राजकिशोर

जनसत्ता 12 अक्तूबर, 2014: नोबेल शांति पुरस्कार कई बार अपने को लज्जित कर चुका है। बहुत संक्षेप में कहा जाए तो उसने महात्मा गांधी को इस सम्मान से वंचित रख कर स्वयं को लज्जित किया, तो अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को तब सम्मानित कर अपने को लज्जित किया जब सत्ता में आए उन्हें छह महीने ही हुए थे। वैसे तो हर पुरस्कार के पीछे कुछ न कुछ राजनीति होती ही है और नोबेल पुरस्कार देने वाले इस सामान्य कमजोरी से कभी भी मुक्त नहीं रहे हैं। फिर भी नोबेल पुरस्कार की अपनी एक इज्जत तो है ही। अपनी तमाम सीमाओं और असुंदरताओं के बावजूद यह दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान है, जो किसी व्यक्ति को मिल सकता है।

शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की स्थापना 1901 में की गई थी। उस साल यह पुरस्कार दो व्यक्तियों को संयुक्त रूप से मिला था: ज्यां हेनरी दुनां को रेड क्रॉस के लिए अंतरराष्ट्रीय समिति स्थापित करने के लिए और फ्रेडरिक पैसी को अंतर-संसदीय यूनियन का प्रमुख संस्थापक और प्रथम विश्व शांति कांग्रेस का मुख्य आयोजक होने के नाते। यूरोप के लिए वह समय युद्ध का था। 1914 में प्रथम महायुद्ध की शुरुआत भी हुई। शायद उन्हीं दिनों यह परिभाषा बनी होगी कि शांति दो युद्धों के बीच की अवधि को कहते हैं।

जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिलता है, उनके प्रशस्ति-पत्र में अकसर कहा जाता है कि उन्होंने ‘राष्ट्रों के बीच भाईचारे के लिए, स्थायी सेनाओं को समाप्त या कम करने के लिए और शांति सम्मेलनों को आयोजित करने तथा प्रोत्साहित करने के लिए सबसे ज्यादा या सबसे अच्छा काम किया है।’ पर ग्रेट ब्रिटेन के विंस्टन चर्चिल को नोबेल पुरस्कार शांति स्थापित करने के प्रयत्नों के लिए नहीं, साहित्य के लिए मिला था।

नोबेल शांति पुरस्कार, अठारह वर्षों को छोड़ कर, हर साल दिया जाता रहा है। पहली बार 1914 में नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया था। अंतिम बार 1972 में यह पुरस्कार नहीं दिया गया था। क्या अन्य क्षेत्रों में भी यही स्थिति है? साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार भी 1901 में शुरू हुआ था। तब से कोई साल ऐसा नहीं गया, जब यह पुरस्कार घोषित करने में नागा हुआ हो। क्या इससे कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है? क्यों नहीं। एक निष्कर्ष यह है कि बीसवीं और अभी तक की इक्कीसवीं शताब्दी में साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम होता रहा है, पर शांति के क्षेत्र में बहुत कम काम हुआ है। यह दुनिया का सबसे ज्यादा कांटेदार रास्ता है। दुनिया बहुत बदली है, पर युद्ध का संकट बना हुआ है। गोरी दुनिया में नहीं, तीसरी दुनिया में, जिसमें अरब देशों को शामिल किया जाए, तो हर साल कई लाख लोग युद्ध की बर्बरता के शिकार होते हैं। और, संयुक्त राष्ट्र संघ देखता रहता है।

शायद यही कारण है कि नोबेल शांति पुरस्कार तय करने वाले लोग शांति की परिभाषा बदलने पर मजबूर हुए हैं। युद्ध केवल दो देशों के बीच नहीं लड़ा जाता, बल्कि वह प्रत्येक देश के भीतर, असंख्य रूपों में, जारी रहता है। इसे ठीक-ठीक वर्ग संघर्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस संघर्ष के कई स्तर हैं, जैसे पितृसत्ता के विरुद्ध स्त्रियों का संघर्ष, सवर्णवाद के विरुद्ध दलितों का संघर्ष, फासीवाद के विरुद्ध लोकतंत्रवादियों का संघर्ष और अंत में असभ्यता के विरुद्ध सभ्यता का संघर्ष। वह हर काम जो समाज में अन्याय को कम करता है और न्याय के अवसर बढ़ाता है, शांति की दिशा में उठता हुआ एक कदम है। युद्धविहीनता को शांति नहीं कहते, अन्यायरहितता को शांति कहते हैं। इसी आधार पर नोबेल समिति ने बहुत-से पुरस्कार दिए हैं। जैसे 2006 में बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक आंदोलन और उसके प्रवर्तक मुहम्मद यूनुस को दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार। ग्रामीण बैंक आंदोलन ग्रामीणों और खासकर महिलाओं का सशक्तीकरण और आर्थिक विषमता की पीड़ाओं को कम करता है। यह एक आर्थिक स्वाभिमान का आंदोलन है। पाकिस्तान की मलाला और भारत के कैलाश सत्यार्थी को मिलने वाले शांति के नोबेल पुरस्कार का महत्त्व यही है।

