दलित आत्मकथाओं के बारे में सामान्यीकरण करते हुए कुछ कहना अभी बेहद मुश्किल है। दलित अस्मिता के समरूपीकरण में भी ये आत्मकथाएं बाधा बन सकती हैं। इनका वैविध्य बताता है कि दलित समुदाय की बहुस्तरीयता इनके बगैर सामने नहीं आ सकती थी।

सामाजिक उथल-पुथल ही साहित्यिक आंदोलनों के मूल में होती है। जब भी कोई नया आंदोलन उभरता है, अभिव्यक्ति के स्थापित रूपों में उल्लेखनीय तब्दीलियां आती हैं। नई विधाओं का जन्म होता है। परंपरागत विधाओं के अर्थ बदल जाते हैं। कुछ साहित्यिक रूपों को नई आभा मिलती है। कुछ रूप निस्तेज हो जाते हैं। निस्तेज रूपों में कुछ तो सुप्तावस्था में चले जाते हैं, मगर कुछ कायम और क्रियाशील रहते हैं। शक्ति समूहों के स्थान परिवर्तन और समीकरण का साहित्यिक रूपों के पदानुक्रम पर निर्णायक असर पड़ता है। यह असर सरलता से दिखाई दे, समझ में आ जाए, कतई आवश्यक नहीं है। विधाओं का सांचा अंतर्वस्तु से भरा जाता है। अंतर्वस्तु का रूपाकार सांचे में ढल कर कुछ का कुछ हो सकता है, हो जाता है। इससे उलट यह भी संभव है कि अंतर्वस्तु का दबाव सांचे को दरका दे, उसमें फिट होने से, ढलने से इनकार कर दे। नई विधाओं के आविष्कार का प्राय: यही कारण हुआ करता है। रचनाकार की अपनी सामाजिक अवस्थिति होती है। अवस्थिति का निर्धारण सत्ता संरचना करती है। जब तक अपनी अवस्थिति से असंतोष नहीं होता तब तक रचनाकार यथास्थिति का पोषक बना रहता है। संरचनागत समझदारी के विकास की शुरुआत असंतोष के पनपने से होती है। सत्ता संरचना की खामियां, उस संरचना में निहित दमनकारी प्रवृत्ति जिस गति से बोध का हिस्सा बनेगी, जिस गति से उसका चरित्र उजागर होगा उस गति से असंतोष संक्रामक होता जाएगा। यह संक्रमण ही एक बिंदु पर जाकर आंदोलन की शक्ल अख्तियार करता है।

जब दलित आंदोलन आया तो इस समझदारी के साथ कि व्यवस्था के विकल्प में व्यवस्था ही हो सकती है। फिर, प्रबंध से क्यों बचा जाए? क्यों न प्रबंध रचा जाए? ‘अपना’ प्रबंध। ‘अपनी’ व्यवस्था। हिंदी दलित लेखन के प्रारंभ में तीन प्रबंधकाव्यों/ महाकाव्यों का प्रकाशन इसी समझदारी का सबूत है। आत्मवृत्त लेखन का दौर इसके बाद शुरू होता है। बहुत जल्दी यह विधा दलित साहित्य और आंदोलन की पहचान बन गई। अस्मिता की सशक्त अभिव्यक्ति। उत्पीड़न के संस्मरण दर्ज करने के बजाए आत्मवृत्त लिखना इस आकांक्षा का जाहिरनामा है कि हमें न तो व्यवस्था को टुकड़ों-टुकड़ों में बदलना है और न जीवन को खंडश: सुधारना है। समग्र और तत्काल परिवर्तन चाहिए। निजी जीवन और संपूर्ण व्यवस्था में आमूल बदलाव। समाज और साहित्य में आत्मकथाओं को जिस तरह तवज्जो मिली उससे लगा कि समय इसी की मांग कर रहा था। इतिहास इसके लिए जमीन तैयार कर चुका था। मराठी दलित साहित्य ने इस परिदृश्य निर्माण में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में मराठी दलित आत्मवृत्तों के अनुवाद ने साहित्य की दिशा बदल दी। नए दलित रचनाकार इस विधा की ओर मुड़े। यह विधा परिवर्तित चेतना और आंदोलन की ताकत की मुख्य वाहक बन गई। इस विधा को प्रतिष्ठित होने में कुछ मुश्किलें जरूर आर्इं, मगर इसमें ज्यादा समय नहीं लगा।

