विवेक कुमार मिश्र
जनसत्ता 9 नवंबर, 2014: आधुनिकता अपने तकनीकी संजाल के साथ जिस दौर से गुजर रही है, उसमें हम पूरी दुनिया की बातों को सुनने, जानने-समझने की कोशिश करते हैं। पर क्या अपनी आत्मा की आवाज को, अपनी ही बात को ध्यान से सुन पाते हैं? कई बार लगता है कि जैसे तकनीकी संजाल और शोरगुल में हमने सुनना ही छोड़ दिया है। एक बहरापन हमारे बीच फैलता गया है। जब तक हम सुनने-समझने और सहने वाले समाज का निर्माण नहीं कर पाते, तब तक हमारी कोई भी सत्ता हो, उस पर चलना मुश्किल है। मनुष्य की अस्मिता उसके समाज, परिवेश और संस्कृति से आती है।
सामूहिक चेतना और अस्मिता उसकी रचनात्मक परंपरा से समृद्ध होती है। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद से लेकर निराला, मुक्तिबोध की परंपरा से हम जुड़ते हैं। हिंदी पट्टी पूरे देश की सामासिक संस्कृति, सामाजिक जीवन, लोकतांत्रिक चिंताओं, मानवीय अस्मिताओं और सांस्कृतिक सत्ता का प्रतिनिधित्व करती है। हिंदी पट्टी के रचनात्मक साहित्य से इस देश के जीवन और समाज को समझने में मदद मिलती है। जब तक हम आत्मालोचन नहीं करेंगे, विकास का सारा ढांचा एकरेखीय होगा। मनुष्य को एकरेखीय नहीं बनाया जा सकता।
हम अपने आसपास की दुनिया को न केवल मानवीय बोध के साथ रचें, बल्कि इसे पूरी विश्व संस्कृति में मानव संस्कृति के रूप में देखें-समझें, तभी वास्तव में आधुनिक तकनीकी युग में सही मानवीय बोध का निर्माण कर पाएंगे। यह सब कुछ संभव होता है लोकतांत्रिक चेतना के साथ। लोकतंत्र केवल राजनीतिक प्रणाली के रूप में हमारे सामने नहीं आता, बल्कि इससे आगे सामाजिक संस्कृति और सांस्कृतिक सत्ता के रूप में हमारी आलोचनात्मक चेतना के साथ जुड़ता है। जब इस रूप में लोकतंत्र हमारी दुनिया में जीवित होता है तो हम वास्तव में एक सामाजिक सत्ता के रूप में बात करते हैं। यह सब कुछ आत्मालोचना और आलोचना के तंत्र के साथ विकसित होकर आधुनिक तकनीकी समय-समाज में मनुष्य की अस्मिता को बचाने का एक माध्यम है।
लोकतंत्र में इन्हीं आवाजों के साथ मनुष्य की उपस्थिति उसकी रचना प्रक्रिया से होती है। मनुष्य की इस रचनात्मक उपस्थिति को कविता-कहानी नाटक में दर्ज किया जाता है। हमें अपने वास्तविक निर्माण के लिए, इस समय जो हमारे भीतर टूट-फूट हो रही है उसको देखने के लिए समकालीन साहित्य को देखना जरूरी है। इससे हम लोकतंत्र को एक नैतिक प्रस्थापना के साथ आगे ले जाने में समर्थ होंगे। यह समर्थता तभी संभव होगी, जब हम अपने आसपास की आवाजों को सुनें-जानें और आगे बढ़ें।
इस देश में कभी भी एक तरह की परंपरा नहीं रही है, न ही देश एक संस्था पर टिका है। बहुभाषिक समाज के साथ बहुधार्मिक और बहुत सारी परंपराओं के साथ एक देश जीवित होता है। इन बहुलताओं को बनाने में लोकतंत्र की परिकल्पना सबसे ज्यादा मूल्यवान है। लोकतंत्र में हर आवाज को सुनने की जगह है। हर आवाज के साथ बैठ कर काम किया जाता है। यों आधुनिक समय-समाज के साथ तकनीकी से संपन्न होकर हम अपने विचारों के साथ पूरी दुनिया में भ्रमण कर रहे हैं। जब तकनीकी के इतने करीब नहीं थे तब भी हमारा सामाजिक भ्रमण निरंतर जारी रहा। सामाजिक एकता के ताने-बाने के साथ लोगों से बातचीत करते हुए हम अपनी बात कहते आ रहे हैं।
हमारी सामाजिक संरचना में प्रेम की बुनावट है। किसी भी बात को मनवाने के लिए हमारे यहां तलवार, बारूद या हिंसा का सहारा नहीं लिया जाता। हिंसा से परे प्रेम की दुनिया रचते हुए यहां विश्वविजेता हुए हैं। यह परंपरा शुरू से रही है। हिंदुस्तान के सामाजिक ताने-बाने में अगर आप देखते हैं तो मध्यकाल का संदर्भ बहुत सारी आधुनिकताओं और आत्मालोचनाओं, चिंताओं के साथ हमारे सामने खुलता है। मध्यकाल में एक साथ हमारी बहुत सारी परंपराएं रही हैं। वहां कबीर की आवाज है, तो सूर की भी, तुलसी और मीराबाई की भी। निर्गुण है, सगुण है, ज्ञानमार्ग है, तो प्रेममार्ग भी। सभी मार्ग अपनी-अपनी अस्मिता के साथ मनुष्य को समझने की कोशिश करते हैं।
