उर्दू गजल बेशक इश्क केंद्रित विधा रही है, लेकिन इसी इश्क के जरिए उर्दू गजल में जीवन-मृत्यु जैसा चिंतन, मानवतावादी सोच, सूफियाना फक्कड़पन, प्रकृति का नायाब चित्रण और दर्द के बहाने जीवन दर्शन भी विषय बनते रहे हैं। उर्दू गजल में मिथकों की भी अनदेखी नहीं की गई। इसकी लंबी परंपरा रही है। इसके आरंभ में अरबी-फारसी मिथकों-प्रतीकों का प्रयोग बड़ी शानो-शौकत से किया जाता था। काबा, कलीसा, कोहेतूर, शेख, बिरहमन, सैय्याद, बुलबुल, मीना, साकी, सुबू, पैमाना जैसे अनेक मिथक और प्रतीक अब भी हमारे जेहन में होंगे, बेशक!
लेकिन उर्दू की जदीद गजल ने न सिर्फ भाषागत सहजता पर बल दिया, बल्कि वह ज्यादा सामाजिक और भारतीय होती चली गई। इसने भाषा, मुहावरा, प्रतीक, विषय और मिथकीय प्रयोग में भी जमीनी हकीकत को सामने रखा। इसमें भारतीय मिथकों का प्रयोग केवल प्रयोग के स्तर तक सीमित नहीं रहा, बल्कि गजल के अश्आर में इनकी उपस्थिति बड़ी संवेदना, हार्दिकता और शिद्दत के साथ हुई। यह उर्दू गजल में महाकाव्यों के मिथकीय पात्रों के जरिए आख्यान उपस्थित करने की भी कलात्मक कोशिश थी। मसलन, पाकिस्तान के शायर जमीलुद्दीन आली का यह दोहा, जिसमें रामायण के पात्र एक तरफ, तो दूसरी तरफ मैं का द्वंद्व और घनघोर अवसाद: ‘आली’ तू जो चाहे कहे जाहिर तेरा अंजाम/ सौ-सौ रावण तेरे बैरी, तू लक्ष्मण न राम!
जॉन एलिया, उर्दू के जदीद शायर, जो विभाजन के दौरान पाकिस्तान चले गए, लेकिन हिंदुस्तान हमेशा उनके दिल में मौजूद रहा। स्मृतियों को उन्होंने अपनी शायरी का सरमाया बनाया। गंगा-जमुना जैसी नदियों को याद करते हुए गजल लिखी। ‘मत पूछो कितना गमगीं हूं गंगाजी और जमुनाजी/ क्या मैं तुमको याद नहीं हूं गंगाजी और जमुनाजी/ अपने किनारे से कह दीजो आंसू तुमको रोते हैं/ अब मैं अपना सोगनाशीं हूं गंगाजी और जमुनाजी/ अब तो यहां के मौसम मुझसे ऐसी उम्मीदें रखते हैं/ जैसे हमेशा से मैं यहीं हूं गंगाजी और जमुनाजी।’
मिथक सिर्फ संस्कृति की पहचान नहीं कराते, बल्कि रचना के जरिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास भी पैदा करते हैं। उर्दू गजल में राम, कृष्ण, सीता, लक्ष्मण, रावण, कृष्ण, कंस, द्रोपदी, राधा, धृतराष्ट्र, कर्ण, दुर्योधन, अभिमन्यु, युधिष्ठिर, अर्जुन, अहिल्या, सावित्री, गंगा, जमुना, हिमालय आदि मिथकों का बड़ी सलाहियत और बड़े शऊर के साथ प्रयोग होता रहा है। भारतीय परिवेश, आस्था और संस्कृति से जुड़े मिथक गजलों में महज चमक पैदा करने के लिए इस्तेमाल नहीं किए गए। अगर ऐसा होता तो ये कृत्रिम और यांत्रिक प्रतीत होते। इनका प्रयोग प्रबल भावना के साथ हुआ है। हिंदी गजल में जो मिथकीय प्रयोग हो रहे हैं उसका श्रेय भी उर्दू गजल को जाता है।
मीर कहते हैं: ‘मीर’ के दीनो-मज़हब को तुम क्या जानो हो उनने तो/ कशका खैंचा दैर में बैठा कबका तर्क इस्लाम किया।’ पौराणिक और महाकाव्यों के मिथकों ने पूरे उपमहाद्वीप को, किसी न किसी रूप में एक सूत्र में बांधे रखने का प्रयास किया है। उर्दू गजल में राम के प्रति रागात्मकता सबसे अधिक है। राम महज दशरथ पुत्र राजा रामचंद्र नहीं हैं। राम एक विनम्रता का पाठ हैं। वे भारतीय जनमानस में, बनवास भोगते, कष्ट सहते, बुराई से लड़ते नायक के रूप में विरामजमान हैं। पाकिस्तान के शायर अफ़ज़ल जाफ़री का एक शेर गौरतलब है: ‘इश्क ने मर के स्वयंवर में इसे जीता है/ दिल श्रीराम है दिलबर की रिजा सीता है।’