मैं यह नहीं कहना चाहता कि इस बार का शांति पुरस्कार अयोग्य या अपात्र व्यक्तियों को मिला है। लेकिन नोबेल समिति को शांति पुरस्कार देने के लिए बड़े व्यक्तित्व, जिनमें संस्थाएं भी शामिल हैं, नहीं मिले, तो यह इस बात की ओर संकेत है कि शांति के क्षेत्र में फिलहाल कोई बड़ा या सघन काम नहीं हो रहा है। जी नहीं, मैं ग्लैमर से चमकते हुए चेहरों की बात नहीं कर रहा, उनकी बात कर रहा हूं जो भूख, विषमता और अपमान की मारी हुई इस दुनिया को कुछ अधिक रहने योग्य बनाते हैं। यह अभाव निश्चय ही बहुत दारुण है।

जब मुद्दे नहीं होते, तब व्यक्ति प्रधान हो जाते हैं। इसी तरह, जब व्यक्ति नहीं होते, तब मुद्दे प्रधान हो जाते हैं। मेरी समझ में, इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार व्यक्तियों को नहीं, मुद्दों को मिला है। कभी-कभी साधारण व्यक्ति भी असाधारण का प्रतिनिधित्व करने लग जाते हैं। मलाला और सत्यार्थी दोनों ही दो महत्त्वपूर्ण मुद्दों के प्रतीक हैं। दुनिया भर में भारत के बच्चों की हालत सबसे ज्यादा खराब है। वे स्थायी रूप से कुपोषण के शिकार हैं, शिक्षा उनके लिए कोई संभावना नहीं है और रोजगार एक दूर का सपना है। बचपन बचाओ आंदोलन ने, जिसे अभियान कहना शायद ज्यादा उचित होगा, इस बहुत बड़े संकट से टकराने की दिशा में एक छोटा-सा प्रयत्न किया है। वास्तविकता यह है कि कैलाश सत्यार्थी का यह अभियान व्यक्ति-केंद्रित होकर रह गया है। न कोई संगठन बन पाया, न ही इतने अधिक बच्चों का उद्धार हो पाया कि यह मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन जाए। इस दृष्टि से, नोबेल शांति पुरस्कार समिति को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि ऐसे समय में, जब भारत को एक बहुत बड़ा बाजार और उभरती हुई आर्थिक शक्ति सिद्ध करने का ढोल पीटा जा रहा है, उसने इस गुब्बारे में छेद कर दिया है: जिस देश का बचपन सिसक रहा हो, उसकी जवानी क्या होगी?

जहां तक सत्रह साल की मलाला का सवाल है, उस बेचारी पर यह एक असह्य बोझ है। उसने लड़कियों के शिक्षा के अधिकार के लिए जबर्दस्त काम किया है, जिस वास्ते उसे तालिबान की गोली का भी शिकार होना पड़ा। लेकिन इसके लिए उसे इतना इनाम मिल चुका है कि उसके लिए नोबेल एक समस्या की तरह होगा। नोबेल की घोषणा के बाद बर्मिंघम में अपने स्कूल के अध्यापकों और छात्रों को संबोधित करते हुए मलाला ने कहा कि नोबेल मिलने से मैं कोई परीक्षा में पास नहीं हो जाऊंगी, जो उसकी विनोदप्रियता का एक अच्छा नमूना है। लेकिन उसकी अब तक की उपलब्धियों को इतना महान नहीं कहा जा सकता कि वह नोबेल पुरस्कार की हकदार बन जाए। मुझे तो यही लगता है कि यह पुरस्कार मुसलिम जगत की कूपमंडूकता पर एक गंभीर टिप्पणी है और इसके लिए मलाला को माध्यम बनाया गया है। लेकिन मलाला का और कितना शोषण होगा?

खेद है कि इस प्रसंग में किसी को इरोम शर्मिला की याद नहीं आ रही है। राज्य के आतंकवाद के खिलाफ वह चौदह वर्षों से अनशन कर रही है। क्या उसे इसलिए पुरस्कृत नहीं किया गया कि वह आधुनिक समय में राजकीय आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का सबसे बड़ा प्रतीक है?

 

 

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