तरुण विजय

जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: जिंदगी सिर्फ उन बड़े कामों के लिए बीत जाती है, जिन्हें हम जीने के लिए जरूरी मानते हैं। काम बहुत है, चाहे वह किसी भी स्तर का कामगार कर्मचारी या अधिकारी हो या अध्यापक और अन्य व्यवसाय से जुड़ा। मेहनत तो लगती ही है। घर से बाहर कदम रखते ही पैसा चाहिए। दाल, सब्जी, फल, दूध, डिश टीवी, साइकिल, स्कूटर का खर्च, कभी-कभी मनपसंद सब्जी लेने का भी जी हो आता है। बच्चा जिद करे कि आज दूध नहीं, चॉकलेट आइसक्रीम लेनी है तो आप क्या करेंगे? यात्राओं का खर्च कितने लोग उठा पाते हैं? देश विशेषाधिकार वाले लोगों का इलाका ज्यादा बन गया है। बाकी दस-पंद्रह साल बाद अचानक देखते हैं कि उनकी बिटिया या गुड््डू राम कॉलेज में पहुंच गए हैं। पता ही नहीं चला जिंदगी की जद्दोजहद और एक सिरे से दूसरा सिरा बढ़ाने के काम में ये पंद्रह साल कैसे बीत गए। पर बहुत दबाव में भी, पूरा बजट न होते हुए भी तय कर लिया जाए कि आज फिल्म देखनी ही है, तो उसका सुख कुछ और ही होता है।

जोधपुर जाते हुए ध्यान आया कि अपने पसंदीदा गीतों की सीडी तो घर छूट गई है और दूसरी खरीदने का अर्थ होगा नाहक का खर्च। पर फिर भी अगले छह घंटे रेत से ढंकी ढाढ़ियां देखते और शूट करते बेजा खर्च मान कर भी नई सीडी खरीद ली जाए तो बड़ा अच्छा लगता।

हर की पैड़ी में जाएं तो पूरे घाट को लोगों के छोड़े हुए कपड़े, जूते, प्लास्टिक के थैले देख मन दुखी न करते हुए जितना बन पड़े अपने आसपास का चार-पांच कपड़ों का कचरा बटोर कर थैले में रखेंगे कि बाहर कचरादान में फेंकेंगे तो दो फुट भर का उतना घाट चुपचाप साफ करके और पंडों और सहयात्रियों की कुरेदती निगाहों से बचते बाहर निकल आने में बड़ी खुशी मिलती है।

रेल में सफर करते हुए मुजफ्फरनगर पहुंचे और वहां ब्रेड पकौड़ा या पूरी छोले गरम-गरम बनते देख भूख जग जाए, तुरंत जाकर हड़बड़ाहट में पैसा देकर गरमागरम पूरी डिब्बे की तरफ लाते हुए एक बच्चा कचरा बीनते हुए अचानक आमने-सामने हो जाए और आप अपनी पूरी डिब्बे में ले जाने के बजाय बिना कुछ पूछे उस बच्चे के हाथों में थमा कर भीतर चले जाएं तो बड़ा अच्छा लगता है।

जिंदगी में दुख बहुत हैं। और आसपास के दोस्त ही जीने की राह मुश्किल करते रहते हैं, लेकिन तय कर लिया जाए कि आज दस चिट््िठयां जो लिखनी थीं, नहीं लिखेंगे, दोस्तों के तेजाब और अस्पृश्यता के विस्तार से मन में घुटन और कुढ़न पैदा किए बिना फतेहपुरी की चाट खाने जाएंगे तो दुश्मनों की दुनिया अचानक सिकुड़ती-सी दिखती है। सांस वापस आती है और हवा खुशनुमा लगने लगती है।
आजकल हर कोई बहुत व्यस्त है। चुनाव जीतना है। देश बचाना है। नौकरी करनी है।

अधिकारी ज्यादा परेशान करने लगे हैं। मैट्रो में भीड़ बढ़ गई है। स्कूटर से चलना मुश्किल हो रहा है। गाड़ी की मेंटेनेंस का खर्चा नहीं निकलता। इधर भी झगड़े हैं, उधर भी झगड़े हैं और उन सबके बीच भविष्य को बचाना है। बच्चे तो अभी कहीं पहुंचे नहीं। पड़ोसी और दोस्तों के बच्चों की तो शादियां भी हो गर्इं। जिंदगी भर यही सुनते रहेंगे कि तुमने किया क्या? बच्चों के लिए कुछ किया क्या? घर के लिए कुछ किया क्या? शर्माजी, वर्माजी, गुप्ताजी, सिंह साहब देखो कहां से कहां पहुंच गए। तुम तो वहीं के वहीं रहे। हमारी जिंदगी और खराब कर दी।

सुनना तो पड़ेगा ही। इससे भी कटु सुनना पड़ता है। कंधे हैं तो जुतना ही पड़ेगा। हर कंधे का अपना सलीब तय होता है। वक्त आता ही है, जब सलीब उठाना पड़ता है। शिकायत करने की भी उम्र होती है और अब शिकायत करके कीजिएगा भी क्या? शिकायत किससे? खुदा से? कि क्यों भेजा यहां? ‘तीसरी कसम’ देखी थी? उसका सवाल भी यही था कि दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई? जीने-मरने के झंझट बड़े-बड़े संन्यासियों को परेशान कर गए, निरूत्तर कर गए और वे भी नेति, नेति कह गए।

