गरिमा श्रीवास्तव
इतिहास उतना ही नहीं होता, जो किताबों में दर्ज है। जब कोई उन स्मृतियों को जीता है, जो कहीं दर्ज नहीं हैं, पर जिन्हें हम बतौर तथ्य जानते हैं, क्या वे अपने आप में साक्ष्य नहीं हैं? एक व्यक्ति जिस रूप में किसी घटना की स्मृति को जीता है, उसकी व्याख्या वह दूसरे से बिलकुल अलग अपने ढंग से करता है। इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में हेगेल, स्पेंगलर, टायनबी से लेकर मार्क्स और सार्त्र के लेखन में इतिहास को लेकर काफी वाद-विवाद और चर्चा मिलती है। बावजूद इसके कुछ अनुभवजन्य तथ्य कायदे से इतिहास के अंग-अवयव न होकर भी इतिहास से बाहर नहीं होते। विस्थापन, शोषण, बलात्कार पुनर्स्थापन के अनुभव भी सबके अपने-अपने होते हैं। क्या हम जन-स्मृतियों में दर्ज ऐसी घटनाओं को नजरंदाज करके किसी जाति, समाज या राष्ट्र का मुकम्मल इतिहास जान सकते हैं? इस विषय पर हुए बहुत सारे शोध साबित करते हैं कि स्मृतियां अपने आप में शुद्ध और इतनी परिपूर्ण नहीं होतीं कि उन्हें इतिहास में शामिल किया जा सके। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि कौन, क्या, किससे और कैसे स्मृतियों का पुनराख्यान करता है। इसके बावजूद किसी घटना को कोई जातीय समूह या व्यक्ति विशेष कैसे याद करता है, किसके साथ, किसके सामने उसका पुनराख्यान करता है, मुख्य घटना या उसकी किसी उपघटना को देखने का उसका नजरिया क्या है, क्या इसे भी ऐतिहासिक तथ्यों के समांतर नहीं ग्रहण किया जाना चाहिए। क्योंकि अंतत: इतिहास के अंतर्गत भी तो किसी द्वारा किन्हीं घटनाओं की ब्योरेवार व्याख्या ही की जाती है और जाहिर है कि यह व्याख्या किसी व्यक्ति विशेष या सामूहिक स्मृतियों पर आधारित होती है। किसी घटना विशेष को लोग कैसे याद करते हैं या कुछ घटनाओं के बारे में बोलने से बचते हैं- इससे भी इतिहास के पन्नों के पुनर्पाठ में मदद मिलती है।
ल्योतार का मानना है कि इतिहास और स्मृति परस्पर अलग-अलग हैं, क्योंकि स्मृतियां स्पर्धा नहीं करतीं, न इतिहास से टकराती हैं। स्मृति अपने श्रेष्ठतम में अवकाश ही बन सकती है, घटनाएं सर्जक को प्रेरणा देती हैं, उन्हें ठोस रूप में रख दिया जाए तो वे पाठक पर कोई प्रभाव डाल पाएंगी, इसमें संदेह है। अपनी स्मृति से आख्यान कहने वालों को समय और इतिहास के अवबोध में जकड़ कर रखना संभव नहीं होता। इतिहास विमर्श में मौखिक आख्यानों को ग्रहण करने और न करने पर बड़ी चर्चाएं हुई हैं। अगर इतिहास को चुनौती देने का साहस न भी किया जाए तो यह सवाल उठता है कि स्मृतियों में दर्ज घटनाओं और आख्यानों का हम क्या करें? खासकर जब वे किसी युद्ध, दंगे, पुनर्स्थापन, पुनर्वास से संबद्ध हों।
किसी व्यक्ति या समूह की स्मृति में दर्ज ये घटनाएं उनके जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती हैं, अक्सर जीवन की धारा ही बदल डालती हैं- ऐसे आख्यानों को इतिहास में जगह नहीं मिलती। विश्व के जिन समुदायों में लिखित शब्द की परंपरा नहीं है, उनके बारे में, उनके इतिहास के बारे में जानकारी का स्रोत मौखिक-वाचिक परंपरा ही है, जिसके अंतर्गत भाषण, गीत-संगीत, गद्य-पद्य समाविष्ट होते हैं। बौद्ध, जैन और हिंदू परंपरा की कई मान्यताओं के स्रोत वाचिक परंपरा से ही लिए गए हैं। किसी समुदाय विशेष या जातीय समूह की सामूहिक स्मृतियों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अंतरित करने का काम वाचिक परंपराएं करती हैं, लेकिन यह ‘टेस्टीमनी’ या मौखिक इतिहास के अंतर्गत शामिल नहीं होता।
