हाल ही में दिल्ली सरकार के एक मंत्री की एक महिला के साथ सीडी सामने आई तो बावेला मच गया। कुछ लोग इसे आपत्तिजनक कहने लगे, तो बहुतों ने कहा कि यह तो सहमति का मामला है। महिला के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं की गई है। कई महिलाओं ने सोशल साइटों पर लिखा कि कोई अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकता है। वह पैसे लेकर कर रहा है या पैसे देकर इससे किसी को क्या!  पिछले साल यूरोपीय संघ ने एक कानून पर सहमति जताई थी, जिसके अंतर्गत सेक्स खरीदना अपराध करार दिया गया। यानी गलती सेक्स बेचने वाले की नहीं, खरीदने वाले की मानी जाएगी। मतलब, इस मामले में सहमति जैसे शब्द की कोई गुंजाइश नहीं।

पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि स्त्रीमुक्ति का एकमात्र मुद्दा सेक्स बना दिया गया है। बेजिंग महिला सम्मेलन की यह घोषणा कि यह मेरा शरीर है और इसका जो चाहे करूं को बढ़ा कर एक तरह से यौन दासी में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है। क्या हम नहीं जानते कि इस दुनिया में आदमियों के लिए इससे बेहतर कोई स्थिति नहीं कि वे चाहे जितनी औरतों से जब चाहें संबंध बना लें और कोई जिम्मेदारी भी न हो। औरतों की सारी लड़ाई वह सब कुछ करने की तो हर्गिज नहीं है, जिनसे उन्हें हमेशा शिकायत रही है। जिनसे बचाव के लिए तरह-तरह के कानून की मांग की जाती रही है। आखिर औरतों के जीवन में सेक्स के अलावा भी बहुत कुछ है। उनकी शिक्षा-दीक्षा है, आत्मनिर्भरता है। हम देखते हैं कि इन मसलों पर प्राय: चर्चा नहीं होती, क्योंकि इन सब बातों को सरकार के भरोसे छोड़ कर मुक्ति पा ली जाती है।

बहुत सारे संबंधों की वकालत अगर औरतें करें तो अकसर मीडिया और तमाम तरह के प्रचार माध्यमों के लिए यह बेहद चटखारेदार खबर बनती है। आज से तीस-चालीस साल पहले भी कहा जाता था कि बलात्कार बहुत रसदार खबर होती है। इसमें इस अपराध के कारण सताई जाती औरतों को बिल्कुल भुला दिया जाता था। शायद आज भी ऐसा हो रहा है। मेरा शरीर मेरा है तो उस पर मेरा ही अधिकार होना चाहिए न कि ढेर सारे उन पुरुषों का, जो मजे लेकर चलते बनेंगे। यह एक तरह से उसी पुरुष-विमर्श में हिस्सेदारी है, जो इस पुरुषवादी दुनिया को हमेशा से बहुत पसंद रही है। मेरा शरीर मेरा अपना है इस बात को ग्लैमर वर्ल्ड ने तरह-तरह के उद्योगों से जोड़ दिया है और औरतों की सुंदरता की नई परिभाषा गढ़ी है- सेक्सी इज ब्यूटीफुल।  औरत की एकमात्र छवि, सेक्सी छवि, जो बिक सके। कामनाओं को जगा सके। और ये कामनाएं अगर जगें तो वे सिर्फ उस उत्पाद को नहीं खरीदतीं, चाहे जिस लड़की को अपनी अंकशायिनी बनाने के सपने देखती हैं। और लड़की के मना करने भर से कभी तेजाब फेंकती हैं तो कभी बलात्कार, नृशंस हत्याएं और औरतों के प्रति तरह-तरह के अपराध करवाती हैं। क्या औरतों को सचमुच अपने शरीर का मालिकाना हक मिल गया है। नहीं, वह किसी शैंपू, डिओ, कार, कपड़े, घड़ी, किसी मोबाइल में कैद है। वह शरीर उतना ही उघड़ता है जितना चाहा जाता है। फ्री-सेक्स को सिरे चढ़ा कर औरतों को भ्रम में रखा जा सकता है कि देखो तुम तो आजाद हो। फिर मेरे माल को बेचने के लिए अगर सारे कपड़े भी उतारने पड़ें तो शर्म कैसी। आखिर स्त्री-विमर्श शरमाने से मना करता है कि नहीं।

