अशोक वाजपेयी
जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: हममें से अधिकतर लोग यह नहीं समझ पाते कि कब आवाज उठानी चाहिए और कब खामोश रहना चाहिए। अक्सर जब आवाज उठाने का अवसर और जरूरत होती है हम चुप लगा जाते हैं और जब खामोश रहना ज्यादा कारगर और मुनासिब होता, हम आवाज उठा बैठते हैं। कभी यह नासमझी में होता है, कभी कायरता के कारण। कभी हम लोकप्रियता की रौ में बह जाते हैं और चूंकि बहुत सारे आवाज उठा रहे होते हैं, हम भी अपना सुर उनसे मिला देते हैं, बिना सोचे-समझे। कई बार लगता है कि हम न अपनी आवाज के महत्त्व को समझते हैं, न अपनी खामोशी का अर्थ और अभिप्राय जानते हैं। यह पहचानना भी जरूरी है कि कई बार आवाज और खामोशी में गहरा और अप्रीतिकर संबंध होता है। इन दिनों कम से कम दो वक्तव्यों में हमारे नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय समाज में मुसलमानों की स्थिति और रवैए पर विधेयात्मक बयान दिए हैं, जिनसे लगता है कि वे अपने नारे ‘सबका विकास सबका साथ’ को गंभीरता और जिम्मेदारी से ले रहे हैं और भारत की समावेशी समाज-व्यवस्था को स्वीकार कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, वे भारतीय समावेशी बहुधार्मिक लोकतंत्र के मुखिया के रूप में बोल रहे हैं।
लेकिन, जैसा कि मीडिया के कई लोग, अपने संपादकीयों और लेखों आदि में नोट कर चुके हैं कि स्वयं भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य संघ परिवार के घटक और इकाइयां सांप्रदायिक सद्भाव पोसने-बढ़ाने के बजाय ‘लव जिहाद’ आदि कई कार्रवाइयों और वक्तव्यों से अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने में लगे हैं। प्रधानमंत्री इन गतिविधियों के बारे में खामोश हैं, हालांकि वे स्वच्छता आदि अनेक मसलों पर लगातार और जम कर बोल रहे हैं। यहां आवाज उठाने और खामोश रहने के बीच कोई दुस्संबंध है, यही लगने लगता है। वे मुखर होकर अपने समर्थक इन तत्त्वों को उनके लिए जो समर्थन विकसित हुआ है उसे खंडित करने से रोक क्यों नहीं रहे हैं, यह समझ में आना कठिन से कठिनतर होता जाता है। दुष्टबुद्धि यह कहती है कि उन्हें दोनों चाहिए, अपनी शक्ति को संपुंजित करने और बढ़ाने के लिए: वे हिंदूहृदय सम्राट और सर्वधर्मसमभाव के जननायक दोनों एक साथ बनना चाहते हैं। सद्बुद्धि, जिसके अपने में थोड़े अभाव से मैं बखूबी परिचित हूं, कहती है कि चूंकि वे लंबे समय तक भारत के भाग्यविधाता बनना चाहते हैं, समय आने पर वे इन सद्भाव-संहारक तत्त्वों और शक्तियों पर लगाम लगाएंगे। लोगों की नब्ज ठीक पहचानने वाला यह तो जानता ही होगा कि बिना सांप्रदायिक सद्भाव, समावेश की मानसिकता के भारतीय लोकतंत्र चल नहीं सकता और न ही कारगर विकास हो सकता है: देश में वैचारिक या धार्मिक ध्रुवीकरण करने वाला नेता ज्यादा दिन राज नहीं कर सकता।
यह सब सूझा जब हाल में संयोगवश कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों से मुलाकात हुई। वे सभी उदारचित्त लोग हैं और उन्होंने इस्लामी सांप्रदायिकता का भी हर बार घोर विरोध किया है। पर उन सभी का मत है कि इस समय हिंदुओं को अपनी आवाज उठानी चाहिए, मुसलमानों को खामोश रहना चाहिए। शायद यह आकलन सही है। पर हममें से कितने कम आवाज उठा रहे हैं?