आत्मकथाओं के ऐसे इस्तकबाल के बाद मूल्यांकन का सवाल आया। मूल्यांकन के कई आयाम सामने आए। मसलन, पारंपरिक विधाओं की तुलना में इन आत्मकथाओं का स्थान, दलित साहित्य की अन्य विधाओं के मध्य यह विधा। सामूहिक संघर्ष और सामुदायिक सपनों को शब्द देने, प्रस्तुत करने में इस विधा की सक्षमता का प्रश्न। लेकिन, सबसे बड़ा प्रश्न आत्मकथा के रचाव और वस्तु-चयन की दृष्टि का आया। आत्मकथा बन कैसे रही है, उसमें समोई जाने वाली सामग्री की छंटाई और गुंथाई किस तरह की जा रही है? कहने की जरूरत नहीं कि दलित आत्मकथाओं के मूल्यांकन का काम अभी ठीक से शुरू होने की बाट जोह रहा है।
प्रगतिवादी लेखन की पहचान उसके यथार्थबोध से की जाती है। यथार्थ का मूर्तन विचारधारा करती है। यथार्थ मात्र वह नहीं, जो गोचर है। गोचर को अतिक्रांत कर उससे परे देख सकने वाली निगाह यथार्थ रच सकती है। यथार्थ में ‘जो है’, जिसके ‘होने’ की संभावना है और जो ‘होना चाहिए’ इन तीनों का अंतर्भाव रहता है। अंतर्ग्रथन का यह काम विचारधारा ही कर सकती है। दूसरी तरफ दलित साहित्य का बल वास्तवबोध पर रहता है। वस्तु में अण प्रत्यय लगा कर बना वास्तव यथार्थ की तरह तत्सम शब्द है। असली, सच्चा आदि के साथ इसका अर्थ है निर्धारित, निश्चित किया हुआ। जबकि यथार्थ निर्मिति सापेक्ष है तब वास्तव शुद्ध हकीकत, प्रथम दृष्टया गोचर सत्य।

प्रगतिवाद में उपन्यास विधा केंद्रीय है और दलितवाद में आत्मकथा। यथार्थ की संगति उपन्यास से बैठती है और आत्मकथा की वास्तविकता से। प्रामाणिकता के दावे का दारोमदार वास्तवबोध पर ही टिकता है। आत्मकथा ही वह कसौटी है, जो दलित साहित्य का दायरा निश्चित करती है। दलित साहित्य गैर-दलित नहीं लिख सकते, यह निकष आत्मकथा से उपजा है। जाति संरचना को तोड़ने के लिए ‘व्यक्ति’ का निर्माण जरूरी है। आत्मकथा व्यक्तिसत्ता का रेखांकन है, थोपी गई पहचान के विरुद्ध व्यक्तित्वार्जन की प्रक्रिया का दस्तावेज है। अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के चलते प्रगतिवाद में ‘व्यक्ति’ के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। आत्मकथा लेखन के प्रयास प्रगतिवाद के उत्तरवर्ती काल में अवश्य हुए, मगर उनकी मंशा और रचना विधान दोनों दलित आत्मकथाओं से मेल नहीं खाते। यह गौरतलब है कि इतने दलित आत्मवृत्तों के बावजूद ‘व्यक्ति’ बनता हुआ नहीं दिखाई पड़ा। व्यक्तिसत्ता का आग्रह जैसे प्रगतिवाद में स्वीकार्य नहीं था कुछ वैसी ही स्थिति दलित साहित्यांदोलन में नजर आती है। आत्मकथा लेखन का फोकस समुदाय पर है, जाति-समुदाय पर। ये आत्मकथाएं सुप्त समुदाय को जाग्रत होते, संगठित होते, प्रतिरोध करते दर्शाती हैं।

दलित आत्मकथाओं के बारे में सामान्यीकरण करते हुए कुछ कहना अभी बेहद मुश्किल है। दलित अस्मिता के समरूपीकरण में भी ये आत्मकथाएं बाधा बन सकती हैं। इनका वैविध्य बताता है कि दलित समुदाय की बहुस्तरीयता इनके बगैर सामने नहीं आ सकती थी। इस विधा का एक और ध्यातव्य पहलू है। तमाम दलित आत्मकथाकारों ने अपनी आत्मकथा का दूसरा खंड भी लिखा है। पहले और दूसरे खंड में कुछ उल्लेखनीय भिन्नताएं दृष्टिगत होती हैं। प्राय: पहला खंड ग्रामीण पृष्ठभूमि की हकीकत बयान करता है। आत्मकथाकार के चरम संघर्ष का साक्षी यही भाग बनता है।  दूसरा भाग शहरी पृष्ठभूमि में रचा जाता है। आत्मकथाकार के ‘सेटल’ होने, नौकरी मिलने, लेखक के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद का जीवन पूर्ववर्ती हिस्से से गुणात्मक रूप से अलग होता है। पहले खंड में जातिगत अपमान और हिंसा का अनवरत सिलसिला मिलता है तो दूसरे में अवमानना के ‘बेतरतीब’ दंश मिलते हैं। जिस ‘पियर ग्रुप’ में अब उसका उठना-बैठना है वह पहले के संगी-साथियों से बिलकुल मुख्तलिफ है। पहले खंड के आधार पर जिस ‘वास्तविक’ दलित की छवि निर्मित हुई थी, स्वयं आत्मकथाकार द्वारा उसे अब मुड़ कर देखा भर जा सकता है। बांग्ला के दलित लेखकों ने अपनी एक वार्षिक ‘संगीति’ (विचार-गोष्ठी) इस मुद्दे पर की थी कि गांव की अपनी ही बिरादरी से अलंघ्य लगती खाई को कैसे पाटा जा सकता है। अगर जातितंत्र को समझे बिना दलित आत्मकथाओं के पहले खंड को समझना दुष्कर है, तो अर्थतंत्र की जानकारी दूसरे खंड के लिए अनिवार्य है। जाति और वर्ग शोषक व्यवस्था के दो सिरे हैं। दलित स्त्री की आत्मकथाओं में बेशक तीसरा सिरा ‘जेंडर’ का जुड़ जाता है और इस तरह भारतीय शोषणतंत्र की मुकम्मल कार्यप्रणाली सामने आती है।