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में जॉन माइल्सफोले ने वाचिक परंपरा को सूचना मानते हुए कहा है कि इसके अंतर्गत संरक्षित सांस्कृतिक ज्ञान को स्मृति के सहारे कहा जाता है। जबकि मौखिक इतिहास के अंतर्गत उन लोगों की निजी/ व्यक्तिगत स्मृतियों को शामिल किया जाता है, जो किसी जमाने में कभी ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी या भोक्ता रहे हैं। मौखिक इतिहास के माध्यम से अतीत के तथ्यों को भली-भांति विश्लेषित करने, संस्कृति और ज्ञान के मौखिक रूपों को आगे तक, अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। मौखिक इतिहास कई समाजों के अतीत के पुनर्निर्माण में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मसलन अफ्रीका के कई जातीय समुदाय ऐसे हैं, जिनके लिखित इतिहास के अभाव में मौखिक परंपरा ने पीढ़ियों के आपसी संप्रेषण में विशिष्ट भूमिका निभाई है। उपनिवेशवाद, दमन और शोषण की असंख्य घटनाएं और निरक्षरता-ऐसे कई कारण हैं, जिनमें दमन-शोषण की दस्तानों के विस्तृत विवरण और आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। ऐसे में इतिहास के शोधकर्ताओं को मौखिक इतिहास की प्रविधियां अपनानी पड़ती हैं।
मौखिक इतिहास की कई प्रविधियों को पूरे विश्व में इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। अफ्रीकी सामाजिक इतिहास पर शोध करने वाले फिलिप बोनार ने मौखिक इतिहास को अतीत की घटनाओं का पुनर्स्मरण माना है, जिसे अगली पीढ़ी तक अंतरित किया जाता है। मौखिक इतिहास की प्रविधियां प्राचीन समय से प्रचलित हैं, बहुत से प्राचीन इतिहास के पाठ मौखिक आख्यानों से लिए गए हैं। शोधप्रविधि के तौर पर साठ के दशक में यूरोप और अमेरिका में इसमें तेजी दिखाई दी, इससे पहले अफ्रीकी इतिहास पुस्तकों में गहरी चुप्पियां और दरारें थीं। शुरुआती दौर में मौखिक इतिहास का विरोध हुआ और इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाए गए, लेकिन आगे चल कर लिखित इतिहास की दरारें और चुप्पियां भरने के लिए इसे सशक्त स्रोत के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा। अतीत के बारे में जानकारी इकट्ठी करने के लिए साक्षात्कार और आख्यान कहने वालों से संपर्क किए गए। साक्षात्कार देने वाले व्यक्तियों से कहा गया कि वे वहीं से अपनी बात शुरू करें, जहां से उन्हें याद है या जहां से वे अतीत की घटनाओं को याद करना चाहते हैं। फिलिप बोनार ने इन साक्षात्कारों से वह जानकारी प्राप्त की, जो किसी अन्य स्रोत या इतिहास पुस्तक से मिलनी असंभव थी।
मौखिक इतिहास की प्रविधियों में खर्च और समय अधिक लगता है, साथ ही कई बार अपेक्षित प्रतिक्रिया भी नहीं मिलती और शोधकर्ता के सामने अनुवाद की समस्या भी आती है। एक बात यह भी कि अक्सर वैयक्तिक स्मृतियों की अपेक्षा सामूहिक स्मृतियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, क्योंकि लोग उसी को दुहराते हैं, जो सुनते हैं और बार-बार सुनते हैं, उसे ही सत्य के रूप में स्वीकार भी करने लगते हैं। लेकिन सत्य क्या वही है, जो वर्चस्ववादी ताकतों या कबीलाई प्रमुखों द्वारा दोहराया जाता है, जिसकी तेज आवाज के शोर में किसी एक कमजोर का सत्य ‘मिथ्या’ बन जाता है। इतिहासकार तब क्या करेगा, जब अनेक वर्चस्ववादी ताकतें जोर-शोर से अपने-अपने सत्य को दोहराएंगी, अपने मुताबिक किसी घटना का पाठ प्रस्तुत करेंगी।
ऐसे में शोधकर्ता को समुदाय प्रमुख के साथ-साथ आम आदमी और प्रतिद्वंद्वी समुदाय के लोगों से भी बात करनी होगी- सबके पाठों का विश्लेषण करने के बाद ही कोई ऐतिहासिक आख्यान हाथ लगेगा, जो अलग-अलग दृष्टियों से कहा गया होगा। किसी भी देश के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को समग्रता में समझने के लिए मौखिक इतिहास की मदद लेना अनिवार्य है, जिससे अतीत की उपेक्षित दृश्य-घटनाएं और अनसुनी आवाजें मुकम्मल ढंग से सामने आती हैं, जिन्हें जानबूझ कर उपेक्षित कर दिया गया या मुख्यधारा के इतिहास में शामिल करने के योग्य नहीं समझा गया, प्राय: विस्मृत कर दिया गया। उन उपेक्षित दृश्य-घटनाओं और अनसुनी आवाजों को जानने के लिए मौखिक इतिहास की मदद लेना अनिवार्य है, शायद तभी हम किसी देश के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को समग्रता में समझ सकें।