कुलदीप कुमार
इतिहास अपने को बार-बार दुहराता है। कब वह प्रहसन होता है और कब त्रासदी, कहना मुश्किल है। लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि इतिहास के इस दुहराव के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो यह कि उसे दुहराने वाले अक्सर इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि वे इतिहास दुहरा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने कभी इतिहास को जानने-समझने और उससे सबक लेने की जरूरत ही नहीं समझी। दूसरा कारण यह है कि इतिहास की जानकारी होने के बावजूद अक्सर लोग उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझते। उन्हें लगता है कि वे इतिहास की प्रक्रियाओं से बच कर निकल जाएंगे, क्योंकि वे औरों की तुलना में कुछ विशिष्ट हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जनांदोलन जब प्रतिष्ठान में बदलते हैं तो उनके चरित्र में मूलभूत बदलाव आते हैं और वे वही नहीं रह जाते जो शुरुआत में थे। ये जनांदोलन सत्ता और प्रतिष्ठान विरोधी होते हैं। सत्ता पर काबिज होने और प्रतिष्ठान बनने के बाद भी कुछ समय तक इनका मूल चरित्र बरकरार रहता है, लेकिन धीरे-धीरे व्यावहारिकता के नाम पर इनमें उन्हीं तत्त्वों का वर्चस्व स्थापित हो जाता है, जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ था। अगर ऐसा न होता तो सभी तरह के कर्मकांड, मंदिर-मस्जिद, महंत-पुजारी, और मठाधीशों का विरोध करने वाले कबीर के नाम पर कबीरपंथ न शुरू होता और न ही कबीरपंथियों के मठ और महंत बनते।
सामाजिक बराबरी के सिद्धांत पर आधारित सिख पंथ में, जिसके गुरुओं ने जात-पांत के बंधनों को तोड़ने के लिए सबके एक साथ बैठ कर सामूहिक भोजन करने यानी लंगर में खाना खाने की अपने समय की दृष्टि से क्रांतिकारी परंपरा शुरू की और हर तरह के कर्मकांड का विरोध किया, आज उसी सिख पंथ के भीतर जात-पांत का विचार उतना ही फैला हुआ है जितना किसी और समुदाय में। ईसाई और मुसलिम समुदायों पर भी यह बात लागू होती है।
पुरानी कहावत है कि क्रांति अपने बच्चों को ही खाती है, विश्व इतिहास में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। इस कहावत में यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि वह अपने सबसे योग्य बच्चों को ही खाती है। रूस की बोल्शेविक क्रांति का इतिहास सबके सामने है। उसके महानायक लेनिन की किस्मत अच्छी थी जो वे क्रांति के बाद सात वर्ष जिंदा रहे, वरना बहुत संभव था कि उनका हश्र भी वही होता जो त्रोत्स्की और बुखारिन जैसे क्रांति के अन्य शीर्ष नेताओं का हुआ। ये सभी बोल्शेविक पार्टी के प्रमुख बुद्धिजीवी माने जाते थे, लेकिन बौद्धिक प्रतिभा और प्रखरता में इनके सामने कहीं भी न टिक सकने वाले स्तालिन ने इन सबका सफाया करके सत्ता पर निरंकुश अधिकार प्राप्त कर लिया। क्रांति के आदर्शों का क्या हुआ और किस तरह मानववाद के सर्वाधिक उत्कृष्ट रूप मार्क्सवाद को ढाल बना कर मानव अस्मिता, गरिमा और अधिकारों को कुचला गया, यह इतिहास सभी के सामने है।
हमारे अपने सामने 1974 में भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात में चला नवनिर्माण आंदोलन बाद में बिहार आंदोलन या जेपी आंदोलन बना और उसने देश भर में युवाओं और छात्र-छात्राओं को अपनी ओर आकृष्ट किया। इसकी सफलता और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से घबरा कर 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी। बाद में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से जनता पार्टी का गठन हुआ और पहली बार 1977 में केंद्र में कांग्रेस अपदस्थ हुई। जनता पार्टी सरकार के सत्ता में आने को ‘दूसरी आजादी’ का नाम दिया गया। मैं उस समय युवा था। तब जनता में जितना उत्साह, जोश और उम्मीदें थीं, उसकी याद अब भी मन में बसी हुई है। लेकिन यह सरकार तीन साल भी नहीं चल पाई। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी चुनाव जीत कर सत्ता में वापस आ गर्इं। जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं के अहं, निजी स्वार्थ, एक पार्टी में विलय के बावजूद अपने दल के लोगों के साथ मिल कर शक्तिशाली गुट की तरह काम करने की प्रवृत्ति और लगातार कलह ने पार्टी को बिखराव के कगार पर ला खड़ा किया। यह सब देख कर जनता को लगा कि इससे अच्छी तो कांग्रेस ही थी।
