ओम थानवी

छब्बीस वर्ष पहले आतंकवाद के चरम दौर में जब जनसत्ता का चंडीगढ़ संस्करण संभालने गया, तब भी मित्रों ने कुछ ऐेसे ही आगाह किया था; भारत-पाक तनाव के बीच पहले-पहल जब लाहौर गया तब भी; और पिछले दिनों जब विश्व सामाजिक मंच, या वर्ल्ड सोशल फोरम (डब्लूएसएफ), का चौदहवां सम्मेलन ट्यूनिसिया की राजधानी ट्यूनिस में आहूत हुआ तब भी मित्र फिक्रमंद थे- कि जाना टल सकता हो तो टाल देना चाहिए।

दरअसल पांच दिनों का सम्मेलन शुरू होने के ठीक पहले आइसिस के आतंकवादियों ने ट्यूनिस के बारदो संग्रहालय पर हमला कर इक्कीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। मारे गए अधिकतर लोग ट्यूनिसिया की सैर को आए सैलानी थे। जाहिर है, विश्व सामाजिक मंच के आयोजन से जुड़े समूह भी सोचते कि सम्मेलन करें या टाल दें। कार्यक्रमों के बंदोबस्त से बड़ी फिक्र उन्हें यह रही होगी कि इतने बड़े हादसे के फौरन बाद क्या विभिन्न देशों के संभागी पहुंच पाएंगे।

उचित ही आयोजकों ने सम्मेलन न टालने का फैसला किया, भले संभागी कम आएं। आयोजन रद्द करने का मतलब होता दहशत फैला कर शांति और सौहार्द की कोशिशें विफल करने वालों की साजिश को सफल होने देना।

और देखिए, वहां पहुंच कर क्या पाया कि सवा सौ देशों से पचास हजार से ज्यादा संभागी आ चुके हैं। साढ़े चार हजार संगठनों ने पंजीकरण करवा लिया है और गोष्ठियों-बैठकों आदि के बारह सौ कार्यक्रमों की सूची छप कर तैयार है। यह भी सुना कि हादसे की वजह से वीजा जारी करने का काम नौकरशाही में गड़बड़ा गया, वरना शिरकत और ज्यादा होती। असल में ट्यूनिसिया छोटा देश है, दूतावास में इक्के-दुक्के लोग होते हैं। सारा काम ट्यूनिस में केंद्रित है, जहां से हर वीजा की अनुमति जारी होती है! सच्चाई यह कि मैं खुद विदेश मंत्रालय के दखल से वीजा वक्त पर ले पाया!

सोशल फोरम का आगाज बारह बरस पहले ब्राजील के पोर्तो एलेग्रो शहर में हुआ था। नवउदारवाद के अर्थतंत्र को पनपाने वाले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के जवाब में वर्ल्ड सोशल फोरम। ब्राजील के सम्मेलन में नोम चोम्स्की, अडोल्फो पेरेस, अरुंधति राय, प्रभाष जोशी आदि जाने-माने लोग शामिल हुए थे। आगे, 2004 में, सम्मेलन मुंबई में हुआ। उसमें मुझे भी शामिल होने का मौका मिला। फिर दो साल पहले ट्यूनिस में हुए सम्मेलन में भी। अब अपने आप को इसका हिस्सा मानने लगा हूं।

फोरम की खासियत यह है कि इसका कोई एक नेता नहीं है, न एक संगठन है; न आयोजनों में सुनिश्चित एजेंडा रहता है, न घोषणापत्र या अंतिम प्रस्ताव आदि पेश किए जाते हैं। पूंजीवाद और बाजारवाद, उपनिवेशवाद, आतंकवाद, नस्लवाद, सांप्रदायिकता, गैर-बराबरी आदि के खिलाफ सोचने, कुछ करना चाहने वाले कार्यकर्ता, विचारक, कलाकार, लेखक, पत्रकार, शिक्षक आदि अपनी-अपनी विचारधाराओं की गांठें खोल कर एक जगह जमा होते हैं। विजय प्रताप इस विश्व-मंच को ‘संसार की चौपाल’ कहते हैं- विध्वंस के खिलाफ बेहतर दुनिया की चाह रखने वाले स्वातंत्र्यचेता और प्रगतिचेता लोगों का अपना एक नितांत खुला मंच।

लेकिन यह ‘चौपाल’ बड़ी ताकत बन जाती है जब अहिंसा, शांति और सौहार्द, न्याय, खाद्य संप्रभुता, कृषक, पशुपालक और श्रमिक अधिकार, विस्थापन समस्या, पर्यावरण सुरक्षा, नागरिक अधिकार, नारी चेतना, बाल-अधिकार, अनौपचारिक शिक्षा, आदिवासी संरक्षण, स्वतंत्र संचार-माध्यमों आदि पर हो रहे संवाद एक आवाज बन जाते हैं। शायद इसीलिए फोरम या मंच का नारा है- ‘‘इतर दुनिया मुमकिन है’’।