गांधी-समय
वर्तमान भारत राजनीति, सामाजिक आचरण और आकांक्षा, आर्थिकी, सांस्कृतिक और वैचारिक संवाद और विमर्श, धर्मों के बीच संवाद और संबंध आदि में गांधी से, उसी के देश में, जितनी दूर जाना संभव है उतनी दूर पहुंच गया है। गांधी अब स्मृति कम, दुस्स्वप्न अधिक हैं। हमारी राजनीति इधर बरसों से जिस तरह राज की सत्ता, बाजार की अनुकूलता, राज की शक्ति और लोलुपता आदि पर एकाग्र होती गई है उसमें लगता है कि इस समय राजनीति में गांधी ही सबसे बड़ा, सशक्त और टिकाऊ प्रतिपक्ष है: राजनीति में राज का नीतिपरक प्रतिपक्ष।
हमारे समय में असत्य, हिंसा, लोभ, उपभोग आदि की जो प्रवृत्तियां खुले और लगभग अश्लील ढंग से विकराल होती, बढ़ती गई हैं उनके बरक्स गांधी-प्रतिरोध विकेंद्रीकृत, कई बार बिखरा हुआ है। गांधी के नाम पर, या उनकी दृष्टि से प्रेरित अब कोई बड़ा जनांदोलन नहीं चलता: छोटी-छोटी पहलें होती हैं- कहीं किसी पंचायत में, किसी पर्यावरण बचाने के स्थानीय अभियान में, किसी शैक्षणिक सुधार के प्रयत्न में गांधी की आभा दीख पड़ती है। हम अक्सर उनकी अनदेखी भी करते रहते हैं, क्योंकि हमारा समय चकाचौंध का है, आभा का नहीं। कई बार महसूस होता है कि जैसे कभी मार्तण्ड की तरह समूचे आकाश पर दमकने वाला अब नन्हे-नन्हे दीयों में, छोटी-छोटी द्युतियों और ज्योतियों में प्रकाशित है: उससे आलोक अब व्यक्तियों को, कुछ समुदायों का मिलता है, पूरे समाज को नहीं। उसके चिकने-चुपड़े और बहुत से तेजी से बढ़ते हिस्से को तो कतई नहीं।
आज से पचास वर्ष पहले गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध लंबी और मरणोत्तर प्रकाशित कविता ‘अंधेरे में’ में गांधी को एक चरित्र बनाया था, जो कविता में कहते हैं:
दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई कुक्कुट कोई भी मुरगा
यदि बांग दे जोरदार बन जाए मसीहा…
वे आगे यह भी कहते हैं:
मिट््टी के लोंदे में किरणीले कण-कण
गुण हैं
जनता के गुणों से ही संभव
भावी का उद्भव
माना कि अंधेरा बढ़ता जाता है और कई बार वह पगडंडी दिखाई भी नहीं पड़ती, जिस पर कहीं गांधी नाम की एक रोशनी, एक लौ टिमटिमा रही है। चकाचौंध से उजले रास्तों से कहीं ज्यादा जरूरी है हमारे लिए यह पगडंडी और उस पर झिलमिलाती रोशनी। गांधी-समय ऐतिहासिक समय नहीं रह गया है- वह बीतता या व्यतीत हो गया समय नहीं है- वह इतिहास के ऊपर, क्षय और पराजय से परे समय है। गांधी-समय हर समय में अब है- हम उसकी खोज, पहचान, पुनराविष्कार कर सकते हैं, कर्म और चिंतन दोनों में। गांधी के पास समय है, हमारे पास नहीं? वे अनुपस्थित उपस्थिति हैं। हमारे बेतहाशा दौड़ते-भागते, बातूनी समय के पार दूसरा समय, पैदल चलता चुपचाप समय!
दूर-पास
कविता अगर बहुत दूर की भी हो तो पास लगती है: शायद हर दूरी को कम या समाप्त करना कविता का एक जरूरी काम जैसा है। ‘पेरू की प्रतिनिधि कविताएं’ शीर्षक से एक त्रिभाषी संकलन रेडिकल इम्प्रेशन कोलकाता ने प्रकाशित किया है। हिंदी अनुवाद सीधे स्पेनिश से बड़ी सुघरता और काव्यसंवेदना से प्रभाती नौटियाल ने किए हैं। कुल इकतीस बरस की आयु में दिवंगत कार्लोस आकेंदो दे आमात्त की ‘मां’ शीर्षक कविता का एक अंश:
एक स्वर्ग तुम्हारी बांहों में मरता है तो दूसरा पैदा होता है तुम्हारी कोमलता में
तुम्हारी बगल में ममत्व खिलता है जैसे एक फूल, जब कभी सोचता हूं
तुम्हारे और क्षितिज के बीच
मेरे शब्द प्राचीन लगते हैं जैसे बारिश या कोई स्तोत्र
क्योंकि तुम्हारे सामने गुलाब और गीत भी रहते हैं खामोश
संभवत: इधर के वर्षों में जिस एक पेरूवियन कवि को बाहर ज्यादा जाना-माना जाता रहा है, वे हैं कार्लोस खेर्मान बेय्यि। उनका एक कवितांश:
मेरे प्यार, तुम्हारे प्यार को उम्मीद है कि मौत
उड़ा ले जाएगी हड्डियां, दांत और नाखून,
उन्हें उम्मीद है कि वहां घाटी में तो
तुम्हारी और मेरी आंखें साथ-साथ रहेंगी,
अपने कोटरों से बाहर देखते हुए,
बल्कि जैसे दो तारे, जैसे बस एक ही हों।
सेसार वाय्येखो की एक गद्य कविता का अंश:
मैं एक भूखे का दर्द देख रहा हूं और देखता हूं कि उसका दर्द मेरी पीड़ा से इतनी दूर निकल चुका है कि मैं अगर मृत्यु तक भी उपवास रखूं, तो हमेशा कम से कम मेरी कब्र से घास की एक पत्ती तो बाहर निकलेगी ही। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि कोई प्रेमी। कितना अधिक लहू बनता है उसका मेरी तुलना में जिसका न कोई स्रोत है और न कोई उपभोग।
आंतोनियो सिस्नेरोस अपनी एक कविता में कहते हैं: ‘अंधेरा अच्छे प्यार की पहरेदारी नहीं करता है/ आकाश को होना चाहिए नीला और दोस्ताना/ एक छत की तरह स्वच्छ और गोल…’
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