कुमार प्रशांत

जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: सत्य नारायण साबत की किताब भारत में मानवाधिकार सब कुछ लिखती है, लेकिन दो सौ पृष्ठों की किताब एक यह पंक्ति नहीं लिखती कि आदमी के रूप में जनमते ही उसे कुछ ऐसे अधिकार मिल जाते हैं, जो उसे कोई राज्य, कोई पुरोहित, कोई धर्म, कोई परंपरा या मान्यता छीन नहीं सकती। वे ऐसा एक वाक्य लिखते तो वही कसौटी बन जाती, जिस पर वे बाकी की सारी किताब को जांच सकते थे, और तब उनके अध्याय इतने सपाट और उथले न होते।

मानवाधिकार की धुरी है जन्म से स्वत: प्राप्त होने वाले अधिकार! तिलक महाराज की वह घोषणा अंगरेजों को सुनाने भर के लिए नहीं थी कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे हम लेकर रहेंगे। उनकी यह उत्कट हुंकार समस्त मानव-जाति की तरफ से उन सबको बताने के लिए थी कि जो नाना प्रकार के बंधनों से मनुष्य को बांधने में लगे रहते। हम देखें कि व्यवस्था कैसी भी हो, सभी एक स्वतंत्र इंसान की बात करते हैं और मानवाधिकार से कम का कोई जुमला किसी की जुबान पर होता ही नहीं है, लेकिन वे सभी चाहते यही हैं कि आदमी की स्वतंत्रता का दायरा वे ही तय करें और उसके अधिकारों को भी वही परिभाषित करें।

आज, इक्कीसवीं सदी का पहला दशक जब समाप्त हो चला है, मानवाधिकार की किसी भी चर्चा का प्रारंभ यहीं से होना चाहिए। मैं तो इससे भी आगे जाकर कहूंगा कि अब मानवाधिकार शब्द भी छोटा और कमतर पड़ता है, क्योंकि सारी सृष्टि के चर-अचर अस्तित्वों का अधिकार भी पहचानने, स्वीकार करने और संरक्षित करने का वक्त आ गया है और जब हम यहां से अपना सफर शुरू करते हैं तब यह पहचानने में कोई परेशानी नहीं होती कि सारी सृष्टि के सारे अधिकार एक-दूसरे के पोषक और एक-दूसरे से पोषित ही हैं।

अब बात किताब के बारे में। मुझे अक्सर यह परेशानी होती है कि हमारे यहां शोध-ग्रंथों की बात करते ही लेखक भी और विश्वविद्यालयी उसका गाइड भी सारा कुछ एक सांचे में ढाल कर, निश्चिंत हो जाता है। शोध-ग्रंथों की भाषा भी, उनका विन्यास भी, उनका अध्याय-विभाजन भी, सब कुछ तय है। आपको करना बस इतना है कि आप इस सांचे में अंटने लायक बातें लिखिए। आपने ऐसा जो कुछ लिख दिया, उससे हो गया आपका शोध पूरा! इसलिए मैं शोध-ग्रंथों से घबराता हूं। सत्यनारायण साबत भी इससे अलग नहीं जा सके हैं।

यह बात ज्यादा परेशान करती है, क्योंकि सत्यनारायणजी पुलिस सेवा में हैं और बरास्ते विज्ञान, भारतीय संस्कृति, मानव अधिकार जैसे विषयों को खंगाल चुके हैं। कई ग्रंथों के लेखक हैं और कई के लिए सम्मानित भी हुए हैं। ऐसा आधिकारिक व्यक्ति जब एकदम बेजान भाषा में, जानी-पहचानी बातों की जलेबी बनाता हुआ, भारत में मानवाधिकार को वैदिक काल से आधुनिक काल तक सात अध्यायों में नाप लेता है, तब याद आता है कि वामन रूप में भगवान ने तो तीन डग में सारी धरती ही नाप ली थी! लेकिन भगवान और इंसान में यही तो फर्क है- वे वामन रूप में भी पूर्ण हैं, हम हर रूप में बौने के बौने रह जाते हैं।

मानव के विकास के साथ-साथ उसके अधिकारों का दायरा भी बढ़ा है और अधिकारों की उसकी समझ भी बनी और बढ़ी है। क्या इस विकासक्रम का आकलन करना सबसे अच्छा शोध नहीं होगा? साबतजी लिखते हैं कि ईसा से दूसरी शताब्दी से पूर्व भारतीय राज्यों में राजाओं का चुनाव होता था। यहां यह खोजना बहुत जरूरी नहीं है कि क्या कभी अपवादवश ऐसा हुआ; कि सारे भारतवर्ष में ऐसा ही सामान्य चलन था? फिर शायद यह भी जांचना जरूरी हो कि ‘राजा का चुनाव’ से मतलब क्या होता था? कौन और कैसे खड़ा होता था? उन्हें चुनता कौन था? यह सब जांचेंगे हम तो पता चलेगा कि इसे इस तरह हम पेश नहीं कर सकते कि वहां कोई लोकतांत्रिक समझ थी और चुनाव का कोई खुला तंत्र था!