मगर आयोजन ट्यूनिस में दुबारा क्यों हुआ? असल में अरब लीग के मुल्कों में ट्यूनिसिया ही है, जहां 2014 में क्रांति हुई। इसे क्रांति की बयार (अरब स्प्रिंग) भी कहा जाता है। तेईस बरस ट्यूनिसिया में आततायी बेन अली का राज था। जन-आंदोलन ने उन्हें अपदस्थ कर मुल्क के बाहर खदेड़ दिया। नए दौर में रूढ़ियों से मुक्ति, नारी-चेतना, कट््टरवाद की काट, शिक्षा और कृषि सुधार आदि की कोशिशें शुरू हुर्इं। ऐसे में सोशल फोरम के जरिए नैतिक समर्थन और आसपास की दुनिया में उत्साह जगाने के लिए ट्यूनिस से बेहतर जगह क्या हो सकती थी।

इस दफा भी सम्मेलन अल मनार विश्वविद्यालय की पहाड़ी पर हुआ। फर्क इतना था कि सुरक्षा व्यवस्था, स्वाभाविक तौर पर, ज्यादी कड़ी थी। कमरों में छोटे समूहों के संवाद थे, तंबुओं में अपेक्षया बड़ी गोष्ठियां। चलते-चलाते नुक्कड़ सभाएं। अनौपचारिक परिवेश के नाते पहनावे, भाषा और प्रदर्शनों आदि का वैविध्य। नारों-नगाड़ों के बीच यह वैविध्य सम्मेलन के विराट उद्घाटन-जुलूस में देखते बनता था, जो सायास उस संग्रहालय की देहरी पर जाकर पूरा हुआ, जहां आतंकवादी हमला हुआ था।

हमारे समूह का नेतृत्व वसुधैव कुटुंबकम और हरित स्वराज मुहिम के संस्थापकों विजय प्रताप और मार्को उलविला के जिम्मे था। मार्को भले इन दिनों हेल्सिंकी में सिएमेन्पू संगठन के अध्यक्ष हो गए हैं, पर उनका पहनावा वही खादी भंडार का कुरता और बंद गले का कोट रहता है। समूह के अनेक कार्यक्रम मुख्यत: स्वराज, समावेशी लोकतंत्र, जलवायु परिवर्तन और न्याय की मुहिम, वैश्विक तापमान संकट से निपटने के उपायों की विफलता और विकल्पों की खोज पर केंद्रित थे। लेकिन सबसे विशद और दूरदराज के संभागियों में जिज्ञासा जगाने वाला कार्यक्रम ‘जीवन में इसलाम के मायने’ रहा।

इसलाम पर चर्चा में इरफान इंजीनियर, प्रो. शैल मायाराम, मोहम्मद उस्मान आरिफ, राकेश भट्ट, उवैस सुलतान खान और खुद विजय प्रताप ने शिरकत की। सबने अपने तर्इं इसलाम की खूबियों और प्रचलित भ्रांतियों पर बात की। आरिफ साहब ने बहुत खूबसूरती से कुरान, मौलाना रूमी और स्वामी विवेकानंद के हवाले देते हुए कहा कि कैसे धर्म जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं। ‘‘इसलाम पुल बनाता है, खाई नहीं खोदता। मुश्किल यह है कि हम कुछ आयतों को तो याद रखते हैं, पर उन्हें भुला देते हैं जो भाईचारे, उदार हृदय और परोपकार का संदेश देती हैं।’’

शैल मायाराम को मैंने दो सत्रों में सुना। ‘इसलाम’ वाली गोष्ठी में उन्होंने कहा कि यूरोपीय प्रबोधन (एनलाइटनमेंट) के जवाब हमें सूफी परंपरा में मिलते हैं और इसलामी सत्ता और चरमपंथी धारा का तोड़ भी। ट्यूनिसिया के ही सूफी हसन सीदी बेलहसन से लेकर दक्षिण एशिया में चिश्ती और कादरी मत की उन्होंने सुंदर व्याख्या की। बताया कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से शुरू हुआ सिलसिला किस तरह कुतुबुद्दीन, बाबा फरीद, नसीरूद्दीन, निजामुद्दीन औलिया, बंदानवाज गेसूदराज आदि से उत्तर में पनपा और दक्कन जा पहुंचा। कव्वाली आदि माध्यमों की चर्चा करते हुए प्रो. शैल ने कहा- दर्शन और धर्म वहां एक साथ आते हैं, जबकि यूरोप ने दर्शन और धर्म को आपस में बांट दिया।

