भारतीय समाज में सवर्ण और अवर्ण के रूप में दो वर्गों का अस्तित्व सदा रहा है, जिनकी उत्पत्ति वर्ण-व्यवस्था की स्थापना से मानी जाती रही है- जब किसी विराट पुरुष के शरीर के माथा, छाती, पेट और पैरों से क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के जन्म का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। सिद्धांत को बाकायदा शास्त्रीय मान्यता दी गई, ताकि उसे भारतीय जन-समाज के दिलो-दिमाग में पूरी तरह बिठाया जा सके।  वर्ण-व्यवस्था चाहे जन्म या कर्म पर आधारित रही हो, दिक्कत वहां से आरंभ होती है, जब वर्णों के आधार पर मनुष्यों में भेद किया जाने लगा। यह भेदभाव उस सीमा तक पहुंच जाता है, जब मनुष्य को मनुष्यता के दर्जे से खारिज करने लगता है। शूद्र नामक एक वर्ण के लोगों को सामाजिक प्रणाली के स्तर पर इतना निम्न बना दिया जाता है कि उसे दास, दश्यु, दलित, अछूत, चांडाल जैसी संज्ञाएं दी जाकर उस वर्ण के विभिन्न घटकों से घोर घृणा की जाने लगती है और उन पर कई तरह की पाबंदियां थोप दी जाती हैं। मानव मानव के बीच इस कदर ऊंच नीच का भाव पैदा कर दिया जाता है कि समाज के पिरामिड में सबसे नीचे रख दिए गए तबके से जुड़े लोग इंसान का जीवन न जी सकें और उनके उत्थान के सभी मार्ग बंद कर दिए जाते हैं।

इस त्रासदी का विरोध वर्ण-व्यवस्था के जन्म के साथ ही शुरू हो गया था। इस प्रतिरोध में चार्वाक-लोकायत से लेकर आजीवक, जैन, बौद्ध जैसे दर्शन जन्म लेते हैं, जिनमें बौद्ध सबसे मुखर और अग्रगामी है। नाथ-सिद्ध और फिर उत्तर भारत में सरहपा, गोरखनाथ, रैदास और कबीर आदि द्वारा सामाजिक चेतना का बिगुल बजाया जाता है और दक्षिण भारत में रामास्वामी नायकर जैसे क्रांतिचेता नायक जातिवाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हैं। बाद में ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई और फिर वर्ण व्यवस्था की साजिशों का भंडाफोड़ करते हुए बाबा साहेब आंबेडकर स्पष्ट सैद्धांतिकी लेकर उभरते हैं, जो भविष्य के लिए दलित चेतना का अकाट्य दर्शन बन कर सामने आता हैं, जिसने सामाजिक स्तर पर ही नहीं, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन की राह को सुगम बनाया। इस अवदान में उनके द्वारा निर्मित भारतीय संविधान की भूमिका सदा ऐतिहासिक मानी जाएगी। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में भारतीय समाज के हाशिए के स्वर उच्चरित होने लगते हैं, जो प्रमुखत: स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्श बन कर हस्तक्षेप करते हैं। इस विमर्श के सौंदर्यबोध की पड़ताल करना आवश्यक है, ताकि हम समझ सकें कि समाज के भद्र वर्ग ने सौंदर्य के जो मानदंड स्थापित कर दिए, वही अंतिम सत्य नहीं, बल्कि सौंदर्य को देखने का समांतर और पृथक दृष्टिकोण भी भारतीय परंपरा में उपस्थित रहा है।

