय तथ्य है कि आदिवासी साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन की कोई खास प्रवृत्ति दिखाई नहीं पड़ती। यह तथ्य स्त्री, दलित आदि अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के मुक्तिकामी साहित्य आंदोलनों से आदिवासी साहित्य के पार्थक्य और विशिष्टता का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु भी है। आत्मकथात्मक लेखन मूलत: पूंजीवादी समाज की प्रवृत्ति है। वैसे तो तमाम विधाओं में रचनाकार किसी न किसी रूप में खुद को अभिव्यक्त कर रहा होता है, पर उनमें अधिकतर वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में आत्म या उसके इर्द-गिर्द के बारे में लिखता है। यानी आत्मकथात्मकता गैर-आदिवासी साहित्य की प्रधान विशेषता है। तमाम भारतीय भाषाओं में जीवनी और आत्मकथा लेखन की समृद्ध परंपरा है। यह हिंदी साहित्य का एक बहुत बड़ा अंतर्विरोध है कि आत्म को महत्त्व देते हुए भी हिंदी के तमाम रचनाकार खुद को समाज का कवि/ लेखक घोषित करते हैं, आलोचक उनके साहित्य के सामाजिक सरोकारों पर पुस्तकें लिखते हैं। इस प्रक्रिया में वे ‘आत्म’ के क्रांतिकारी चरित्र की विशेषताएं खोज कर पाठकों के समक्ष रखते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे पूंजीवाद के ‘मानवीय पहलुओं’ को महिमामंडित करना। दरअसल, सामंतवादी जकड़नों के विरुद्ध पूंजीवाद के व्यक्ति स्वातंत्र्य के छद्म दावे में मुक्ति के क्षणिक अहसास के कारण ऐसा हुआ।
मुक्तिकामी साहित्य आंदोलनों के दौर में आत्मकथात्मक लेखन की यह प्रवृत्ति केंद्रीयता प्राप्त करती है। आत्मकथा स्त्री लेखन और दलित लेखन की प्रधान विधा बन जाती है। ये आत्मकथाएं बाहरी समाज-व्यवस्था के प्रतिमानों के अनुसार सफल लेखक या लेखिका के जीवन-संघर्ष की कथाएं हैं। इनमें जाति, वर्ण और पितृसत्ता के खिलाफ लेखक या लेखिका का संघर्ष दर्ज हुआ है, इसलिए संबंधित समुदाय के लिए प्रेरणास्पद मानी जाती हैं और यही इनकी लोकप्रियता का कारण भी है। ये स्त्री शोषण या दलित शोषण की प्रामाणिक दस्तावेज मानी गर्इं और स्वानुभूति का सशक्त माध्यम भी। इस दृष्टि से दोहरा शोषण झेलने वाली दलित स्त्रियों की आत्मकथाएं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। निश्चित तौर पर अगर कोई रचना गुलामी की जंजीरों को तोड़ने में सहायक साबित होती है और बराबरी की चेतना का प्रसार करती है, तो उसका ऐतिहासिक महत्त्व है। सवाल है कि अकादमिक जगत में स्त्री और दलित लेखन के बाद जगह बनाने वाले आदिवासी लेखन में यह प्रवृत्ति क्यों नहीं दिखाई पड़ती? आदिवासी दर्शन को केंद्र में रख कर लिखे जा रहे साहित्य को सम्मिलित रूप में आदिवासी साहित्य कह सकते हैं। यह एक सृजन परंपरा है, जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है और उनके जल, जंगल, जमीन और जीवन को बचाने के हक में उनके ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है। आदिवासी साहित्य के बारे में कोई भी विश्लेषण करने से पूर्व उसकी अवधारणा, इतिहास और परंपरा के बारे में सही दृष्टि विकसित करनी होगी। अक्सर हम समकालीन हिंदी आदिवासी संबंधी लेखन मात्र को आदिवासी साहित्य मान लेते हैं और उसी के आधार पर राय बनाने लगते हैं। दरअसल, आदिवासी साहित्य की परंपरा को तीन भागों में बांट कर समझा जा सकता है- मौखिक या पुरखा साहित्य की परंपरा, आदिवासी भाषाओं में लिखित आदिवासी साहित्य और समकालीन आदिवासी लेखन।
