कुलदीप कुमार

 
जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2014: जम्मू-कश्मीर में आई भीषण प्राकृतिक आपदा के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर लगातार गोलाबारी करके यह सिद्ध कर दिया कि भारत के साथ शांति उसके एजेंडे पर नहीं है। रही-सही कसर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति सलाहकार सरताज अजीज ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून को पत्र लिख कर पूरी कर दी। इस पत्र में उन्होंने पाकिस्तान की इस पुरानी मांग को फिर से उठा दिया कि जम्मू-कश्मीर की जनता की इच्छा के अनुसार राज्य के भाग्य का फैसला किया जाए, यानी वहां जनमत संग्रह करवा कर राज्य के निवासियों से कहा जाए कि वे भारत और पाकिस्तान में से किसी एक को चुन लें। यही नहीं, उन्होंने एक बार फिर पुराना राग अलापा कि कश्मीर समस्या का हल निकले बिना भारत और पाकिस्तान के बीच शांति स्थापित नहीं हो सकती।

 
कुछ माह पहले अमेरिकी विदुषी सी. क्रिस्टीन फेयर की पाकिस्तान के बारे में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी- ‘फाइटिंग टु दी एंड’। इस पुस्तक में उन्होंने पाकिस्तानी सेना के पिछले छह दशकों के प्रकाशनों का गहन अध्ययन करने के बाद यह चौंकाने वाला निष्कर्ष निकाला है कि अगर जम्मू-कश्मीर समस्या का समाधान हो भी गया, तो पाकिस्तानी सेना का भारत-विरोध कम नहीं होगा, दोनों देशों के संबंध सामान्य नहीं हो पाएंगे। उनकी मान्यता है कि अन्य देशों के पास सेना होती है, लेकिन पाकिस्तानी सेना के पास देश है। वह इस देश की भौगोलिक सीमाओं ही नहीं, इसकी विचारधारात्मक सीमाओं की भी रक्षा करती है। उसने कश्मीर को जबरन हथियाने के लिए भारत के खिलाफ चार बार युद्ध छेड़ा, और चारों बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बांग्लादेश बन गया, लेकिन पाकिस्तानी सेना पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह भविष्य में भी युद्ध हारते जाने के लिए तैयार है, लेकिन वह प्रत्यक्ष या परोक्ष युद्ध करना बंद नहीं करेगी।

 
पाकिस्तानी सेना अपनी हार उस दिन स्वीकार करेगी जिस दिन वह भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने में असमर्थ हो जाएगी। कश्मीर उसके लिए जमीन हासिल करने की लड़ाई नहीं, बल्कि 1947 में द्वि-राष्ट्रवाद के आधार पर हुए विभाजन को उसकी परिणति तक ले जाने की है। उसे लगता है कि जब तक मुसलिम बहुल जम्मू-कश्मीर भारत के पास है, तब तक विभाजन की प्रक्रिया अधूरी है। पाकिस्तानी सेना का सामरिक लक्ष्य भारत के आर्थिक-सामरिक उदय को रोकना है, क्योंकि अगर भारत एक आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के रूप में उभरने में सफल हो गया, तो पाकिस्तान इस क्षेत्र में उसके वर्चस्व का विरोध करने की स्थिति में नहीं रहेगा। इसलिए अगर कश्मीर समस्या हल हो भी गई, यानी पाकिस्तान को संतुष्ट करने वाला कोई रास्ता निकाल भी दिया गया, तो उसके बाद कोई और विवाद खड़ा कर दिया जाएगा।

 
मूल समस्या यह है कि पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी राज्य की आत्म-छवि एक ऐसे राष्ट्र की है, जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत के साथ बराबरी के दर्जे पर रख कर उसके साथ बर्ताव करे। वह कभी यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि भारत इस क्षेत्र में प्रभुत्व जमाने की क्षमता वाले देश के रूप में उभरे। अमेरिका और पश्चिमी देश पाकिस्तान को एक ऐसा देश मानते आए हैं, जो अपने को असुरक्षित महसूस करता है, जिसे हर समय सुरक्षा की तलाश रहती है। इसीलिए अमेरिका और पश्चिमी देश उसे सहायता देते आए हैं। इसके बावजूद पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं, पुस्तकों और पर्चों में अमेरिका को हमेशा दोगली चाल चलने वाला ऐसा देश बताया गया है, जिस पर कतई भरोसा नहीं किया जा सकता।

 
क्रिस्टीन फेयर का कहना है कि यह धारणा सिरे से गलत है कि पाकिस्तान असुरक्षित देश है और वह सुरक्षा की तलाश में है। उनका यह भी कहना है, और इसे अनेक अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है कि पाकिस्तान में चाहे तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में हो या सैनिक शासन, असली सत्ता सेना के हाथ में ही रहती है। अगर किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को यह गलतफहमी हो जाए- जैसी कुछ समय के लिए आसिफ अली जरदारी और नवाज शरीफ को हो गई थी- कि वह सेना को नागरिक सरकार के अधिकार क्षेत्र के भीतर ला सकता है, तो सेना उसे उसकी औकात बता देती है।