शनावर कीरतपुरी राम बनवास को नए संदर्भों से जोड़ कर शेर में आधुनिक बोध पैदा करते हैं: ‘वो राम थे जो काट चुके अपनी मुसाफत/ मैं चौदह बरस बाद भी बन से नहीं लौटा।’ फ़िराक़ गोरखपुरी भी इसी विषय को एक भिन्न रूप में व्यक्त करते हैं। यहां जो मनुष्य का उजाड़ और विस्थापन की वेदना है, वही तो जिंदगी का बनवास है: ‘हर लिया है किसी ने सीता को/ जिंदगी है कि राम का बनवास।’ लेकिन जब इक़बाल कहते हैं- ‘है राम के वुजूद पे हिंदोस्तां को नाज’ तो यह मिसरा इस बात की तस्दीक कराता है कि शेर कहते वक्त इक़बाल को सचमुच गर्व का अहसास हुआ होगा। इसी भावभूमि को शायर ज़फ़र अली खां इस तरह व्यक्त करते हैं: ‘नक्श-ए-तहजीब-ए-हुनर अब भी नुमायां है अगर/ तो वो सीता से है लक्ष्मण से है और राम से है।’
मिथकों के विषय में कहा गया है कि एक कवि अपनी प्रेरणा को मिथक के रूप में, मनुष्य और प्रकृति के बीच अनंत, सीमाहीन, सभ्यताओं से गढ़ता है, जो उसकी कविता की आत्मा हैं। यानी, मिथ अपने सर्जकों का इतिहास है। इसी चेतना को पाकिस्तान के शायर सरशार सिद्दीकी बड़ी मार्मिकता से कहते हैं: ‘जीवन की तपती धूप में हूं/ मैं खुद भगवान के रूप में हूं।’ पाकिस्तान के ही शायर जमील मलिक जीवन की कशमकश, जद्दोजहद को मिथकों और प्रतीकों के जरिए व्यक्त करते हैं तो शेर न सिर्फ अर्थवान हो जाता है, बल्कि वह एक मेयार भी हासिल करता है: ‘क्या जंगल और कैसा सावन/ मुझसे रूठ गए मन भावन।/ मैं तन्हा और लंका दुश्मन, इक सीता और कितने रावन।’ पाकिस्तान की शायरा जेहरा निगाह सीता को मिथकीय किरदार बनाते हुए एक तरह से स्त्री विमर्श भी पैदा करती हैं: ‘सीता को देखे सारा गांव/ आग पे कैसे धरेगी पांव।’
हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, हर शायर को ये मिथक अपने-से प्रतीत हुए, और अभिव्यक्ति के दौरान बड़ी निष्ठा और भावबोध के साथ भारतीय मिथकों का उर्दू गजल में प्रयोग होता रहा। महाभारतकालीन और अन्य पौराणिक मिथकों को, सामयिक यथार्थ से जोड़ कर शेर कहे जाते रहे हैं। ‘मैं वचनबद्ध नहीं भीष्म पितामाह की तरह/ फिर भी मुझसे न कहो छोड़ तरीका अपना।’ सिराज अजमली का शेर।
अपने वर्तमान की अभिव्यक्ति के लिए शायर मिथक का प्रयोग इसलिए भी करते हैं कि एक ही समय में दो कालखंड, एक शेर में महसूस होने लगते हैं। ‘मैं अपने दौर का शंकर हूं इसलिए शायद/ मेरे ही हिस्से में सारी बलाएं आती हैं।’ मैकश अजमेरी। इस जटिल समय में जब मनुष्यता पर संकट गहराने लगा है, मानवतावादी सोच कम हुई है, व्यक्ति न सिर्फ अत्मकेंद्रित हुआ है, वह स्वार्थी, कर्मकांडी और अधैर्य भी हुआ है। ऐसे मुश्किल यथार्थ में फकीराना अंदाज और कबीराना ठाठ की जरूरत है। सूफियाना दर्शन जीवन के लिए लाजमी हो गया है। उर्दू गजल में भारतीय मिथकों के प्रति आदरभाव की जो अभिव्यक्ति हुई है, वह चेतना को स्पर्श करती है। शायरी का यह संसार समाज के लिए किसी पाठशाला की तरह है।
भारतीय मिथकों के प्रयोग में नज़ीर अकबराबादी को बादशहत हासिल है। होली, दीवाली, कृष्ण कन्हैया, गुरुनानक जैसी नज्में लिख कर उन्होंने न सिर्फ शानदार मिथकीय परंपरा का निर्वाह किया, बल्कि कौमी यकजैती का सबूत भी पेश किया है। ‘तारीफ़ करूं, अब मैं क्या क्या, उस मुरली अधर बजैया की/ नित गलियन कुंज फि रैया की और वन-वन गऊ चैराय की/ गोपाल बिहारी बनवासी दुख हरना मेहर करैया की/ गिरधारी सुंदर श्याम बरन और हलधर जू के भैया की/ यह लीला है उस नंद ललन, मनमोहन जसुमती मैया की/ रख ध्यान सुनो दंदौत करो जय बोलो किशन कन्हैया की।’ हमारा समाज गंगा-जमुनी तहजीब का शानदार गुलदस्ता है। यह बहुलतावाद और यह समरसता और यह गंगा-जमुनी तहजीब की लंबी परंपरा है। उर्दू गजल में मिथकीय प्रयोगों से इस बात की तस्दीक होती है कि समरसता की भावना जो समाज में है उसकी जड़ें बहुत मजबूत हैं।