अपूर्वानंद

तुच्छता या क्षुद्रता क्या मानवीय स्वभाव का अनिवार्य अंग है? या कुछ लोग स्वभावत: क्षुद्र होते हैं और उनकी क्षुद्रता मौका मिलते ही भद्रता के आवरण को फाड़ कर निकल पड़ती है? क्या कुछ ऐसे अवसर होते हैं, जो इसे उभर आने में सहायक भर होते हैं? क्या हमें बतौर इंसान हमेशा सचेत रहना पड़ता है कि तुच्छता हमें घेर न ले? एक समाज या समूह के तौर पर कब हम तुच्छ या क्षुद्र हो जाते हैं? तुच्छता का विलोम क्या उदात्त है? क्या वह उदात्त का अभाव है? क्या तुच्छता और मूर्खता के बीच कोई सीधा रिश्ता है? क्या तुच्छता और हिंसा का कोई अनिवार्य रिश्ता है? सत्ता और क्षुद्रता के बीच किस तरह का संबंध है? ये प्रश्न मात्र दर्शन या साहित्य के नहीं, हम रोजमर्रा की जिंदगी में बराबर इनसे टकराते हैं। ये प्रश्न राजनीति के तो हैं ही। लेकिन प्राय: इस पर ठहर कर विचार नहीं किया जाता।

अभी हाल में सेंट स्टीफेंस कॉलेज के प्राचार्य ने अपने एक छात्र के निलंबन का आदेश दिया। उसका अपराध यह था कि एक ऑनलाइन पत्रिका में उसने प्राचार्य का इंटरव्यू, उनके मुताबिक बिना उनकी इजाजत के, प्रकाशित कर दिया था। इसे भारी अनुशासनहीनता मानते हुए पहले तो उस पत्रिका के प्रकाशन पर रोक लगाई गई। ध्यान रहे, यह कोई कॉलेज की अपनी पत्रिका नहीं थी। बाद में संपादक छात्रों को अनुशासन तोड़ने का अपराधी मानते हुए माफी मांगने को कहा गया। ऐसा करने से इनकार करने पर एक छात्र के निलंबन का आदेश दिया गया। छात्र ने इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी और उसने इस आदेश को स्थगित कर दिया।

अब प्राचार्य का कहना है कि वे कानून के पाबंद नागरिक हैं और अदालत के फैसले को मानेंगे। चाहे तो कोई कह सकता है कि यह उनकी इच्छा नहीं। वे न्यायालय का आदेश न मानने को स्वतंत्र नहीं। उसकी अवहेलना करने पर दंड का भय है। हां, अगर अनुशासन समिति के यह कहने के बावजूद कि छात्र दोषी हैं, वे उन्हें माफी मांगने को बाध्य न करते और दंडात्मक कार्रवाई न करते तो माना जाता कि उन्होंने बड़प्पन दिखाया है। ऐसा न करके कॉलेज प्रशासन ने क्षुद्रता का ही परिचय दिया। और यह शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के खिलाफ है। वह क्षुद्रता से उबरने और उदारता अर्जित करने का उद्यम ही तो है। वरना ज्ञान किस काम का!

दो वर्ष पहले देश के एक बड़े विश्वविद्यालय के कुलपति ने आदेश जारी करवाया कि सुरक्षा गार्डों से उनकी कुर्सी ले ली जाए। बताया जाता है कि जब वे अपने बंगले से निकलने को हुए तो गेट खोलने में गार्ड को कुछ देर हो गई। इससे वे खफा हो उठे और उसे फौरन निलंबित कर दिया, बाकी के लिए यह आदेश जारी करवाया। जलती धूप हो या कड़ाके की ठंड, गार्ड आठ घंटे की ड्यूटी खड़े-खड़े करें। गार्ड इसका विरोध नहीं कर सकते, क्योंकि वे एक निजी सुरक्षा एजेंसी के कर्मचारी हैं, जो कभी भी उन्हें बर्खास्त कर सकती है।

विश्वविद्यालय ने यह आदेश औपचारिक तौर पर जारी भी नहीं किया। उसने एजेंसी को कहा कि वह चुस्ती और चौकन्नेपन के नाम पर यह करे। इस तरह अपने निर्णय की सार्वजनिक आलोचना से बचने की एक सुरक्षित औपचारिक राह उसने निकाली। यह अपनी सत्ता के इस्तेमाल का ऐसा उदाहरण था, जिसके लिए क्षुद्रता के अलावा और कोई शब्द नहीं। यह साहस का अभाव ही कहा जाएगा, जहां आप अपने फैसले की जिम्मेदारी नहीं लेते। तो क्या क्षुद्रता अनिवार्यत: कायरता भी है?