सौंदर्यशास्त्र की भद्र मान्यता भाववादी, वायवीय और सापेक्षिक रही है, जिसका बहुप्रचारित दृष्टांत ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ का दिया जाता रहा है। यह शब्द समूह प्राचीन भारतीय वांग्मय में कहीं नहीं मिलता, हालांकि तीनों शब्दों की वृहद् व्याख्या विभिन्न ग्रंथों में मिलती है। इस शब्द समूह का प्रयोग पहली दफा रवींद्रनाथ ठाकुर के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने किया था और इसका बहुत गहन और आधिकारिक विश्लेषण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के छायावाद वाले अध्याय में किया है।  सौंदर्य की इस अवधारणा में सत्य और मंगल के तत्त्व अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं। यहां अंतिम सत्य परम ब्रह्म को माना गया है, जो अविनाशी, चिरंतन और शाश्वत है। सौंदर्यबोध का यह परंपरागत भद्र दृष्टिकोण नितांत काल्पनिक है, जो लौकिक संसार से कोई संबंध नहीं रखता।  जब हम सौंदर्य की समांतर और एक अन्य परंपरा की बात करेंगे तो चार्वाक-लोकायत की यह मान्यता सामने आएगी, जिसमें कहा गया है कि ‘मयूर पंखों की सुंदरता उनके रंगों के समन्वय में होती है, जो प्रकृति-प्रदत्त हैं। उन्हें किसी अमूर्त सत्ता ने निर्मित नहीं किया।’ मूलभूत भौतिक तत्त्वों के सम्मिश्रण से सृष्टि का उद्भव और विकास हुआ है, किसी अलौकिक शक्ति की मनसा से नहीं। यही वजह है कि सौंदर्य का बोध इंद्रियजन्य होता है और एक सीमा तक यह प्रत्यय व्यक्तिपरक, सापेक्ष और अस्थायी भाव रखे हुए हो सकता है। स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़ा वर्ग यानी कुल मिला कर भारत की शोषित-वंचित मानवता के लिए सौंदर्य की अवधारणा वह है, जो उसे इस त्रासदी से मुक्ति दिला सके। इसीलिए राष्ट्र की इस बहुसंख्यक मानवता के लिए आनंद और सौंदर्य जैसे शब्दों की परिभाषाएं परिवर्तित हो जाती हैं। यहां पीड़ा की अभिव्यक्ति को सौंदर्य शास्त्र के सरोकारों में प्राथमिक स्थान पर रखा जाएगा, न कि नायिका भेद को।

संस्कृत साहित्य से लेकर विभिन्न भाषाओं में रचित परवर्ती भारतीय साहित्य का जब विश्लेषण किया जाता है, तो सबसे पहले बाबा नागार्जुन ने चांद में नायिका का मुखड़ा देखने के स्थान पर ‘रोटी’ देखी। रोटी एक प्रतीक है दरिद्र के सौंदर्यबोध का। चंद्रमा की छवि में नायिका का चेहरा देखना खाए-अघाए भद्र मानसिकता के कवि की कल्पना हो सकती है। भूखी मानवता को तो सपने में भी चांद रोटी जैसा ही प्रतीत होगा, चूंकि चांद और रोटी का आकार गोल होता है। शरण कुमार लिंबाले सत्यम, शिवम, सुंदरम की नई परिभाषा देते हैं। ‘मनुष्य प्रथमत: मनुष्य है, यही सत्य है। मनुष्य की स्वतंत्रता ही शिव है। मनुष्य की मनुष्यता ही सुंदर है।’ सौंदर्यबोध के क्रम में जब मानव समाज की आदिम समझ पर विचार करें, तो हमें जंगल-पहाड़ों में जीवन बसर करने वाले आदिम समुदायों को तनिक समझना होगा, जो अब भी आदिम युग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उनके यहां सौंदर्य जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। भौतिक सुविधाएं चाहे अत्यल्प हों, उनके यहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सौंदर्य का भाव दिखाई देगा। घर के नाम पर झोंपड़ी है, पर उसे सजा हुआ पाएंगे। ठेठ आंगन और प्रवेश से लेकर हर कोने तक अच्छी तरह से लिपा-पुता हुआ, और नहीं तो खड़ी और गेरू के मांढणों से सजा हुआ। चूल्हा-चाकी सहित कंडे रखने के स्थान और घरेलू तथा कृषि उपकरणों तक पर कलाकृतियां दिखाई देंगी। उनके नृत्य-गीत प्रकृति की भाव-भंगिमाओं, जैसे ऋतुओं, फसलों और श्रम से जुड़े होते हैं। उनके लिए कला ‘फुर्सत का रियाज’ नहीं, बल्कि जीवन में रची-बसी होती है।

विश्व के करीब सभी दर्शनों का विकास इस दुनिया को समझने के लिए हुआ है। उन दर्शनों में सौंदर्य की विशद व्याख्याएं की गई हैं, जिनमें भौतिकवादी और भाववादी, दोनों प्रकार की चिंतन धाराएं सम्मिलित रही हैं। इस समस्त बौद्धिक परंपरा के साथ आग्रह यह है कि इस दुनिया को बनाने-सजाने वाले, इसे संरक्षित रखने वाले लोग और उनके कर्मों को जब तक सौंदर्य का निकष नहीं बनाया जाएगा, तब तक हम सौंदर्य के काल्पनिक-लोक में भटकते रहेंगे। इसीलिए सौंदर्य के तथाकथित प्रतिमानों को ध्वस्त करना होगा, ताकि अमूर्त, वायवीय, काल्पनिक सिद्धांतों पर आधारित दर्शन के सातवें आसमान से उतर कर हम धरती के यथार्थ को समझ सकें।