दुर्गा प्रसाद गुप्त
जनसत्ता 9 नवंबर, 2014: मंगलेश डबराल का कविता संग्रह नए युग में शत्रु एक दशक से भी अधिक समय बाद आया है। आज जब यथार्थ और भ्रम, विचार और विचारहीनता, मूल्य और मूल्यहीनता, नैतिकता और अनैतिकता का द्वैत धुंधला-सा गया है, मंगलेश की कविता इन भेदों को स्पष्ट करती है। इन कविताओं में अगर हम अपने समय, समाज, सत्ता और जीवन की विडंबनाओं को वास्तविक रूप में देख पाते हैं, तो इसके पीछे मंगलेश का काव्य-विवेक और मूल्य-दृष्टि में विश्वास ही है।
संग्रह की पहली कविता ‘मांगना’ जीवन में संबंधों की संवेदनशीलता से विकसित मनुष्यता है- ‘दोस्तों ने मेरी पीठ थपथपाई/ मुझे उधार दिया और कहा उधार प्रेम की कैंची नहीं हुआ करती/ जिससे मैंने प्रेम किया/ उसने कहा मेरी छाया में तुम जितनी देर रह पाओ/ उतना ही तुम मनुष्य बन सकोगे/ किताबों ने कहा हमें पढ़ो/ ताकि तुम्हारे भीतर चीजों को बदलने की बेचैनी पैदा हो सके।’ मंगलेश जीवन में भाषा, भाव और विचार की संगति और महत्त्व को जानते हैं। इसीलिए उसे विचारहीन, भावहीन, सौंदर्यहीन नीरस गद्य बनने से बचाते हैं। वे भाषा के बड़े शिल्पकार हैं। उनके यहां भाषा की देशजता का राग है। इस संग्रह की कविताओं में उनकी संवेदना की जड़ें अतीत, स्मृति से अधिक समकालीन यथार्थ में हैं और इनसे विगत यथार्थ संदर्भित है।
उनकी कविता में अनुभवों की एक खास तरह की आवाजाही है, जिसमें जीवन, साहित्य, संस्कृति, कला, संगीत की अपनी परंपराओं के साथ विश्व की अन्य परंपराओं की स्मृति का रंग और स्वर भी है, जिसके माध्यम से हम फिर खुद को एक मनुष्य के रूप में समझते और परिभाषित करते हैं। उनकी कविताएं पूंजी, बाजार और विकास के दुश्चक्र में फंसे मनुष्य और उसके जीवन की चिंता से उपजी हैं, जो स्वाभाविक और गरिमापूर्ण ढंग से जीने के लिए संघर्ष कर रहा है।
इन कविताओं में एक विकलता, चिंता और प्रतिरोध है, जिसमें असमानता, अन्याय और अमानवीय स्थितियों का अस्वीकार है। इस क्रम में ये कविताएं चीजों को बदलने और अच्छी चीजों को बचाने का मात्र भाषिक और वैचारिक उपक्रम नहीं, बल्कि ये जैसे उनके जीवन और रचनात्मकता के अनिवार्य नैतिक प्रयोजन हों! आत्मिकता से परे, परिवार, समाज, प्रकृति या शेष सृष्टि के साथ जिस रिश्ते को ये कविताएं निर्मित करती हैं, वे स्वभावत: सहज, संवेदनशील और नैतिक प्रभावों वाली हैं, इसीलिए वे एकालाप से बचती हैं। ‘सोने से पहले’ कविता में यथार्थ का दृश्य कुछ इस तरह है: ‘क्या रात भर मुझे एक तानाशाह घूरता रहेगा/ रात भर चलते हुए मुझे दिखेंगे घरों से बेदखल/ एक अज्ञात उजाड़ की ओर जाते परिवार/ क्या रात भर मेरा दम घोंटता रहेगा धरती का बढ़ता हुआ तापमान/ दिमाग में दस्तक देता रहेगा बाजार/ सोने से पहले मैं किताबें बंद कर देता हूं/ जिनमें पेड़, पहाड़, मकान, मनुष्य सब काले-सफेद अवसाद में डूबे हैं/ और प्रेम एक उजड़े हुए घोंसले की तरह दिखाई देता है/ सोने से पहले मैं तमाम भयानक दृश्यों को बाहर खदेड़ता हूं/ और खिड़कियां बंद कर लेता हूं।’
‘छुओ’ कविता चीजों के बदलाव के लिए जीवन को नैतिक और संवेदनशील स्पर्श देती है, ताकि स्थितियां बदलें। कवि इस निर्मम समय में जीवन के लिए नमी बचाने की बात करता है। वह ‘पुरानी तस्वीरें’ कविता में नए समय को पुराने समय के हिसाब से देखता है, तो पाता है कि यह समय पहले जैसा सरल, सहज, ईमानदार, मासूम और बेफिक्र रहा ही नहीं। यह नए यथार्थ में ढली नई दुनिया की तस्वीर है: ‘मैं सोचता हूं क्या यह कोई डर है कि मैं पहले जैसा नहीं दिखूंगा/ शायद मेरे चेहरे पर झलक उठेगी इस दुनिया की कठोरताएं/ और चतुराइयां और लालच/ इन दिनों हर तरफ इन्हीं चीजों की तस्वीरें ज्यादा दिखाई देती हैं/ और जिनसे लड़ने की कोशिश में मैं कभी-कभी इन पुरानी तस्वीरों को ही/ हथियार की तरह उठाने की सोचता हूं।’
