महाराष्ट्र सरकार ने फैसला किया कि मुंबई में छह से नौ बजे के प्राइम टाइम में मल्टीप्लेक्सों को एक मराठी फिल्म दिखानी होगी। इस पर शोभा डे ने कहा कि मैं कब कौन-सी फिल्म देखना चाहती हूं, इसका फैसला मुझे करने दीजिए। सरकार को किसी पर कुछ थोपना नहीं चाहिए। हालांकि मल्टीप्लेक्स मालिकों के विरोध के बाद सरकार ने इस फैसले को बदल दिया है। अब बारह से नौ बजे के बीच कभी भी मराठी फिल्में दिखाई जा सकती हैं।

लेकिन शोभा डे के पीछे शिवसेना पड़ गई कि उन्होंने मराठी संस्कृति का अपमान किया है। प्रतिवाद में शोभा डे को सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करनी पड़ी कि वे मराठी फिल्मों की कितनी बड़ी प्रशंसक हैं, कि उनका डीएनए सौ प्रतिशत मराठी है। वे पूरी जिंदगी मुंबई में रही हैं। इस शहर और मराठी संस्कृति को प्यार करती हैं। यानी एक लेखिका को कट््टरपंथियों को खुश करने के लिए उन्हीं की भाषा बोलनी पड़ी। वैसे वे पहले भी कह चुकी हैं कि मुंबई में रहने वालों को मराठी आनी चाहिए। ठीक बात है। आप जहां रहते हैं, अगर वहां की भाषा नहीं जानते तो काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन भाषा के मामले में यह भी तो सही है कि जिसे जरूरत होगी वह उसे सीखेगा। इसमें जोर-जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए। बंगाल के हिंदीभाषी मारवाड़ी बहुत अच्छी बांग्ला बोलते हैं। असम में भी यही हाल है। क्योंकि इन व्यापारियों को पता था कि अगर वे स्थानीय भाषा नहीं जानेंगे, तो वहां के लोगों की जरूरत को नहीं समझ पाएंगे और व्यापार नहीं चलेगा। इसलिए किसी पर भाषा को नहीं थोपा जा सकता। जरूरत सब कुछ सिखा देती है।

शोभा डे ने कहा कि वे पूरी जिंदगी मुंबई में रही हैं। बाल ठाकरे को चार दशक से जानती थीं। उनके सेंस आॅफ ह्यूमर की कायल थीं। शोभा डे, जिनका मायके में रहते समय नाम शोभा राज्याध्यक्ष था। फिर किलाचंद से विवाह करके वह किलाचंद बनीं। उनसे अलग होने के बाद उन्होंने पानी के जहाजों के व्यापारी दिलीप डे से विवाह किया। विवाह से पहले वे मॉडलिंग कर चुकी हैं। सोसाइटी और स्टारडस्ट जैसी पत्रिकाओं की संपादक थीं। हिंगरेजी या हिंग्लिश को शुरू करने का श्रेय भी इन्हीं पत्रिकाओं के जरिए शोभा डे को दिया जा सकता है।

फिल्मी दुनिया की रग-रग से वाकिफ हैं। सोशलाइट इवनिंग और स्टारी नाइट्स नाम की उनकी किताबें बहुत मशहूर हुई थीं। उनकी किताबों में यौनाचार का वर्णन बहुत खुले रूप में आता है। वे बहुत से अखबारों में स्तंभ लिखती हैं और तेजाबी टिप्पणियों के लिए जानी जाती हैं। उन्हें देख कर कोई उनकी उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता। सत्तर के आसपास तो वे जरूर होंगी। वे एक बेहद साधन-संपन्न और अमीर महिला हैं। इसलिए शिवसेना के खिलाफ उनका यह कहना कि उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा है, इसलिए झुकेंगी नहीं, देख कर आश्चर्य होता है। क्योंकि पैसे वाले लोग आमतौर पर अड़ियल रुख नहीं अपनाते। खासकर राजनीतिक दलों से तो वे बच कर निकलने में ही भलाई समझते हैं।

शिवसेना ने भी उन पर हमला बोल कर चर्चा में आने की कोशिश की, क्योंकि जितने बड़े आदमी पर हमला होगा, उतनी ही चर्चा होगी। जिस पर हमला किया गया जितनी चर्चा उसकी होगी हमलावर भी बराबर का कवरेज पाएगा। वैसे महाराष्ट्र में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। शिवसेना की देखादेखी अन्य दल भी मराठी स्वाभिमान के नाम पर इसे हवा देने में लग गए। शोभा डे के खिलाफ महाराष्ट्र विधानसभा में जब विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाया गया तो किसी राजनीतिक दल ने उसका विरोध नहीं किया। डे को जवाब देने के लिए एक हफ्ते का समय दिया गया। अब उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अनुचित करार दे दिया है।

