अशोक वाजपेयी

हालांकि मुक्तिबोध से अधिक शायद ही किसी और ने हमारे समय के अंधेरे को लिखा हो, उनसे जिन बहुतों को साहित्य और विचार का उजाला मिला, उनमें से एक भाग्यशाली मैं हूं। एक तरह से सावधानी और ध्यान से कविता पढ़ने की शुरुआत जब हुई तो आयु तेरह-चौदह बरस की ही थी। मुक्तिबोध को पढ़ना और कई बार न समझ पाना सोलह-सत्रह की आयु से शुरू हुआ। दिसंबर 1957 के साहित्यकार सम्मेलन में भाग लेने के बाद मुक्तिबोध के साथ इलाहाबाद से लौटने की याद मुझे इसलिए भी है कि उन्होंने रेल के डिब्बे में अपने टीन के ट्रंक से अपनी कविता ‘उपकृत हूं’ निकाल कर उसकी नकल कर मुझे अपनी पत्रिका ‘समवेत’ के लिए दी थी। वह दूसरे अंक में छपी भी।

1958-59 में मुक्तिबोध सागर विश्वविद्यालय की कोर्ट की बैठक में हर वर्ष सागर आते थे। हमारी संस्था ‘रचना’ में उन्होंने ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ शीर्षक व्याख्यान दिया था और 1959 में हम कुछ मित्रों ने लगभग स्तब्ध हो जाते हुए ‘अंधेरे में’ कविता के आरंभिक प्रारूप का उनसे पाठ सुना था। 1959 से 1964 के बीच उनसे पत्राचार भी होता रहा। ये पत्र ‘मेरे युवजन मेरे परिजन’ पुस्तक में प्रकाशित हैं। 1961 में गरमी की छुट््टी में एक दिन और रात मैंने राजनांदगांव में उनके घर बिताई थी। फिर मुलाकात 1964 की मई में उनसे हमीदिया अस्पताल में हुई, उनके कोमा में अपनी सितंबर 1964 में हुई मृत्यु के चारेक दिन पहले।

उसी दौरान उनसे रुग्णशय्या पर उनके पहले कविता संग्रह के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के अनुबंध पर दस्तखत कराए थे। इस सारे दौरान एक युवा लेखक के रूप में मैं आश्वस्त था कि वे एक बड़े लेखक हैं और वे पूरी तरह से अनाश्वस्त। उनका पहला संग्रह उनके जीते-जी सागर के एक प्रकाशक से निकल जाता अगर वे संकोचवश अपनी पांडुलिपि देने से इनकार न करते। बहरहाल, उनकी लंबी कविता, जिसे उचित ही अब हिंदी के एक क्लैसिक का दर्जा प्राप्त है, ‘अंधेरे में’ का पाठ एक गोष्ठी में श्रीकांत वर्मा के गले के थक जाने के बाद मैंने किया था।

मुक्तिबोध के पहले संग्रह का नाम ‘सहर्ष स्वीकारा है’ से बदल कर ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ करवाने में मेरी भूमिका थी और उसकी तरतीब भी ‘भूल-गलती’ कविता से शुरू कर ‘अंधेरे में’ पर समाप्त करने का काम, नेमिचंद्र जैन के निर्देशन में, करने का सुयोग भी हुआ था। उसी दौरान नेमिजी की सुपुत्री रश्मि से परिचय-प्रणय हुआ और दो बरस बाद हमने विवाह किया। मुक्तिबोध पर जो आरंभिक निबंध लिखे गए, उनमें 1964 में लिखा मेरा निबंध ‘भयानक खबर की कविता’ अक्तूबर 1964 में दिल्ली में हुई एक गोष्ठी में मूलत: अंगरेजी में पढ़ा गया था।