यह दंश ‘दो जीवन’ कविता में भी दिखता है, जिसमें उसकी एक आंख में नींद है, दूसरी में अंतहीन इंतजार। उसका हृदय अक्सर बेचैन रहता है, क्योंकि उसके जैसा ही हजारों-लाखों के लिए वह बहुत अकेला और कम हो गया है। उसकी बेचैनी अकेले पड़ जाने के साथ नहीं, बल्कि दो जीवन में एक साथ जीना है और यह विवशता है।
राहुल ढोलकिया की फिल्म ‘परजानियां’ और संजय काक का वृत्त-चित्र ‘जश्न-ए-आजादी’ को समर्पित कविता ‘रोने की जगह’ इन्हीं स्थितियों से रूबरू कराती है कि पहले रोने की जगहें कुछ सीमित थीं और जहां-तहां दिखाने से आंसुओं का महत्त्व कम हो जाता था। पर रोने के कारणों को अलग से नहीं जानना पड़ता था। पर आज इस त्रासद समय में सघन होते दुख का दृश्य भयावह है। आज बाजार, विकास और हिंसा के परिदृश्य में स्वाभाविक है: ‘इन दिनों रुदन कहीं से भी उठने लगता है/ आंसू किसी भी जगह दिख जाते हैं/ चमचमाते बाजार अपना अंधकार अपने पिछवाड़े में भेजते रहते हैं/ उसे पार करते हुए लगता है एक नदी बह रही है/ जहां भिखारी पागल अनाथ बच्चे बेसहारा पशु लहरों की तरह हैं/ साथ-साथ एक परिवार की तरह जीवन बिताते/ दंगाइयों के हाथ मारे गए अपने बच्चों की खोज में/ उनके माता-पिता कहीं चलते जाते हैं/ रोना उनके लिए एक लंबे रास्ते की तरह है।’
‘मां की स्मृति’, ‘मोहन थपलियाल’, ‘करुणानिधान’ और मुक्तिबोध और शमशेर पर ‘दो कवियों की कथा’ कविताओं में मात्र मां, मित्रों और कवियों की स्मृति भर नहीं है, बल्कि उनके बीहड़ जीवन-संघर्षों, यातनाओं और विस्थापन के माध्यम से उनके ही नहीं, हम अपने होने का अर्थ भी समझते हैं। ‘मां की स्मृति’ कविता में स्त्री तो दूसरे लोगों के लिए ही बनी है: ‘वह अक्सर कहती थी औरतों के दो घर दो जन्म होते हैं/ दोनों में साथ-साथ रहना होता है इन अभागियों को मृत्यु तक/ और सबका सुख चाहने के लिए अगले जन्मों में भी/ ईश्वर उन्हें बना देते हैं औरत।’
इस संग्रह में अधिक संख्या उन कविताओं की है, जो इस संग्रह के शीर्षक से संदर्भित हैं। यह पूंजी, बाजार और सत्ता की शक्ति से निर्मित वह यथार्थ है जिसमें: ‘अंतत: हमारा शत्रु भी एक नए युग में प्रवेश करता है/ अपने जूतों, कपड़ों और अपने मोबाइलों के साथ/ वह एक सदी का दरवाजा खटखटाता है/ और उसके तहखाने में चला जाता है वह अपने को कंप्यूटरों, टेलीविजनों, मोबाइलों-आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है।’ यह नया युग है और इस युग के शत्रुओं ने जिस यथार्थ को निर्मित किया है, उसमें समाज के दलित, वंचित, उपेक्षित लोगों के प्रति ‘उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है।’ सरोकार उसके संसाधनों भर से है। फिर संघर्ष ही शेष रह जाता है उसके लिए। विकास, विस्थापन और शोषण के हिंसक दौर में मनुष्य और उसकी सृजनात्मकता के मर्म को मंगलेश की कविता बहुत अच्छी तरह समझती है। यही ‘यथार्थ इन दिनों’ कविता में भी दिखाई देता है: ‘यथार्थ इन दिनों बहुत ज्यादा यथार्थ है? उसके शरीर से ज्यादा दिखाई दे रहा है उसका रक्त।’