आदिवासी साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन की प्रवृत्ति पर जोर न होने के कारण आदिवासी दर्शन में मौजूद हैं। आदिवासी दर्शन की सबसे प्रधान विशेषता उसकी सामूहिकता है। वहां व्यक्तिवाद के लिए कोई जगह नहीं है। व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है ही नहीं। आदिवासी दर्शन सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना आधार मानते हुए रचाव और बचाव में यकीन करता है। इसीलिए इसमें स्वानुभूति या सहानुभूति के स्थान पर सामूहिक अनुभूति का प्रबल स्वर सुना जा सकता है। सामूहिक अनुभूति आत्मकथा में नहीं, गीतों में ही संभव है। मुंडारी पुरखा साहित्य के अध्ययन से एक दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि वहां अपने प्रेमी या प्रेमिका को पाने के लिए प्रेमीपात्र के समाज से टकराने की स्थितियां नहीं दिखाई पड़तीं। इसका एक कारण तो यह है कि आदिवासी समाज में साथी चुनने का अधिकार भी पहले से मौजूद रहा है, घोटुल, धुमकुरिया आदि की समृद्ध परंपरा इसका साक्ष्य है। प्रेमी पात्र को पाने के लिए कोई टकराव न होने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण बताते हुए वीर भारत तलवार अपनी पुस्तक ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच’ में लिखते हैं: ‘मुंडाओं का सामाजिक संगठन बहुत शक्तिशाली रहा है और उसमें व्यक्ति की वैयक्तिकता नहीं के बराबर रही है।’ जाहिर है, जहां सामूहिकता का स्वरूप सामंती नहीं, बराबरी पर आधारित होगा और वैयक्तिकता की जरूरत और उपस्थिति ही नहीं होगी, वहां आत्मकथात्मक लेखन की प्रवृत्ति का न पनपना स्वाभाविक है।
आदिवासी दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है उसका प्रकृति की लय-ताल और संगीत का अनुगामी होना। दरअसल, आदिवासी समाज में साहित्य अन्य कला-माध्यमों से अलग और श्रेष्ठ नहीं माना जाता। वहां कलाकार एक साथ गीतकार भी है, संगीतकार भी है और नर्तक भी। आदिवासी साहित्य की लंबी परंपरा के रूप में मौजूद मौखिक साहित्य या पुरखौती में कौन-सा गीत किसने रचा, बताना मुश्किल है, क्योंकि अधिकतर गीतों की रचना सामूहिक रूप से हुई। पुरखौती किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की नहीं, पूरे समाज की धरोहर मानी जाती है। सामूहिकता की ऐसी सुदृढ़ परंपरा में आत्मकथात्मक लेखन की जरूरत क्यों पड़ेगी?
आदिवासी दर्शन में प्रकृति और पुरखों के प्रति आभार का भाव निहित होता है। पुरखों के कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आदिवासी रचनाकार कृतज्ञता व्यक्त करता है, लेकिन व्यक्ति विशेष की महिमा और गुणगान का विरोध करता है। आदिवासी दर्शन मनुष्य की श्रेष्ठता के दंभी दावे को खारिज करता है। आदिवासी विश्वदृष्टि के अनुसार दुनिया का हर प्राणी और उसका जीवन बराबर महत्त्वपूर्ण है। इसलिए उन सबको बचाया जाना जरूरी है। साथ ही नदी, नाले, पहाड़, जंगल आदि को भी बचाया जाना जरूरी है। सही अर्थों में व्यष्टि का निषेध और समष्टि का स्वीकार। जाहिर है उसे अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम गीत हो सकते हैं, आत्मकथात्मक लेखन नहीं।
आत्मकथाएं सफल लोगों द्वारा सफलता के लिए किए गए संघर्ष की कहानी कहती हैं और आदिवासी दर्शन सफलता और विकास के उन पूंजीवादी प्रतिमानों को ही खारिज करता है। बाहरी समाज और साहित्य के प्रतिमानों, विधाओं के विभाजन आदि के आधार पर आदिवासी समाज और साहित्य का मूल्यांकन करना स्वयं उचित नहीं जान पड़ता। पिछले पचास-साठ सालों में आदिवासियों के बीच बहुत तेजी से फैलती संस्कृतिकरण की प्रक्रिया देखी जा सकती है। इसका असर आदिवासी भाषा, संस्कृति और साहित्य पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनके जीवन में आदिवासियत का लगातार ह्रास होता जा रहा है। आदिवासियों में भी बाहरी समाज के प्रतिमानों के हिसाब से ‘सफल’ लोगों ने आत्मकथाएं लिखनी शुरू की है। यह शुरुआत है। मुमकिन है, आगे यह प्रवृत्ति और बढ़े। पर इतना तय है कि आत्मकथात्मक लेखन आदिवासी दर्शन के अनुकूल नहीं है, इसलिए आदिवासी साहित्य की मूल प्रवृत्ति भी नहीं बन पाई है। जब तक आदिवासी साहित्य में आदिवासियत और उसकी प्रधान विशेषता सामूहिकता का महत्त्व रहेगा, आत्मकथात्मक लेखन की प्रवृत्ति के पनपने की संभावनाएं कम ही हैं।