आज यह सारा पुराना इतिहास क्यों दुहरा रहा हूं? इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि कहीं आम आदमी पार्टी भी जनता को इसी तरह निराश करने की राह पर तो आगे नहीं बढ़ी जा रही? आज हर व्यक्ति सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से परेशान है। उसे न चाह कर भी भ्रष्टाचार के इस दुश्चक्र का हिस्सा बनना पड़ता है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने लोगों के बीच बहुत समय बाद यह उम्मीद जगाई कि भ्रष्टाचार को दूर नहीं तो कम किया ही जा सकता है। और इस एक उम्मीद ने लोगों को इतना उत्साहित कर दिया कि उन्होंने ‘आप’ जैसी नई पार्टी को दिल्ली विधानसभा में अभूतपूर्व बहुमत- सत्तर में से सड़सठ सीटें- दिया। इस पार्टी के कई उम्मीदवार लोकसभा में भी पहुंचे। अब दिल्ली से सभी राज्यसभा सदस्य भी उसी के बनेंगे।
लेकिन जीत के बाद ही ‘आप’ के भीतर वही उठापटक और खींचतान नजर आने लगी है, जो जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद नजर आई थी। लोकतंत्र में जनता की भागीदारी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, आम आदमी पार्टी ने हमेशा इस सिद्धांत का प्रचार किया है। उसका लक्ष्य मोहल्ला स्तर की कमेटियों को भी अधिकार देने का है। उनसे इस लक्ष्य से किसी भी लोकतंत्रप्रेमी को मतभेद नहीं हो सकता। लेकिन पार्टी के भीतर एक दूसरे किस्म की ही संस्कृति पनपती नजर आ रही है और यह दुर्भाग्य से वही संस्कृति है, जो कमोबेश अन्य पार्टियों में जड़ें जमाए बैठी है।
जिस तरह आज भारतीय जनता पार्टी में हर उपलब्धि का श्रेय नरेंद्र मोदी को दिया जा रहा है, जिस तरह कांग्रेस में सोनिया गांधी, समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल में लालू प्रसाद यादव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शरद पवार सुप्रीमो बने हुए हैं, वैसे ही आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल को सुप्रीमो बनाने का सुनियोजित प्रयास चल रहा है। इस पार्टी के भी त्रोत्स्की और बुखारिन जैसे चिंतक हाशिये पर डाले जा रहे हैं। सबकी राय के आधार पर फैसले करने का आदर्श सामने रख कर राजनीति में आने वाली पार्टी को अब सिर्फ एक व्यक्ति की राय से चलाने की कोशिश की जा रही है। जब पार्टी पर एक नेता का निर्विवाद वर्चस्व स्थापित हो जाता है, तब उसके इर्द-गिर्द जमा नेताओं के लिए पार्टी को अपने ढंग से चलाना आसान हो जाता है। पार्टी के भीतर लोकतंत्र की जगह सिकुड़ती जाती है और अंतत: वह एक व्यक्ति, गुट या एक परिवार की जेबी पार्टी बन कर रह जाती है।
इस समय खतरा यही है कि कहीं आम आदमी पार्टी के साथ भी वही न हो जो जनता पार्टी के साथ हुआ था। जनता पार्टी भी कई दलों के विलय के बाद बनी थी। उसमें मधु लिमये, मधु दंडवते, और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादी थे तो मोरारजी देसाई जैसे समाजवाद से खार खाने वाले गांधीवादी भी थे। उसमें किसानों, विशेषकर खाते-पीते किसानों, के हितों के प्रवक्ता और पक्षधर चरण सिंह थे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा ग्रहण करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी थे। जाहिर है कि ऐसी पार्टी की कोई स्पष्ट विचारधारा या आर्थिक-सामाजिक नीति नहीं हो सकती। उसे बनाना एक दीर्घकालिक और लंबी प्रक्रिया के दौरान ही संभव था, लेकिन इसका प्रयास करने की नौबत ही नहीं आ पाई और पार्टी टूट गई।
आम आदमी पार्टी की भी केवल एक ही वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में लोगों को पता है, और वह है भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई तथा आम आदमी को राहत देने का संकल्प। लेकिन क्या पांच साल तक सरकार चलाने और पहले के मुकाबले बहुत बेहतर सरकार देने के लिए यह पर्याप्त है? इस समय ‘आप’ के सामने सबसे पहला काम अपने आप को संभाले रखना है। अगर अभी से इसमें टूटन की प्रक्रिया शुरू हो गई, तो प्रचंड बहुमत के बावजूद इसके लिए अपना कार्यकाल पूरा करना मुश्किल हो जाएगा और पूरे देश में अपने प्रभाव को फैलाने की उसकी महत्त्वाकांक्षा भी मिट्टी में मिल जाएगी।
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