एक ऐसा समाज बन रहा या बन गया है, जहां मानवीय संबंध, संवेदना और सरोकार सब बिखराव की कगार पर हैं और एक नए तरह की भौतिकवादी गुलामियां शुरू हो चुकी हैं। ‘गुलामी’ कविता आज के हमारे जीवन का वास्तविक आख्यान है: ‘इन दिनों कोई किसी को अपना दुख नहीं बताता/ हर कोई कुछ छुपाता हुआ दिखता है उदासी का पुराना कबाड़ कब का पिछवाड़े फेंक दिया गया है/ उसका जमाना खत्म हुआ।’ और अब जिस ताकत की दुनिया का निर्माण हो रहा है, उसमें आंसू, उदासी और सिसकी के लिए जगह नहीं है। अन्याय का प्रतिरोध तो दूर, उसको महसूस न करना स्वयं में त्रासद है।
एक अनुभव भाषा में कैसे रूपांतरित होता है या भाषा भावों में ढली हुई किस तरह आती है, मंगलेश की कविता उसका आदर्श रूप है। यह आधुनिक बाजारू सभ्यता का अनुभव है: ‘पैकेजिंग का युग है यह हर चीज ऐसे दिखती है/ जैसे वह चीज खुद भी सिर्फ एक पैकेज हो।’ और यह ‘कुशल प्रबंधन’ है जैसे कि ‘युद्ध भी कुशल प्रबंधन का एक विषय है/ अन्याय का पता न चलने देना अन्याय का कुशल प्रबंधन है।’ अगर पूंजी, बाजार और सत्ता की ताकत और हिंसा का कुशल प्रबंधन किया जा रहा है तो फिर इस लोकतंत्र में न्याय, समानता, स्वतंत्रता, सहिष्णुता और शांति के सरोकारों के बारे में क्या कहा जा सकता है। ‘गुजरात के मृतक का बयान’, ‘अंजार’, ‘भूलने के विरुद्ध’, ‘पशु, पक्षी, कीट पतंग’ कविताएं गुजरात की हिंसा से संबंधित हैं और यह हिंसा प्रायोजित और कुशल प्रबंधन का हिस्सा थीं। ऐसी हिंसा जो भाषा को भी शक्तिहीन कर देती है, लेकिन भाषा है कि कविता के माध्यम से खुद को उबारती है।
मंगलेश के पहले के संग्रहों की तरह इसमें भी संगीत से संबंधित ‘पंचम’, ‘न्यू आर्लिस में जैज’, ‘राग मारवा’, ‘राग शुद्ध कल्याण’ और ‘लोकगीत’ जैसी सम्मोहक कविताएं हैं, जो संगीत में रची-बसी उनकी गहन संवेदना की कविताएं हैं। ‘पंचम’ किराना घराने के अजीम गायक अब्दुल करीम खां साहब के गायन में महारत हासिल करने के बावजूद संगीत को कितना कुछ कम जान पाने की विनम्रता पर है। ‘न्यू आर्लिस जैज’ कविता अश्वेत लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन के साथ-साथ ‘जैज’ संगीत के साथ जीवन के रिश्ते के मर्म को उकेरती है। मंगलेश संगीत में दखल रखते हैं, पर वे कविता को संगीत का पर्याय नहीं बनाते, बल्कि सांगीतिक प्रभाव के व्याकरण में कविता को रचते हैं। इसलिए वे कभी उदास करने वाली, कभी बेचैन करने वाली, कभी रागमय बनाने वाली सांगीतिक प्रभाव सरीखी होती हैं। इसीलिए उनकी हर कविता ‘क्लैसिक’ बन जाती है। संगीत संबंधी उनकी कविताओं में यह संवेदना और भी रागमय हो जाती है।
मंगलेश की हर कविता गहन पाठ और व्याख्या की मांग करती है। ये कविताएं अपनी अंतर्वस्तु, कला, भाषा और संगीत प्रभावों के मेल से बनी ऐसे खूबसूरत स्थापत्य सरीखी हैं, जिसे देखने और महसूस करने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि इसका कौन-सा ऐसा हिस्सा है, जो आकर्षित नहीं करता। व्याकरण के चिह्नों से लगभग मुक्त, भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की तुलना में शब्दों का बहुत कम खर्चना, उनका लयात्मक गठन कविता के पाठ और संप्रेषणीयता को विशिष्ट बनाती है। घनीभूत भावों, विचारों की अभिव्यक्ति में शब्दों के लयात्मक गठन से जिन संगीत-सरीखे प्रभावों का सृजन होता है, वे आकर्षक और स्थायी हैं। इस सृष्टि के दुख, दर्द, बेचैनी, उदासी, प्रेम, स्मृति, संघर्ष और उसकी विडंबनाओं की ऐसी सघन, भावोद्रेकपूर्ण अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है और मनुष्यता के शत्रु की पहचान भी।
नए युग में शत्रु: मंगलेश डबराल; राधाकृष्ण प्रकाशन, 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली; 195 रुपए।
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