मुक्तिबोध ने मेरे जीवन में जो उजाला भरा उससे उऋण हो पाना एक जीवन में असंभव ही है। फिर भी, भारतीय प्रशासन सेवा में आने के बाद मैंने यथासंभव कोशिश की कि समाज की ओर उनके जीवनकाल में जो कुछ देय उन्हें नहीं मिल सका, उसका कुछ परिहार हो। 1974 में मध्यप्रदेश सरकार ने युवा लेखकों के लिए मुक्तिबोध फेलोशिप स्थापित की और पहले पाने वाले विनोद कुमार शुक्ल ने अपना पहला उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ उसी के अंतर्गत लिखा। 1980 में मध्यप्रदेश सरकार ने ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के एक हजार सेट खरीदने का अग्रिम आदेश दिया, जिस कारण उसका प्रकाशन संभव हुआ।

उसी वर्ष मणि कौल ने हमारे लिए ‘सतह से उठता आदमी’ फिल्म बनाई, जिसे कान फिल्म समारोह में दिखाए जाने का निमंत्रण मिला। उसी वर्ष सागर विश्वविद्यालय में हमने मुक्तिबोध सृजनपीठ स्थापित किया। यह कथा लंबी है और लगभग असमाप्य। मुक्तिबोध का उजाला लगभग साठ बरसों में भी धूमिल या मैला नहीं हो पाया इस अचरज से उबरना कठिन है। ऐसी शुभकामना भर की जा सकती है कि अगले जन्म में भी यह उजाला वैसा ही मुक्तिबोधी निर्मल-निश्छल और पवित्र मिलता रहे। एक छोटी-सी जिंदगी, कुल सैंतालीस बरसों की; लेकिन उसने कितनी और जिंदगियों में, अपने अंधेरे के बावजूद, भरपूर उजाला भरा!

आसानी का आकर्षण

हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जिसमें हर चीज के आसान किए जाने पर बहुत बल दिया जा रहा है। जटिलता और कठिनाई लगभग पाप मान लिए गए हैं। पाकविद्या से लेकर संचार, संप्रेषण, अभिव्यक्ति आदि सभी क्षेत्रों में यह मांग बढ़ती जाती है कि चीजें आसान होनी चाहिए। इस आग्रह में यह बात धुंधली पड़ गई है कि न तो मनुष्य का अस्तित्व, न उसका आंतरिक जीवन; न व्यापक सच्चाई न उसका कर्मसंसार; न उसके संबंध और विडंबनाएं सरल हैं; न उनका आसान इजहार मुमकिन है। न उन्हें आसानी से समझा-सहा जा सकता है। आसानी की तलाश जानवरों के लिए काफी हो सकती है, मनुष्य के लिए वह अभीष्ट नहीं है। अभीष्ट हो भी तो ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य में ऐसी आसानी का आग्रह घातक हो सकता है, क्योंकि वह सच्चाई का सरलीकरण करता है।

साहित्य में सरलता-सुगमता का आग्रह पुराना है। अकादेमिक हलकों तक में इसकी मान्यता है। हिंदी मीडिया भी खासकर यह भ्रम फैलाता रहता है कि आजकल साहित्य लोकप्रिय या बहुपठित इसलिए नहीं है कि वह जटिल या दुर्बोध है। अव्वल तो यह सही नहीं है। सारा साहित्य या सभी कलाकृतियां कभी भी ऐसी नहीं होतीं। सो आज भी नहीं हैं। थोड़ी-सी कोशिश करें तो आपको अधिकांश रचनाएं समझ-पकड़ में आ जाती हैं। जिन्हें बहुत लोकप्रिय माना जाता है, मसलन कबीर या तुलसी, वे जटिल कवि हैं- उनका वितान मानवीय प्रयत्न और नियति की जटिलता से संबंधित है और इस जटिलता को नजरंदाज कर उनका महत्त्व नहीं आंका जा सकता। निराला, प्रसाद, जैनेंद्र, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर आदि सभी जटिल हैं और यह उनके महत्त्व का आधार है, भले वह उन्हें लोकप्रिय होने से रोकता हो।