 
आसिफ जरदारी लाख चाहने के बावजूद भारत के साथ रिश्ते नहीं सुधार पाए। नवाज शरीफ तो सत्ता में आए ही थे यह चुनाव प्रचार करके कि भारत के साथ तनाव कम किया जाएगा, व्यापार बढ़ाया जाएगा और संबंध सामान्य बनाए जाएंगे। लेकिन उन्होंने पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ से बदला लेने के लिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की जिद की तो सेना ने इमरान खान और मौलवी ताहिर-उल-कादरी के जरिए आंदोलन छिड़वा कर उन्हें कमजोर कर दिया। अब नवाज शरीफ सेना के सुर में सुर मिला रहे हैं। सरताज अजीज का बान की-मून को लिखा पत्र इसकी गवाही दे रहा है।

 
पिछले दिनों पाकिस्तान पर एक और बढ़िया किताब छपी- ‘द मुसलिम जायन: पाकिस्तान ऐज ए पॉलिटिकल आइडिया’ (मुसलिम यहूदी: एक राजनीतिक विचार के रूप में पाकिस्तान)। इसके लेखक हैं फैसल देवजी। लेखक का कहना है कि पाकिस्तान और इजराइल एक जैसे देश हैं, जिनकी राष्ट्रीयता एक नए देश के लिए पुराने देश को त्यागने और खारिज करने के द्वारा परिभाषित होती है, यानी जिनका अस्तित्व सदियों पुराने रक्त और माटी के संबंध को नकारने पर आधारित है। दोनों की स्थापना विशाल उपमहाद्वीपों में छितरी अल्पसंख्यक आबादी के लिए ‘होमलैंड’ के रूप में की गई थी।

 
इजराइल के बारे में साहित्यिक आलोचक जैकलिन रोज ने लिखा है कि उसने अपने हृदय पर राष्ट्रीयता की वही अवधारणा उकेर ली है, जिससे यहूदियों को भागना पड़ा था। जिस तरह हिब्रू को इजराइल की राष्ट्रभाषा स्वीकार किया गया, उसी तरह पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू बना दी गई, हालांकि वह उन मुसलमानों की भाषा थी, जो हिंदूबहुल उत्तर प्रदेश या बिहार से भाग कर आए थे। पाकिस्तान में रहने वाले मूल निवासियों की भाषा तो पंजाबी, बांग्ला और सिंधी आदि थीं। जैकलिन रोज ने यह भी लिखा है कि यहूदीवाद में यथार्थ और विवेक की मांगों के प्रति विद्रोह भी निहित है। वास्तविकता को नकारने की यह प्रवृत्ति हमें पाकिस्तान में भी दिखाई देती है।

 
जब भी भारत आतंकवाद का मुद्दा उठाता है, पाकिस्तान रोना शुरू कर देता है कि सबसे ज्यादा आतंकवाद तो वह झेल रहा है। लेकिन वह कभी इस बात की ओर ध्यान नहीं देता कि उसने सरकारी नीति के तहत आतंकवादी संगठनों को खड़ा किया, उन्हें धन और हथियारों से मदद की, भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल किया। उनमें से कई अब उसी के खिलाफ बंदूक तान कर खड़े हो गए हैं। इसके बावजूद पाकिस्तान और उसकी सेना आतंकवाद की इस फैक्टरी का उत्पादन बंद करने को तैयार नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वह भारत के खिलाफ कभी न रुकने वाली जंग को इन संगठनों के सहारे चलाए रखना चाहता है। पारंपरिक युद्ध में फंसने का हश्र वह देख चुका है और उसमें जीतने की उसे अधिक उम्मीद नहीं है।

 
वास्तविकता के प्रति आंख मूंदने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि आणविक युद्ध के नतीजों को जानते हुए भी वह अक्सर भारत को याद दिलाता रहता है कि दोनों आणविक हथियारों से लैस समान शक्ति वाले देश हैं। उसने आणविक हथियार पहले इस्तेमाल न करने के बारे में संधि करने से भी बार-बार इनकार किया है। पूरी दुनिया जानती है और संयुक्त राष्ट्र के कई महासचिव और खुद परवेज मुशर्रफ यह मान चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह अब विकल्प नहीं रह गया है, लेकिन पाकिस्तान आज भी इस वास्तविकता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

 
इसी तरह वह यह भी मानने को राजी नहीं कि न अमेरिका, न ब्रिटेन और न ही संयुक्त राष्ट्र उसके और भारत के बीच मध्यस्थता करने को तैयार हैं। लेकिन सरताज अजीज जैसे अनुभवी राजनयिक आज भी संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटा रहे हैं। पाकिस्तान और उसकी सेना शांति नहीं चाहते, यह स्पष्ट हो गया है।

 

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