और जैसे ही दूसरों के कहे से चलने वाली यह अपने शरीर की मालकिन पैंतीस की होती है, फौरन उसका शरीर दूसरों का हो जाता है। ग्लैमर के लिए पैंतीस की औरत, इतनी झुर्रियां, इतनी परिपक्वता नहीं चलेगी! अपने-अपने शरीर की हजारों मालकिनें लाइन लगाए हैं, चल हट। पेज थ्री की पार्टियों में छाई रहने वाली ये महिलाएं पलक झपकने से भी जल्दी भुला दी जाती हैं। आम लड़की, गांव-कस्बे में रहने वाली असंख्य लड़कियां, इसकी सफलता के किस्सों से चाहे इस जैसी बनना चाहें, मगर इस औरत के मन के गहरे अंधेरे और दूसरों द्वारा इसके शरीर पर सफलता का झुनझुना दिखा कर किए गए अत्याचार दिखाई नहीं देते। बल्कि लालची उद्योग ने पूरी दुनिया की स्त्रियों को एक जैसी छवि में कैद करने में सफलता पाई है, जहां स्त्री सिर्फ उनके उत्पाद को बेचने का औजार है। इसके लिए मुनाफाखोरों ने स्त्री-विमर्श की तमाम बातों को एक सुनहरे अवसर की तरह से देखा है।

कहने का आशय यह कतई नहीं कि औरतों को घर में बंद हो जाना चाहिए, गज भर का घूंघट निकाल कर पतिदेव के चरण दबाने चाहिए। यहां सिर्फ उन बातों की तरफ इशारा किया जा रहा है, जिन्हें सशक्त महिला की छवि के शहद में परोसा जाता है। इस शहद पर लालच के रूप में चिपकी मक्खियां किसी को दिखाई नही देतीं। औरत के शरीर से व्यापार का बाजार गरम हो तो भला किसी को क्या तकलीफ। स्त्रीवाद के नाम पर पोर्न से लेकर हर वह बात जो अंतत: औरत के लिए ढेरों मुसीबतें लाती है, उसका समर्थन किया जा रहा है। एक तरफ फ्री-सेक्स और मल्टीपल पार्टनर्स को मेरी मरजी का मामला बताया जा रहा है, मगर इन बातों के जरिए जो अनेक प्रकार की बीमारियां लगती हैं, सर्वाइकल कैंसर तक फैलता है, जिसे अंतत: औरतें झेलती हैं, उसका कहीं जिक्र तक नहीं होता।

और दुनिया भर में फैली यह सशक्त औरत एक जैसी है। मातृभाषा के मुकाबले अंगरेजी, पैंट, शर्ट, ऊंची एड़ी, चश्मा, मोबाइल, कटे बाल, हमेशा जवान दिखने की ललक, अकारण एग्रेसिव, सिगरेट और आगे बढ़ो तो दारू पीती। फिल्मों, धारावाहिकों, गानों, विज्ञापनों से लेकर साहित्य तक में औरत की इसी छवि का बोलबाला है। सोचिए कि दुनिया की सारी औरतें जिन्हें इन दिनों आधी आबादी कहा जाता है, अगर एक जैसी दिखने लगें, एक तरह से बोलने लगें, सोचने लगें, तो यह दुनिया कैसी होगी। शायद बेहद उबाऊ और डरावनी। मगर जो औरत इन कपड़ों को नहीं पहनती, इन चीजों का इस्तेमाल नहीं करती, जो छवियां रात-दिन परोसी जाती हैं वैसी नहीं दिखती, तो वह कमजोर है, उसकी बात की कोई कीमत नहीं, उसके पास कोई विचार नहीं और सर्वोपरि उसकी कोई क्लास नहीं, यह कैसे मान लिया गया।

सच तो यह है कि जो स्त्रियां सप्रयास बनाई गई छवियों जैसी नहीं दिखतीं वे बहनजी, कस्बाई और घर की कामवाली बनने लायक मानी जाती हैं। औरत को सेक्सी कहने वालों से बाजार भरा पड़ा है। उसे बुद्धिमान, होशियार, स्वाभिमानी कहने वाले दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते, क्योंकि इस तरह की औरत का न कोई लेवाल है, न वह बिकाऊ है।
औरतों की आजादी एक महत्त्वपूर्ण बात है। अपने प्रयासों से औरतों ने बहुत हद तक इसे पाने में कामयाबी भी हासिल की है, मगर हमें यह जानना चाहिए कि पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई चीज कहीं नहीं होती। अपनी आजादी चाहिए तो दूसरे की आजादी की रक्षा करनी पड़ती है। दूसरे की आजादी बचे, तभी अपनी आजादी भी बच सकती है। यानी आपके अलावा जो भी दूसरे हैं उनके अधिकारों की रक्षा करनी पड़ती है, तभी अपने अधिकार चल पाते हैं। अपनी आजादी बनी रह सकती है।