पारिस्थितिकी अर्थतंत्र की बात करने वाले असीम श्रीवास्तव को विभिन्न देशों के जिज्ञासु श्रोताओं के बीच सुनना मेरे लिए उपलब्धि रहा। गांधीजी के स्वराज की सहज-सरल व्याख्या करते हुए असीम बोले कि इस पद का अनुवाद किया ही नहीं जा सकता। यहां ‘स्व’ समाज का व्यापक रूपक है। उन्होंने गांधी-विचार के बारे में, खासकर विकास और तकनीक-उद्योग के मामले में दुष्प्रचार की कलई सहज और प्रामाणिक हवालों से खोली। पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) के तारतम्य के लिए प्रकृति से साहचर्य को उन्होंने गांधी जीवन-दर्शन की धुरी बताया। उनके संबोधन की अध्यक्षता मार्को उलविला ने की। उन्होंने गांधी-विचार को मौजूदा हिंसक और तनाव में जीते समाजों के लिए सबसे कारगर विचारधारा ही नहीं, जीवन-शैली भी बताया।

सोशल फोरम की विभिन्न गोष्ठियों में गांधी की चर्चा किसी न किसी रूप में सुनाई दे जाती थी। क्या पश्चिम में गांधी-विचार को लेकर नई चेतना का संचार है? क्या सोशल फोरम इसका मंच बनेगा?

सोशल फोरम जैसे हमखयालों के जमावड़े का खयाल सबसे पहले ब्राजील में खिलौने बनाने वाले एक व्यवसायी ओदेद ग्राज्यू के जेहन में आया था। उनके शब्दों में- यह प्रतियोगिता का जमाना है, जिसके प्रतीक वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम, विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) और अन्य इदारे हैं। प्रतियोगिता के बरक्स समाज की एकजुटता को खड़ा करना होगा- मानें कि हमें युद्ध और शांति के बीच किसी एक का चुनाव करना है।

ग्राज्यू कहते हैं कि विकल्पों का अंत नहीं हुआ है। थोड़े-से लोगों को बहुसंख्य समाज का शोषण करने का अधिकार जरूर मिला हुआ है, क्योंकि ज्यादातर लोग न बेहतर विकल्प खोज पा रहे हैं, न इसमें उनका यकीन है, न वे बदलाव के लिए खुद को संगठित कर पा रहे हैं।

समावेशी लोकतंत्र पर केंद्रित संवाद में विजय प्रताप ने इसी दिशा में विकल्पों की पड़ताल सामने रखते हुए कहा कि विखंडनकारी दौर में कॉरपोरेट यानी बड़े व्यापारिक घराने अधिकतम मुनाफे के लिए सरकारों से साठगांठ कर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। भूमि को अधिग्रहित करने वाले कानून वास्तव में भूमि पर कब्जा करने के कानून हैं, जो किसानों की हालत और बदतर कर रहे हैं।

विभिन्न गोष्ठियों में आशिष कोठारी, टोड बिजार्क, सौम्य दत्ता, संध्या महात्रे, सुधीरेंद्र शर्मा, विभोर जुयाल, इंदिरा अधिकारी आदि को भी सुना। यों और गोष्ठयों में अनेकानेक लोग बोले होंगे, पर सबको सबके लिए सुनना मुमकिन कहां होता है!

हां, संवादों में कुछ अपनी बात कहने का मौका भी मिला। भारतीय राजनीति की नई करवटों में जनता पार्टी के बाद आप पार्टी के उभार की मैंने बात की। जन-केंद्रित राजनीति में अहं की टकराहट के बीच मतदाता के फिर विकल्पहीन होने की आशंका भी जाहिर की। खेती को हाशिए पर धकेलने की कॉरपोरेट प्रेरित साजिशों के साथ पशुपालन को पूरी तरह अप्रासंगिक कर दिए जाने की ओर ध्यान खींचा।

ट्यूनिसिया में फ्रेंच और भारत में अंगरेजी के दबदबे के हवाले देते हुए मैंने देशज भाषाओं को राज-काज और न्याय-व्यवस्था से दूर रखने से होने वाले नतीजों का ब्योरा दिया। इस प्रवृत्ति से जन-विरोधी राजनीति को बल मिलेगा, इस बात से अनेक ने सहमति जाहिर की।
सम्मेलन का समापन भी एक और विशाल जुलूस के साथ हुआ। फिलस्तीन संघर्ष के समर्थन वाले नारों-बैनरों के साथ यह लंबी पदयात्रा ट्यूनिस के क्रांति चौक से शुरू और फिलस्तीन दूतावास पहुंच कर विसर्जित हुई।

 

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