मध्यकाल की तमाम विडंबनाओं के बीच आधुनिकता का संदर्भ और सेतु भी था। लोग बड़े सहिष्णु थे। इतने सहिष्णु कि अपनी नापसंदगी के बावजूद कबीर की आवाज को सुनते थे। तुलसी और सूर की आवाज सुनते थे। मीरा की आवाज के लिए जगह थी। अगर ऐसा नहीं होता, तो मीरा के लिए भेजा गया जहर का प्याला अमृत नहीं हो जाता।
आज हम आधुनिकताओं से घिरे हुए समय-समाज, तकनीकी संजाल-काल में रहते हुए भी शायद इतने सहिष्णु नहीं हैं कि अपनी परंपराओं, अपनी ही आवाजों को ध्यान से देख-सुन सकें। आज हमारी सुनने की संस्कृति पर ग्रहण लग चुका है। इसलिए आज बहुत मजबूती से अपनी परंपरागत चिंतन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जरूरत है।
अगर आज भी समाज कविता-कहानी और रचनात्मक दुनिया को सुनने की कोशिश करता है- सत्ता, संस्कृति रचनात्मक संसार से बात करता है- तो तय मानिए कि सामाजिक प्रगति, आधुनिकता की दिशा में कोई बाधा नहीं आएगी। तमाम विपथगामी शक्तियों के सामने खड़े होने के बावजूद हमें कवि की आवाज को सुनने की जरूरत है। हमें उसी तरह से कवि की आवाज को सुनना होगा जिस तरह मध्यकाल में कबीर और तुलसी को समाज ने सुना। आप लोक में जाकर देखें, कितना कबीर बसता है। गांव-गांव में शायद ही कोई जगह हो, जहां कबीर की उपस्थिति न हो। पढ़े-लिखे से लेकर अपढ़ समाज तक में कबीर, तुलसी, मीरा उपस्थित हैं और इनके होने से मध्यकाल के बीच जारी आधुनिकता और आत्मालोचना की चेतना और आलोचनात्मक मनोविज्ञान उपस्थित है, विकल्प का रचनात्मक संसार भी।
तकनीकी संजाल के साथ जब तक हम अपनी लोकतांत्रिक चिंताओं, आधुनिकताओं, परंपराओं को समृद्ध नहीं करेंगे, बड़ा नहीं करेंगे, जब तक हम अपने बीच आवाजों को जगह नहीं देंगे, अपनी अंतर्ध्वनियों को नहीं सुनेंगे तब तक हम समाज का सही निर्माण नहीं कर सकते। समाज के सही निर्माण के लिए लोकतांत्रिक मूल्यप्रणाली के साथ अपनी आवाज को सुनने, कविता को सुनने-समझने और लोककंठ में बसाए जाने की जरूरत है।
आज हमारा समाज केवल कविता से निर्मित नहीं होता। विज्ञान, विज्ञापन और मीडिया से भी निर्मित होता है। मीडिया में बहुत सारी जगह है। सुनाने की, सुनने और समझने की, लोकतांत्रिक चिंताओं पर चलने की। मीडिया बार-बार लोगों को लोकतांत्रिक चिंताओं से जोड़ता है। इस मूल्य पर चलने की कोशिश करता है, पर इन सबके बावजूद समाज को अगर कहीं अपनी ध्वनि सुननी है, तो वह समाज की सामूहिक थाती, सामूहिक कवि-मन में छिपी है।
इस समय की कविता कितना समाज में उपस्थित है, यह चिंता समाज को तो करनी ही है, उससे ज्यादा रचनाधर्मियों, आलोचकों और कवियों को भी करनी है। उनकी आवाज कैसे सुनी जाए, कैसे वे लोककंठ में बसें, कैसे जाकर लोगों के बीच बात को पहुंचाई जाए, ये सब कविता के अपने उपकरण हो सकते हैं। कविता की अपनी तकनीकी दिक्कतें हो सकती हैं। पर इन दिक्कतों के बावजूद कविता की समाज में उपस्थिति और समाज में होने की जगह की भी जरूरत है।
अगर आज भी कविता उसी तरह समाज में बरती जाए, जिस तरह मध्यकाल में कबीर, तुलसी, सूर और मीरा को बरता जा रहा था, तो तय मानिए कि तमाम भयावहता और असहिष्णुता के बीच हम नए सिरे से सामूहिकता, सामाजिकता, लोकतांत्रिकता और आधुनिकता की दिशा में संपन्नतर होंगे। कविता अपनी बड़ी भूमिका निभाएगी।
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