क्षुद्रता पर एक बहस इन दिनों देश के प्रधानमंत्री के विदेश यात्रा के दौरान दिए गए वक्तव्यों के बाद उठ खड़ी हुई है। उन्होंने कनाडा में आप्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा कि जिन्हें गंदगी करनी थी करके चले गए, हम तो अब उसकी सफाई करेंगे। इशारा, इशारा भी नहीं था। यह पिछली सरकारों पर सीधा हमला था। या इसके पहले उन्होंने कहा कि अब भारत भिखारी नहीं रहेगा। जर्मनी में उन्होंने वहां संस्कृत में बुलेटिन के प्रसारण का हवाला देते हुए कहा कि भारत में सेक्युलरिज्म के चलते ऐसा नहीं हो पाया और कटाक्ष किया कि एक भाषा से सेक्युलरिज्म कमजोर नहीं होता।

कांग्रेस पार्टी ने इस पर आपत्ति जताई है। उसका तर्क है कि प्रधानमंत्री विदेशों में देश की राजनीति कर रहे हैं। यह अशोभनीय और क्षुद्र हरकत है। यह इसके अलावा कि जो वे कहते रहे वह तथ्यत: भी सही नहीं था। मसलन, संस्कृत में समाचार-बुलेटिन रेडियो और टेलिविजन पर जमाने से प्रसारित हो रहा है। देश का प्रधानमंत्री असत्य का सहारा ले, इससे गिरी हुई बात और क्या हो सकती है? जानबूझ कर झूठ बोलना, जिससे अपने प्रतिद्वंद्वी को हरा सकें और वह भी तब जब वह उत्तर देने की हालत में न हो, क्षुद्र हरकत है। फिर क्या असत्य और क्षुद्रता का भी रिश्ता है?

प्रधानमंत्री और उनके दल का तर्क हो सकता है कि वे तो भारतीयों को ही संबोधित कर रहे थे, जो वहां रह रहे हैं और इस तरह वे देश के भीतर ही थे। भारतीयों से भारत की बात न करें, तो किनसे करें! इसे भी एक प्रकार की क्षुद्रता ही माना जाएगा, क्योंकि जब आप दूसरे देश जाते हैं तो वहां ‘दूसरे’ से मिलने, उसे पहचानने और समझने की जिम्मेदारी से जाते हैं। ऐसा न करके अपनी सुरक्षित भारतीयता को हर जगह खोज लेना एक प्रकार की संकीर्णता है। दोहरी नागरिकता वाले भारतीय देश की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं। तो क्या देश के पैसे पर प्रधानमंत्री अपना सतत चुनाव अभियान चला रहे हैं? याद नहीं आता कि किसी प्रधानमंत्री की यात्राओं में इतने सुनियोजित तरीके से आप्रवासियों की जनसभाएं की गई हों। यह क्या एक प्रकार की असुरक्षा है, जो हर जगह अपनों को खोजती है? क्या इस संकीर्णता से भी क्षुद्रता का कोई संबंध है?

मानव स्वभाव में क्षुद्रता की आशंका बनी ही रहती है। हम सब पलट कर देखें तो इसके चंगुल में कभी न कभी आए हो सकते हैं। असल बात है इस आशंका के प्रति सजगता। और उससे निरंतर संघर्ष। सत्ता से न तो उदात्तता आती है और न शालीनता। उसके लिए ज्ञान चाहिए। ज्ञान ही हमें अपनी अस्तित्वगत अवस्था से अवगत कराता है और मानवीय या सामाजिक संबंधों के बीच अपनी अवस्थिति का अहसास भी कराता है। उससे न सिर्फ अपनी नश्वरता का बोध होता है, बल्कि तदर्थता का भी।

क्षुद्रता से बचने का एक तरीका है खुद से बाहर निकलना, अपनी तरह के लोगों के बीच ही न रहना। निरंतर अन्य और भिन्न का संधान अपने संकरेपन का अतिक्रमण करने में सहायता करता है। दूसरा तरीका है अपनी सतह से ऊंची सतह के लोगों का सान्निध्य। जवाहरलाल नेहरू ने गांधी को याद करते हुए लिखा है कि उनके सामने आपके सारे क्षुद्र भाव दब जाते थे और वे आपका उदात्तीकरण करते थे। लेकिन गांधी के सारे फैसले क्षुद्रता से मुक्त हों, कहना कठिन है। अपनी असाधारण लोकप्रियता के बल पर उपवास करके आंबेडकर को झुकाना कोई उदात्त कृत्य नहीं था। वैसे ही सुभाषचंद्र बोस की जगह पट्टाभि सीतारामैया के लिए मत देने का आग्रह भी। लेकिन गांधी को इसकी सुविधा थी कि वे हीनतर लोगों के संपर्क में नहीं थे। वही सुविधा उनके सहयोगियों को थी।

जब चारों ओर क्षुद्रता का राज हो, तो मुश्किल होती है और अपने आंतरिक संसाधनों पर ही निर्भर रहना होता है या महान साहित्य और विचारों के साथ समय गुजारना होता है। जैसे उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलनों का काल उदात्त कहा जा सकता है, वैसे ही आज का समय अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर क्षुद्रता का ही कहा जा सकता है। क्षुद्रता और हिंसा का। इसलिए लगता है, कई अवसर आते हैं जब सार्वजनिकता से दूर रह कर ही क्षुद्रता से बचा जा सकता है। यह चुनौती व्यक्तिगत संरक्षण की नहीं है।

जिंदगी हमेशा बड़े फैसलों का जोड़ नहीं होती। वह छोटे-छोटे निर्णयों से ही मिल कर बनती है, जो हर दिन हमें लगातार करने होते हैं। लेकिन छोटे और क्षुद्र में हम अंतर करते हैं।

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