कोई कहे कि महाभारत काल में महिलाओं को भोग्या नहीं, अर्धांगिनी के रूप में मान्यता प्रदान की गई थी, तो यह प्रश्न तुरंत पूछना पड़ता है कि उसी काल में कुंती के साथ क्या हुआ और द्रौपदी के साथ क्या हुआ? यह तो राज-परिवार था। यहां जब कुंती, द्रौपदी जैसी स्त्रियों की कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं थी तो सामान्य चलन कैसा रहा होगा, इसका शोध हमें करना चाहिए। अगर स्त्री को अर्धांगिनी मानने का चलन था, ऐसा हम कहते हैं तब क्या हम ऐसा भी कोई सूत्र पाते हैं कि पुरुषों में स्वयं को अपनी स्त्री का अर्धांग मानने का बोध भी था? यह उस काल में आज की आधुनिक भाषा खोजने की नहीं, बल्कि यह पहचानने की बात है कि मानवाधिकार की हमारी समझ और परंपरा का विकास हुआ है। अगर तब सब कुछ था तब उसका शोध क्या और क्यों?
पंचम अध्याय में साबतजी महात्मा गांधी के काल में पहुंचते हैं। लेकिन दूसरे अध्यायों की तरह यहां भी वे व्यक्तियों के नामोल्लेख से अधिक कुछ खोज नहीं पाते हैं। मनुष्य के अधिकार और उसकी स्वतंत्रता के प्रश्न पर गांधी खासा टेढ़ा रुख रखते हैं। वह उनके समकालीनों को भी पचता नहीं है। उसकी कोई झलक भी इन पन्नों में नहीं मिलती है। महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद, विनोबा भावे, मानवेंद्रनाथ राय, डॉ आंबेडकर को सौ पन्नों में निबटाना विषय और व्यक्ति दोनों के साथ न्याय नहीं है, फिर आप यह लिख जाते हैं कि रवींद्रनाथ ठाकुर के जीवन का अविस्मरणीय क्षण तब आया, जब 1913 में उनकी कृति को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उसे रवि बाबू ने कभी अपने जीवन का अविस्मरणीय क्षण बताया हो, तो मुझे मालूम नहीं है। यह रवि बाबू की साधना और उनकी उपलब्धियों का कैसा उपहास है कि एक पुरस्कार को हम उनके जीवन का अविस्मरणीय क्षण बना दें! मानवाधिकार की समझ को रवि बाबू ने जैसा विस्तार दिया, उसका गंभीर आकलन होना बाकी है। विनोबा भावे को भी इस क्रम में गहराई से आंकने की जरूरत है।

‘स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में मानवाधिकार संरक्षण के लिए प्रयास’ शीर्षक है सप्तम अध्याय का, जिसमें वैधानिक व्यवस्थाओं का खासा जिक्र है, लेकिन उन परिस्थितियों की बाबत कुछ भी कहा नहीं गया है, जिनके कारण ऐसी वैधानिक व्यवस्थाओं की लगातार जरूरत पड़ती रही! मानवाधिकार का जितना हनन राज्य और समाज करता है, उसकी नैतिक वैधता साबित करने के लिए, उसे उतनी ही वैधानिक व्यवस्थाओं की जरूरत पड़ती है; और वैधानिक व्यवस्थाएं वहीं तक कारगर होती हैं जहां तक राज्य अपनी मर्यादाओं का पालन करता और समाज अपनी मर्यादाओं को मान्य करता है। जब राज्य वैधानिक व्यवस्थाओं से छल करता है और समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता तब मानवाधिकार की वैधानिक व्यवस्थाएं अर्थहीन हो जाती हैं। तब शोध का रुख शायद यह होना चाहिए कि मानवाधिकार के हनन में कौन-कौन-सी ताकतें सक्रिय रहीं और उसका क्या परिणाम समाज ने भुगता?
फिर देश के सारे भू-आंदोलनों पर शोध करना चाहिए और उनमें राज्य की भूमिका का आकलन करना चाहिए; और तब यह तथ्य उजागर होगा कि विनोबा भावे का भूदान आंदोलन दरअस्ल मानवाधिकार की भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को उभारने वाला सबसे रचनात्मक प्रयास था। तब यह समझना भी आसान हो जाएगा कि धुर नक्सलबाड़ी से लेकर आज के नवीनतम माओवादी आंदोलन दरअस्ल अपने मानवाधिकार की फिक्र में दूसरों के मानवाधिकार को अमान्य करने के मकड़जाल में फंस कर क्यों रह गए; और उनकी इस रणनीति ने राज्य को किस प्रकार सारे मानवाधिकारों को कुचलने का वैधानिक आधार दे दिया।

साबतजी की यह पुस्तक साबित करती है कि हमारे यहां की प्रचलित शोध-प्रणाली लेखक, पाठक और वह जिस कागज पर तैयार की जाती है, उस कागज के जनक वृक्षों के मानवाधिकारों का हनन करती है। क्या इसके खिलाफ भी कोई वैधानिक व्यवस्था बनानी चाहिए?

भारत में मानवाधिकार: सत्यनारायण साबत; राधाकृष्ण प्रकाशन, 7/31 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 400 रुपए।

 

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