हर लेखक या कलाकार की आकांक्षा संप्रेषण की होती है: कुछ इसके लिए समझौता करते या रियायत देते हैं। सौभाग्य से ऐसे भी हैं, जो आसानी के लालच से बच कर अपना सच पूरी ईमानदारी और साहस से, उसकी सारी जटिलता में व्यक्त करने का जोखिम उठाते हैं। साहित्य के भूगोल में, मानवीय विडंबना और अंतर्विरोध की हमारी समझ में, भाषा की संभावना में ऐसे ही लोग महत्त्वपूर्ण इजाफा करते हैं। मनुष्य हर समय एक जटिल इकाई रहा है, इसे भूलना या भुलाने की कोशिश करना दरअसल कम मनुष्य होना है।

कुछ संदेह

नई सरकार संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ कर रही है उसे लेकर अनेक संदेह उठ रहे हैं। वक्तव्य के स्तर पर वह हमारी सांस्कृतिक-धार्मिक बहुलता के सम्मान करने का आश्वासन दे रही है। कर्म के स्तर पर इस बहुलता को नष्ट-दूषित-विकृत करने की जो शक्तियां हैं उन्हें उसका मूक समर्थन मिल रहा है। कम से कम वह उनकी अनदेखी कर उन्हें बढ़ावा ही दे रही है। यह दुचित्तापन नहीं, शायद सोची-समझी रणनीति है।

ललित कला अकादेमी को सरकार ने भंग कर वहां एक प्रशासक बैठा दिया है। उस प्रशासक ने, ऐसी खबर है, पिछले प्रशासन ने उसमें संरचनात्मक बदलाव, आचरण की स्वच्छता आदि के लिए जो कदम उठाए थे उन्हें समाप्त कर पिछली दुर्व्यवस्था को कम-ज्यादा बहाल करने की कोशिश शुरू कर दी है। पूरी तरह से साबित भ्रष्टाचारी अफसर को वापस लाने का उपक्रम हो रहा है। ऐसी अफवाहें हैं कि इसके लिए लाखों रुपए खर्च किए गए हैं। दिल्ली को यूनेस्को द्वारा ‘हैरिटेज सिटी’ घोषित करने का प्रस्ताव कई बरसों से विचाराधीन रहा है और लग यह रहा था कि ऐसी मान्यता यूनेस्को देने के काफी नजदीक पहुंच गया है।

संस्कृति मंत्रालय ने बिना कोई कारण बताए यकायक इस प्रस्ताव को अभी स्थगित करने का फैसला कर लिया। सारे दिल्ली-प्रेमी विशेषज्ञ इस अबूझ फैसले को लेकर उद्वेलित हैं और लगातार उसके विरुद्ध लिखा जा रहा है। अफवाह यह है कि राजधानी में मनमाने तौर पर इमारतें आदि बनाने वालों की लॉबी ने यह फैसला करवाया है ताकि वे उन बंदिशों से कुछ बरस मुक्त होकर अपना निर्माण-व्यवसाय दिल्ली की विरासत को ताक पर रख कर कर सकें। अफवाह यह भी है कि इसमें भी लाखों रुपए इस लॉबी ने खर्च किए हैं। यह पहली बार है कि भारत सरकार का एक अपेक्षाकृत नगण्य मंत्रालय भ्रष्ट आचरण के आरोपों से घिर रहा है। अगर ये आरोप निराधार हैं तो फिर सरकार को इन दोनों फैसलों पर जनहित में पुनर्विचार करना चाहिए। संस्कृति में संरचनात्मक व्यवस्था के साथ ऐसी कुंदजहन छेड़छाड़ फौरन बंद होनी चाहिए। संस्कृति जोड़ने का परिसर है, उसे तोड़ने का चौगान मत बनाइए!

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