आज से लगभग आठ दशक पूर्व जब प्रेमचंद ने कहा था कि ‘साहित्य महज राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है’ तब उनका मंतव्य साहित्य की उस सामाजिक भूमिका से था, जो लेखक के सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका में उतरे बिना संभव नहीं थी। प्रेमचंद का यह कथन भारत के पहले लेखक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में दिए गए अध्यक्षीय वक्तव्य का हिस्सा था। यह कहते हुए प्रेमचंद लेखक समुदाय और लेखक संगठन से अपने समय की राजनीति के द्रष्टा की ही नहीं, बल्कि कर्ता की भूमिका की भी अपेक्षा कर रहे थे। आज जब कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर अपनी तार्किक वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए गोलियों का शिकार बन चुके हों, महाश्वेता देवी को ‘द्रोपदी’ कहानी लिखने के लिए मरणोपरांत राष्ट्रद्रोही का खिताब दे दिया गया हो, यूआर अनंतमूर्ति की मृत्यु का उत्सव मनाया गया हो, पेरूमल मुरुगन को लेखक के रूप में मृत्यु की घोषणा करनी पड़ी हो, अरुंधति राय निशाने पर हों और समूचे देश में लेखकों, बौद्धिकों, कलाकारों, फिल्मकारों की अभिव्यक्ति पर कड़ा पहरा होने के साथ-साथ धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक जनतंत्र खतरे में हो, तो लेखक संगठनों की भूमिका और महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाती है। स्वीकार करना होगा कि आज लेखक संगठनों की हस्तक्षेपकारी भूमिका की जितनी जरूरत है उतनी आज के पहले स्वाधीन भारत में शायद ही कभी रही हो। मगर यह खेद और चिंता की बात है कि सारे संकल्पों और नेक इरादों के बावजूद लेखक संगठन आज की चुनौतियों के समक्ष अपना विस्तार कर प्रभावी भूमिका का निर्वहन करने में पिछड़ रहे हैं।
करीब दो साल पहले प्रतिरोध स्वरूप अपने पुरस्कार और पदवियां वापस कर देश का बौद्धिक समाज सड़कों पर उतरा था तो केंद्र सरकार को रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ा था। भाषा और क्षेत्र की सीमाओं का अतिक्रमण कर लेखकों और बौद्धिकों की यह स्वत:स्फूर्त पहलकदमी देश में पहली बार थी। ध्यान देने की बात यह है कि इस समूची मुहिम में लेखक संगठन नियामक भूमिका में न होकर अनुगामी भूमिका में थे। सच यह भी है कि पुरस्कार वापसी की मुहिम शुरू होने के बाद जब लेखक संगठनों ने अपने कुछ सदस्यों से साहित्य अकादेमी सम्मान वापस करने की अपील की, तो इस पर उन लेखकों ने ध्यान नहीं दिया, जिन्हें यह अपील संबोधित थी। सच है कि वामपंथी लेखक संगठन अपने सम्मेलनों, सेमिनारों और सभाओं में उचित ही सांप्रदायिक फासीवाद को रोकने और उससे मुकाबला करने का दृढ़ संकल्प हमेशा व्यक्त करते रहे हैं। लेकिन यह समूची सांस्कृतिक और लेखकीय एकता तब तार-तार हो गई, जब एक लेखक संगठन द्वारा वाराणसी का संकल्प एक ऐसे वामपंथी उम्मीदवार के समर्थन में बदल गया, जिसकी जमानत तो जब्त हुई ही, उसे एक प्रतिशत वोट भी न मिल सका। कमोबेश यही हाल बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव का भी रहा, जिसमें भाजपा तो बुरी तरह परास्त हुई, लेकिन सीपीएम और सीपीआई एक भी सीट न जीत सकी। बिहार में लेखक संगठन वाम पार्टियों की भूमिका का आधिकारिक रूप से अनुगमन करते हुए उस गठबंधन के साथ नही