अब जो है सो है। नोबेल पुरस्कार की सूची में हमारा नाम नहीं, हमारे प्रिय लोगों का नाम नहीं और कैलाश सत्यार्थी, मलाला यूसुफजई के साथ नोबेल शांति पुरस्कार ले गए, तो भाई तो इसे अपनी ही जीत मान कर माथा ऊंचा कर गर्व से कहो हम हिंदुस्तानी हैं, इसलिए समस्याएं होते हुए भी समाधान ढूंढ़ने के लिए कैलाश सत्यार्थी पैदा कर सकें। मलाला यूसुफजई भी हमारी है। उसको विश्व सम्मान मिलने से सिर्फ पाकिस्तान को क्यों खुशी हो, हमें भी उसकी बहादुरी और प्रगतिशीलता की प्रशंसा करते हुए खुश होना चाहिए। पाकिस्तान की सीमा पर जो हो रहा है, उसका जवाब देने के लिए हम सब अपने जवानों के साथ हैं। कुरबानी के लिए भी और जिंदगी के लिए भी। लेकिन पाकिस्तान के सीने में जो मलाला यूसुफजई के रूप में इंसानियत और एक रौनक भरे भविष्य का सपना पल रहा है, उसे शैतानी आइएसआइ के साए से क्यों जोड़ा जाए? एक बार कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई दोनों को सम्मान और स्नेह की झप्पी देकर देखिए, छोटी-सी सीमा लांघ कर बड़ी-सी खुशी मिलेगी।

यह खुशी भी बड़ी नामुराद चीज है। पांच रुपए की संतरे के स्वाद वाली बर्फ की कुल्फी खाने में जो खुशी मिलती है, वह एक सौ पचहत्तर रुपए के चॉकलेट, नट्स, वाले सुविस्तृत आइस्क्रीम के कोन में नहीं मिलती। घर में बिना चुपड़ी रोटी डिब्बे में अचार, गुड़ और प्याज के साथ खा लो तो जिंदगी का सफर सुहाना हो जाता है। पर वही शाम खैबर के रेस्तरां में विश्व प्रसिद्ध कही जाने वाली सात सौ अस्सी रुपए की कटोरी वाली काली दाल के साथ नान खाकर गुजारे तो भी लगता है पेट भरा नहीं।

पड़ोसी ईर्ष्यालु है, विद्वेषी है, झूठी शिकायतें दर्ज कराता है- उसे देखते ही मन में तेजाब का उफान उठता है। हमने तो उसका कुछ बुरा किया नहीं, वही जाने क्यों दुश्मनी पाल रहा है। उसी को, उसी पड़ोसी को घर से बाहर निकलते ही देख, बस दीवाली मुबारक कह दें तो मन का बोझ और भीतर का अल्सर कम हो जाता है। उसे कुछ हो न हो- हम तो बेहतर हुए।

बड़ा मुश्किल है। होता नहीं, मन को बड़ा समझाना पड़ता है। पर हो जाए तो आखिरी दम के वक्त बड़ी खुशी होती है- आराम से जा सकते हैं।
शत्रुताओं की गांठ बांधना बड़ा आसान है। ये हर किस्म के अतिवादी, आतंकवादी भी किसी न किसी परिवार से ही तो होते हैं। बम लगा कर मूर्ति या मनुष्य खत्म करना कैसी खुशी देता होगा? हथौड़े लेकर जिन्होंने हम्पी नगर की अनिंद्य सुंदर शिल्पाकृतियां नष्ट कीं या हाल ही के कालखंड में बामियान की बुद्ध प्रतिमा को नष्ट किया, उन्हें क्या आनंद मिला होगा? जो भी खुशी उन्हें मिली होगी वे जानें, पर हम इतना तो कह ही सकते हैं कि बाजार से घर आते वक्त रास्ते में बन रही गरम जलेबी का एक दोना बच्चों के लिए लाकर मिलने वाली खुशी उस विनाश-जनित राक्षसी-खुशी से हजार गुना बड़ी होती है।

जिंदगी भर हम बड़े-बड़े काम करने में व्यस्त रहते हैं। हमें बड़ी-बड़ी खुशियां चाहिए। हमारे बड़े-बड़े लोगों को फरिश्ते चाहिए। और इसी व्यस्तता के निर्जन, निर्वात, निर्मम जंगल में हम उन छोटी-छोटी बातों से मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों के मुकाम छोड़ आते हैं, जो फरिश्ते नहीं, मनुष्य बनाती हैं।

इन बड़े लोगों से कहिए, कभी बस में भी चलिए, कभी स्लीपर क्लास का टिकट लेने की लाइन में भी लगिए, कभी अपना रुआब और पद-पदवी का अहंकार छोड़ चेहरा नरम करते हुए अनजान सहयात्री से ‘नमस्कार जी आप कैसे हैं’, पूछ कर देखिए यात्रा भी सहज हो जाएगी, मन भी अच्छा महसूस करेगा। पर मैंने इन बड़े पदवीधारी नेताओं, अफसरों को इतना गंभीर होकर बगल में दो घंटे तक चुप बैठे देखा है। मानो निगमबोध घाट से सीधे सफर पर चल पड़े हों और रास्ते में चेहरा ठीक करना भूल गए हों।

इन छोटी-छोटी खुशियों के वातायन अक्सर उधर खुल जाते हैं, जहां विचारधारा के द्वंद्व और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं नहीं, सिर्फ मन का निरालस आनंद ही छाया होता है जो इससे अछूते हैं, वे अभागे हैं।

 

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