महाराष्ट्र में शिवसेना पहले भी अपने विरोधियों पर हल्ला बोलती रही है। ‘आपलां महानगर’ के संपादक निखिल वागले, मणिमाला आदि ने उनके हमले झेले हैं। पिछले दिनों लोकमत के दफ्तर पर भी उन्होंने हल्ला बोला था।
जिन बाल ठाकरे को मरने के बाद ईश्वर बना दिया गया, यह सब उन्हीं के जमाने में हुआ था। उन्होंने एक बार बड़े गर्व से कहा था कि हिंदू को उग्रवादी चेहरा तो मैंने ही दिया है। मुसलमानों से वोट का अधिकार छीन लिया जाए, यह बात भी उन्होंने ही कही थी। हम लोग अपने लोकतंत्र पर बहुत फिदा हुए जाते हैं। कहते नहीं अघाते कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन यह कैसा लोकतंत्र है, जहां तानाशाही विचारों और उनके जरिए समाज में आग लगाने वालों की पूजा होती है। सारे कातिलों और अपहरणकर्ताओं के दरवाजे पर राजनीतिक दल कतार बांध कर हाथ जोड़े खड़े रहते हैं कि हुजूर आइए हमारी पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ लीजिए।

अस्मिता की राजनीति के जमाने में नए-नए देवता बन रहे हैं। यहां तक कि रणवीरसेना, जिसने मासूम दलितों की बिहार में हत्या की थी, उसके कातिलों को भी देवता का दर्जा दे दिया जाता है और कोई कुछ नहीं कहता। हर प्रदेश अपने-अपने देवता गढ़ने में लगा है। कहीं एमजीआर, कहीं एनटीआर, कहीं ठाकरे तो कहीं ममता बनर्जी। इन देवताओं के बारे में कोई कुछ बोल-लिख नहीं सकता। लिखते ही राजनीतिक दल अपने नायक का अपमान बता कर इतना शोर मचाते हैं कि आम जनता को लगता है कि सचमुच उसका अपमान किया गया है।

सालों पहले स्वराज नाम का धारावाहिक आता था। उसमें सुभाषचंद्र बोस को शराब पीते दिखाया गया। बस तूफान खड़ा हो गया। माकपा के निर्मल चटर्जी ने संसद में सवाल उठाया था। जैसे कि शराब पीने पर सुभाषचंद्र बोस इस देश के नायक नहीं रहते। आग लगाने और जनता को भड़काने में कोई कम नहीं है। जनता सड़कों पर निकल पड़ती है। उसे उपद्रव की आग में झोंक कर नेता दाएं-बाएं हो लेते हैं। उनकी भेद नीति सफल हो गई होती है। मुसलमान मुसलमान की तरफ; ईसाई ईसाई की तरफ; सिख सिख की तरफ; हिंदू हिंदू की तरफ। सबको अपने-अपने लिए बांट लो।

आज शायद ही किसी को इस बात पर गर्व है कि वह भारतीय है। कोई तमिल होकर, तो कोई बिहार का होकर; कोई मराठी होकर, तो कोई बंगाली होकर गौरवान्वित है। यही नहीं, सब अपनी-अपनी भाषा, संस्कृति को महान कहते हैं। अब कोई भी अपने समाज में सुधार की बात नहीं करता, क्योंकि जब सब कुछ महान के खाते में है, तो सुधार की जरूरत ही कहां है। यही नहीं, अब तो बात यहां तक आ पहुंची है कि हमारा खानपान भी महान। शोभा डे के बारे में शिवसेना की प्रवक्ता मनीषा ने कहा भी कि उन्होंने न केवल मराठी फिल्मों का, बल्कि हमारे खानपान का भी मजाक उड़ाया है। क्योंकि शोभा डे ने लिखा था कि क्या अब मराठी फिल्में देखते वक्त थिएटरों में पॉपकार्न की जगह वड़ा-पाव और दही-मिशल मिला करेगा! शिवसेना के लोग जब उनके घर के सामने प्रदर्शन करने पहुंचे, तो इन खाद्य पदार्थों से भरी थाली भी ले गए थे।

हैरानी की बात यह है कि शोभा डे के पक्ष में अभी तक किसी लेखक संगठन ने कुछ नहीं कहा।

 

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