थे, जो भगवा ताकतों को हराने में सक्षम हुआ। अब उत्तर प्रदेश में भी वाम दलों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर एक चौथाई से अधिक सीटों पर अपने स्वतंत्र उम्मीदवार खड़े किए हैं और लेखकों से अपने उम्मीदवारों के समर्थन की अपेक्षा की है। एक बार फिर वाम लेखक संगठन अपनी स्वतंत्र भूमिका न अपनाने के चलते ‘पार्टी लाइन’ का अनुगमन करते दिख रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव प्रदेश की राजनीति को ही नहीं, आने वाले समय में देश की राजनीति की भी दिशा तय करने वाला है।
दरअसल, वामपंथी दलों की लेखक संगठनों से पार्टी-लाइन अपनाने की चाहत और लेखक संगठनों द्वारा अपनी स्वायत्त भूमिका न निर्धारित कर पाने के चलते, व्यापक लेखक समाज इन संगठनों से वह जुड़ाव नहीं महसूस कर पाता, जो प्रेमचंद का अभीष्ट था। संभवत: यही वे कारण हैं, जिनके चलते वाम दलों की निष्प्रभाविता लेखक संगठनों की कमजोरी भी बनती जा रही है। लेखक संगठन अपने सम्मेलनों और बैठकों में संकल्पबद्ध तो होते हैं सांप्रदायिक फासीवाद की चुनौतियों के मुकाबले के लिए, लेकिन चुनावी जनतंत्र की निर्णायक घड़ी में वाम विकल्प की ‘पार्टी लाइन’ के चलते सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी व्यापक बौद्धिक मुहिम में कारगर भूमिका निभाने में अक्षम हो जाते हैं। परिणामस्वरूप वे अपने प्रभाव और बौद्धिक सामर्थ्य का अपव्यय अनजाने ही करते हैं। इसी के चलते विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में वामपंथ कांग्रेस का गठबंधन पवित्र हो जाता है और बिहार और उत्तर प्रदेश में गर्हित। पार्टी लाइन और लेखक संगठनों की यही नाभिनालबद्धता एक लेखक संगठन द्वारा इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्थन करवाती है, तो दूसरे लेखक संगठन को वाम मोर्चे की सरकार द्वारा तसलीमा नसरीन के पश्चिम बंगाल से निर्वासन पर मौन धारण करने को विवश होना पड़ता है।
स्वीकार करना होगा कि राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति की बाध्यता के चलते अपनी प्राथमिकताएं और व्यूहरचना होती है। आज जब वामपंथी पार्टियों के राष्ट्रीय दल की मान्यता छिनने का खतरा दरपेश है, तो अधिक से अधिक राज्यों में बिना जीत-हार का विचार किए चुनाव लड़ना उनकी विवशता और तात्कालिक जरूरत हो सकता है। पार्टी नेतृत्व की गुटबंदी के चलते उनमें यह बहस भी हो सकती है कि केंद्र की वर्तमान सत्ता का वर्गचरित्र फासीवादी है या अधिनायकवादी। लेकिन व्यापक बौद्धिक और लेखक समुदाय में तो यह आम सहमति है कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ का वर्तमान नेतृत्व संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र और देश की बहुलवादी संरचना के लिए बड़ा खतरा है।
मुक्तिबोध ने अभिव्यक्ति के जिन खतरों को उठाने की बात कही थी उसका वक्त जितना मौजूं आज है, उतना पहले कभी न था। ऐसे में लेखक संगठनों की जनतंत्र और संविधान को बचाने की भूमिका सर्वोपरि है। कहना न होगा कि कारपोरेट पूंजीवाद और हिंदू फासीवाद के बरक्स वामपंथी विकल्प लंबी तैयारी और जमीनी संघर्ष के बिना संभव नहीं है, लेकिन चुनावी समर में व्यापक मुहिम के हिस्सेदार बन कर सांप्रदायिक फासीवाद को परास्त करना अभीष्ट ही नहीं, संभव भी है।

