तरुण विजय
दूब पर चलने का मखमली अहसास जिन्हें हुआ है उन्होंने कभी सोचा न होगा कि दूब क्या कहती है। उसे कभी नंगे पांव चलने वालों की नरमी, तो कभी जूतों तले दबने का दर्द होता होगा। पर कभी शिकायत की भला? वह कटती है, छंटती है, बढ़ती है। शिकायत किए बिना रहती है। और यह उसकी अपनी यानी दूर्वा होने की ही शक्ति है कि इस सबके बावजूद अगर गणपति पूजन में सबसे पहली अनिवार्यता होती है तो वह दूब की ही होती है। वह आदिकाल से पवित्र, पूजन में चढ़ने की पात्र, गणपति और देवों की प्रिय, आराधना का साधन ही रही, उससे कम नहीं।
जनता भी ऐसी ही है। कभी सहती है, कभी बहती है।
सब पर यकीन कर लेती है। तुम भी ठीक। हां, चलो तुम भी ठीक।
ठगी भी जाती है तो कुनमुना कर अपने में ही सिमटी रहती है। शिकायत करे भी तो किससे? एक जमाना था, कोई पुराना युग रहा होगा, जब किसी की शिकायतों पर कार्रवाई हुआ करती थी। अब तो जो शिकायत करे वही कठघरे में धर लिया जाता है।
कितना सहा इस कम्बख्त, नामुराद जनता ने। फले-फूले तो सिर्फ नेता और अफसर। अठारह बार दिल्ली उजड़ी। इसे जनसंहार झेलने पड़े। अठारह बार। गिनती गिनिए तो रूह कांप उठेगी। पर स्मृति है क्या? स्मृतिहीन शासन तुरंत वोट ढूंढ़ता है। अठारह बार जो शहर रक्तरंजित हुआ हो, उसके हर कोने में स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों की कातर पुकारें, चीखें गूंजती ही होंगी। सुनने वाले चाहिए। वरना हम यूनुस मलिक और गिलानी में मुल्क ढूंढ़ते रहेंगे।
स्मृतिहीन मुल्क और स्मृतिहीन शासन सिर्फ वेतन और कुर्सी के तानेबाने में नई यादें बनाता है। दिनकर भूमिहार हो जाते हैं। शिवाजी कुर्मी। और राणा प्रताप राजस्थान के लोगों का मसला बन कर रह जाते हैं। अपने देश के, अपने लोगों के भिन्न-भिन्न चेहरे, उनकी जुबानें पहचानने वाले खत्म हो जाते हैं, जो मुझे वोट देता है, मैं उसी का चेहरा पहचानूंगा, उसी के इर्द-गिर्द अपना मुल्क देखूंगा। बाकी से क्या?
और दूर्वा बनी रहती है जनता। सत्ता की तेज धूप सहते हुए भी, न शिकायत करने वाली जनता। उसे तो कभी-कभी भीड़ बनना है। जंतर मंतर या कहीं और। उसे नारा बनना है। उसे सुनना है कि जनता कितनी शक्तिशाली और विवेकपूर्ण होती है कि वह सत्ता बदल देती है, नेता बदल देती है, तख्ता पलट कर देती है, विद्रोह करती है। सब कुछ जनता के हाथों में ही होता है। ये तमाम नाते-रिश्तेदार, दोस्त, अमीर लोगों के अमीर करीबी जो बीएमडब्ल्यू और मर्क में सांझ रोशन करते हैं, सब जनता के चाकर ही होते हैं।
जनता यह सब सुनती है, हंसती है, वोट देती है, फिर नर्म तलवों या जूतों तले रौंदे जाने के लिए तैयार हो जाती है।
धूप का अहंकार और गुस्सा देखा है आपने? यही धूप सत्ता है। सत्ता का अपना स्वभाव होता है। राग-रंग से परे धूप का स्वभाव। गुस्सा ऐसा कि देखने भर से, सिर्फ यों देखा तनिक वक्र दृष्टि किए, तो दूर्वा भस्म हो जाए। कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। इतनी केंद्रीभूत आग्नेय दृष्टि होती है कि क्रोध उस दृष्टि-पथ से उतर कर बहती नदी के जल पर पड़े तो नदी बहना भूल, दहक उठे, जल उठे, उबल जाए।
तो दूर्वा क्या करे?
वैसे भी राजनीति मित्रहीन होती है। यहां केवल अनुयायी या चाकर होंगे या फिर शत्रु। मित्र नहीं। जो स्वयं को सत्तासीन प्रभुओं का मित्र कहने का दावा भी करते होंगे, वे दरअसल होते तो सिर्फ चाकर हैं, पर अपनी झेंप मिटाने के लिए मित्रता का पैबंद लगा लबादा ओढ़े रहते हैं।
एक बार हमने पूछा भी- सर इतना गुस्सा क्यों करते हैं? इतने अमले, इतने मनसबदार, इतने खिताब चारों तरफ इकट्ठा कर, बड़ी-बड़ी और फिर बड़ी-बड़ी, और फिर ज्यादा प्रभाव बढ़ा तो उसके अनुपात में और बड़ी कोठी में दुइ ठौ जन रहते कैसे हैं सर? बिटिया से मिलने जाते वक्त भी काले कपड़ों में हथियार लिए और हूटर का शोर मचाती गाड़ियों से मृर्त्य लोक के वोटरों को हिकारत से हटो हटो कहने वाले सिपाही क्यों ले जाते हैं सर? थोड़ा कभी बाजार से सब्जी लाने का भी सुख लीजिए न सर?
पता चला हम सपने में बतिया रहे थे। सर तो बहुत गुस्सा गए। बोले बहुत सोचने लगे हैं आप? सूची से हटा दिए गए।
दूर्वा को इतना ही सुख है कि वह यह सब देखती है। बोलती नहीं। समझती है, जाहिर करती नहीं।
धूप समझती है दूर्वा अनपढ़ है। गरीब और देहाती है। गुच्ची, मों ब्लां, बुलगारी और यानी कि वह सब जिससे धूप कुछ और धूप हो जाती है, दूर्वा के पास तो हैं नहीं। दूर्वा के पास खेत, खलिहान, धरती से जुड़ते पांव, पानी और मिट््टी हैं। चींटियां हैं, मिट््टी कोपलटते केंचुए हैं, टूटे और साबुत पत्थर हैं। छांह भी है कि थक-हार कर कोई लेट जाए तो पलकें नीद से बोझिल मुंद जाएं। और फिर दूर्वा के गणपति हैं। दूर्वा के बिना तो गणपति मानते नहीं।
थकी हुई काया से, आशाहीन, आभाहीन चेहरे लिए लोग, लाउडस्पीकरों के शोर से तनिक दूर होकर लड़खड़ाते अक्षरों को शब्दों का रूप देते-देते दूर्वा के पास ही आ गिरते हैं। मिट्टी के लोंदे की तरह। दूर्वा में उन्हें, अपनी नन्ही पतली, क्षीणकाय बांहों में दुलारने की ताकत होती है। आत्मीयता को काया नहीं, मन की दरकार होती है।
धूप के पास सब कुछ होगा, मन तो दूर्वा के पास ही मिलता है।
इस धूपिया राजनीति का अहंकार, राजनेताओं का गुस्सा दिल्ली को व्याख्यायित करता है। यह गुस्सा और अहंकार अपनी विनम्रता के इश्तिहार बंटवा कर खुद को अमर मान लेता है, तो यक्ष और युधिष्ठिर दोनों ही हंस पड़ते हैं।
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