कभी-कभी तो ऐसा लगता है, प्रगतिशील कवियों ने बात-बात पर तन जाने वाली जो बेटियां साहित्य को दीं, बड़ी होकर वे सब लीना जैसी (मीठी फटकार लगाने और सात्विक आक्रोश दिखाने में निपुण) स्त्री-कवि बन गर्इं। लीना और फटकार? एक झलक में बात बनती नहीं जान पड़ती! इतनी संजीदा लड़की और फटकार? ये तो किसी से भर मुंह बोलतीं भी नहीं। ये नहीं बोलतीं, पर इनकी कविताएं तो बोलती हैं न- आपके मन पर पड़ी सब चट्टानों की आखिरी परत तक से इनका दो-टूक संवाद हो जाता है, और उनकी फॉसिलों में दबके पड़े स्नेह के सोते एकदम से फूट जाते हैं। एक महीन अर्थ में इस संग्रह की प्राय: सारी कविताएं राजनीतिक हैं- हर अन्याय को तमाशे की तरह देखते, आपके ही भीतर छिपे उस टुच्चे आदमी को धता बतातीं कविताएं, जिसे एक प्रगतिवादी कवि बरजता रहा था: कभी अभिधा, कभी व्यंजना, कभी लक्षणा में! लीना में व्यंजना का स्वर अधिक प्रबल है और सबसे बड़ी बात यह है कि शायद ही कहीं वे इकहरी होती हैं! लीना जैसी सांद्र ऐंद्रिकता की प्रेम कविताएं भी कम ही स्त्री कवियों ने लिखी हैं। स्त्री-नागरिकता और स्त्री फैंटेसी के अनेक रंग इस संग्रह में एक साथ हैं।

नाव डूबने से नहीं डरती: लीना मलहोत्रा; किताबघर प्रकाशन, 4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 200 रुपए।


एकांकी में सामाजिक परिवर्तन
प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक परिवर्तन का सैद्धांतिक विवेचन करते हुए सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा, उसका अर्थ, परिभाषा और उसकी विशेषताओं को इंगित करते हुए सामाजिक परिवर्तन के कारणों और उसकी प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। सन 1960 से समाज में समानता, नारी स्वातंत्र्य, परंपरागत संबंध, मताधिकार, युवा पीढ़ी का विद्रोह, आर्थिक स्वावलंबन, वर्तमान के प्रति असंतोष, धर्म के प्रति बदलती अवधारणा आदि इसी तरह के जो अनेक परिवर्तन समाज में परिलक्षित हो रहे हैं उन्हें एकांकियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। समकालीन एकांकियों में विषय का वैविध्य है, समसामयिकता की प्रचुरता है। सभी स्तरों पर सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति असंतोष और निराशा की भावना इन एकांकियों में अभिव्यक्त हुई है।

इस किताब में उद्योगीकरण, बढ़ती सांप्रदायिकता के प्रति चिंता, बढ़ती महत्त्वाकांक्षाएं और घटते रोजगार, राजनीति में सक्रिय भागीदारी, प्रेम और विवाह के प्रति बदलती दृष्टि आदि तथ्यों के प्रति आग्रह है। समकालीन हिंदी एकांकियों में सामाजिक परिवर्तन: ममता पानेरी; दृष्टि प्रकाशन, 35/17, प्रताप नगर, जयपुर; 350 रुपए।


अर्थला
मिट्टी से घड़े बनाने वाले मनुष्य ने हजारों वर्षों में अपना भौतिक ज्ञान बढ़ा कर उसी मिट््टी से यूरेनियम छानना भले सीख लिया हो, पर उसके मानसिक विकास की अवस्था आज भी आदिकालीन है। इस पुस्तक की गाथा किसी एक विशिष्ट नायक की नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति, समाज, देश-काल, निर्माण और प्रलय को समेटे हुए एक संपूर्ण युग की है। वह युग, जिसमें देव, दानव, असुर और दैत्य जातियां अपने वर्चस्व पर थीं। यह वह युग था जब देवास्त्रों और ब्रह्मास्त्रों की धमक से धरती कंपित हुआ करती थी। शक्ति प्रदर्शन, भोग के उपकरणों को बढ़ाने, नए संसाधनों पर अधिकार और सर्वोच्च बनने की होड़ ने असुरों और अन्य जातियों के मध्य ऐसे आर्थिक संघर्ष को जन्म दिया, जिसने संपूर्ण जंबू द्वीप को कई बार देवासुर संग्राम की ओर ढकेला। पर इस बार संग्राम-सिंधु की बारी थी। वह अति विनाशकारी महासंग्राम, जो दस देवासुर-संग्रामों से भी अधिक विध्वंसक था। संग्राम-सिंधु गाथा का यह खंड देव, दानव, असुर और अन्य जातियों के इतिहास के साथ देवों की अलौकिक देवशक्ति के मूल आधार को उद्घाटित करता है।

अर्थला: विवेक कुमार; अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद; 175 रुपए।